Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 97
फिर शार्दूल आगे बोला, “महाराज! उन श्रेष्ठ वानरों की गतिविधि का पता गुप्तचरों द्वारा नहीं लगाया जा सकता। वे बड़े पराक्रमी तथा बलवान हैं। उनकी सेना में घुसना भी असंभव है क्योंकि अनेक विशालकाय वानर उसकी रक्षा करते हैं। जैसे ही मैंने सेना में घुसने का प्रयास किया, विभीषण के साथी राक्षसों ने मुझे पकड़ लिया और वानरों ने घुटनों, मुक्कों, दाँतों व थप्पड़ों से मारते हुए मुझे इधर-उधर बहुत देर तक घुमाया।”
“मेरे शरीर से खून निकलने लगा, मैं व्याकुल हो गया, मेरी इन्द्रियाँ विचलित होने लगीं और मैं हाथ जोड़कर अपनी रक्षा की याचना करता रहा। फिर वे लोग मुझे श्रीराम के सामने ले गए। वहाँ मेरी दशा देखते ही श्रीराम ने ‘मत मारो, मत मारो’ कहकर उन वानरों को रोका और मेरी रक्षा की।”
“श्रीराम अपनी सेना का गरुड़ व्यूह बनाकर लंका की ओर बढ़ रहे हैं। इससे पहले कि वे लंका के परकोटे तक पहुँचें, आप या तो सीता को उन्हें लौटा दीजिए या युद्ध में आगे बढ़कर उनका सामना कीजिए।”
यह सुनकर रावण ने पुनः दोहराया कि “मैं सीता को कभी नहीं लौटाऊँगा।”
तब रावण ने फिर एक बार शार्दूल से वानर-सेना के मुख्य वीरों के बारे में पूछा तथा शार्दूल ने भी उसे जाम्बवान, धूम्र, हनुमान जी, सुषेण, दधिमुख, सुमुख, दुर्मुख, वेगदर्शी, नील, नल, अंगद, मैन्द, द्विविद, गज, गवाक्ष, गवय, शरभ, गन्धमादन, श्वेत, ज्योतिर्मुख, हेमकूट, श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव आदि के बारे में लगभग वही सब बताया, जो पहले शुक और सारण ने कहा था।
अब रावण बहुत चिंतित हो गया। उसने तुरंत अपने मंत्रियों को गुप्त-मंत्रणा के लिए बुलवाया और उन सबके साथ विचार-विमर्श करके उन्हें वापस भेज दिया।
इसके बाद विद्युज्जिह्व को साथ लेकर वह उसी प्रमदावन (अशोक-वाटिका) में पहुँचा, जहाँ सीता विद्यमान थीं। विद्युज्जिह्व मायाविशारद था। रावण ने उससे कहा, “निशाचर! हम दोनों अब माया के द्वारा सीता को भ्रमित करेंगे। तुम अपनी माया से राम का सिर बनाओ और एक विशाल धनुष-बाण साथ लेकर मेरे पास आओ।”
आज्ञा पाते ही विद्युज्जिह्व ने अपनी कुशलता से श्रीराम जैसा दिखने वाला एक नकली सिर बना दिया। उसे देखते ही रावण ने प्रसन्न होकर विद्युज्जिह्व को पुरस्कार में अपना एक आभूषण उतारकर दे दिया। फिर वह सीता को देखने के लिए अशोक वाटिका में गया। सीता जी सिर नीचा करके वहाँ भूमि पर शोकमग्न बैठी हुई थीं और अपने पति का स्मरण कर रही थीं।
सीता के पास पहुँचकर रावण ने बड़े हर्ष से कहा, “जिस राम के आने की आशा में तुम बैठी हुई थीं, वह युद्धभूमि में आज मारा गया। अब तुम उस मृतक राम का स्मरण करना छोड़ दो और मेरी भार्या बन जाओ। सुग्रीव के साथ राम समुद्र तट तक चला आया था। आधी रात को जब वे सब लोग सो गए, तो मेरे गुप्तचरों ने सेना का भली-भाँति निरीक्षण किया और फिर मेरे राक्षस सैनिकों ने पट्टिश, परिघ, चक्र, ऋष्टि, दण्ड, त्रिशूल, कूट, मुद्गर, तोमर, मूसल आदि से वानरों पर प्रहार करके पूरी वानर-सेना को नष्ट कर दिया। फिर प्रहस्त ने अपने सधे हुए हाथों से तलवार के एक झटके में ही राम का सिर काट डाला।”
“सुग्रीव और हनुमान को भी मेरे राक्षसों ने मार डाला। लक्ष्मण और विभीषण अपने प्राण बचाकर इधर-उधर भाग गए। जाम्बवान के दोनों घुटनों पर ऐसा प्रहार हुआ कि वह धराशायी हो गया। मैन्द, द्विविद, पनस, अंगद आदि सब वानर घायल होकर भूमि पर खून से लथपथ पड़े हुए हैं।”
सीता से ऐसा कहकर रावण ने अपनी एक राक्षसी से कहा, “तुम क्रूरकर्मा विद्युज्जिह्व को बुला लाओ, जो युद्ध-भूमि से राम का सिर लेकर आया है।”
अगले ही क्षण विद्युज्जिह्व एक धनुष तथा श्रीराम का नकली सिर लेकर वहाँ आया। रावण ने उससे कहा, “तुम राम का मस्तक शीघ्र ही सीता के आगे रख दो, ताकि यह बेचारी अपने पति का अंतिम दर्शन कर सके।”
इसके बाद रावण सीता से बोला, “सीते! यही तुम्हारे राम का धनुष है। अब तुम अपने पति को अंतिम बार देख लो और फिर मेरी बात मानकर मेरे साथ चलो।”
श्रीराम का वह कटा हुआ सिर देखकर सीता जी अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगीं और रोते-रोते कैकेयी की निन्दा करने लगीं कि ‘उसी के कारण श्रीराम को वनवास हुआ और अब उनकी मृत्यु हो गई।’
वे दुःख से कातर होकर श्रीराम के उस कटे हुए सिर को देखकर कहने लगीं, “आपने तो मेरा पाणिग्रहण करते समय प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं सदा तुम्हारे साथ रहकर धर्म का पालन करूँगा’, फिर आप किस प्रकार मुझे अकेला छोड़कर चले गए? ज्योतिषियों ने तो आपकी आयु बहुत लंबी बताई थी, किन्तु उनकी बात झूठी हो गई। आप तो सब प्रकार के संकटों से बचने के उपाय जानते थे, फिर किस प्रकार आप सोते समय शत्रु के हाथों मारे गए? अब लक्ष्मण जी अकेले ही अयोध्या लौट पाएँगे। जब शोकाकुल माता कौसल्या को पता चलेगा कि महापराक्रमी श्रीराम सोते समय ही युद्ध के बिना मारे गए तथा मैं हरण करके राक्षस के घर में लाई गई हूँ, तो उनका हृदय शोक से विदीर्ण हो जाएगा। हाय! श्रीराम ने मुझ जैसी कुल कलंकिणी से विवाह किया और मैं उनकी मृत्यु का कारण बन गई। निष्पाप श्रीराम मेरे कारण मारे गए।’
फिर सीता ने रावण से कहा, “रावण! तुम मेरा भी वध कर डालो और मुझे भी श्रीराम से मिला दो।”
सीता इस प्रकार विलाप कर रही थीं कि तभी रावण की सेना के एक राक्षस ने आकर सूचना दी कि “महाराज! किसी अत्यंत आवश्यक राजकीय कार्य के कारण सेनापति प्रहस्त आपसे मिलने के लिए पधारे हैं।”
उसकी बात सुनकर रावण अपने सेनापति से मिलने के लिए अशोक वाटिका से चला गया। उसके जाते ही श्रीराम का वह नकली सिर और वह धनुष दोनों ही अदृश्य हो गए।
जब रावण वहाँ से चला गया, तो सरमा नाम की एक राक्षसी तुरन्त ही सीता जी के पास आ गई और उन्हें सांत्वना देने लगी। वह सीता की रक्षा में नियुक्त थी और इतने दिनों में सीता से उसकी मित्रता हो गई थी।
धूल में लोटती और रोती हुई सीता को सरमा ने समझाया, “सखी! तुम धैर्य धारण करो। श्रीराम का इस प्रकार वध करना किसी के लिए भी संभव नहीं है। मैंने तुम्हारी और रावण की सब बातें सुनी हैं। उस दुष्टबुद्धि रावण ने तुम्हें भ्रम में डालने के लिए ही माया से वह धनुष और मस्तक रचा था।”
“मैंने स्वयं समुद्र तट पर ठहरी हुई सेना के बीच श्रीराम और लक्ष्मण को देखा है। वे सर्वथा सुरक्षित हैं। इसी कारण प्रहस्त के आते ही रावण घबराकर शीघ्र यहाँ से चला गया क्योंकि बहुत विशाल सेना को लेकर श्रीराम यहाँ आ पहुँचे हैं और रावण के सभी दूतों ने उसे यही समाचार दिया है कि वानर-सेना से जीतना असंभव है। इसी कारण रावण अब अपने मंत्रियों के साथ गुप्त परामर्श करने गया है।”
जब सरमा यह सब बता ही रही थी कि तभी उन दोनों ने युद्ध के लिए उद्यत सैनिकों की रणभेरी का भीषण नाद सुना। उन्हें सैनिकों के अस्त्र-शस्त्रों, हाथियों के गले में बजते घण्टों, रथों की घरघराहट, घोड़ों की हिनहिनाहट और भाँति-भाँति के बाजों के स्वर सुनाई पड़ रहे थे।
तब सरमा पुनः बोली कि “सीता! तुम्हारे दुःख के दिन अब शीघ्र ही समाप्त होने वाले हैं। अतः अब तुम शोक न करो। युद्ध की तैयारी हो चुकी है। रथों में घोड़े जोते जा रहे हैं, हजारों घुड़सवार हाथ में भाला लेकर निकल चुके हैं। नगर में सर्वत्र युद्ध के लिए सन्नद्ध सैनिक दिखाई पड़ रहे हैं। अब समरभूमि में रावण का वध करके शीघ्र ही श्रीराम तुमसे मिलेंगे। यदि तुम कहो, तो मैं गुप्त रूप से श्रीराम के पास जाकर तुम्हारा सन्देश उन तक पहुँचा दूँगी तथा उनका सन्देश तुम्हारे लिए ले आऊँगी।”
यह सब सुनकर सीता जी को कुछ सांत्वना मिली। उन्होंने कहा, “सरमे! यदि तुम मुझे प्रसन्न करना चाहती हो, तो तुम जाकर यह पता लगाओ कि रावण यहाँ से निकलकर कहाँ गया है और अब आगे क्या योजना बना रहा है।”
तब सरमा इन बातों का पता लगाने के लिए वहाँ से चली गई।
उधर अशोक वाटिका से निकलकर रावण अपने सभा भवन में गया। सब मंत्रियों से अपनी हाँ में हाँ मिलवाकर उसने सेनापति से कहा, “तुम लोग शीघ्र ही डंडे से पीट-पीटकर धौंसा बजाते हुए सब सैनिकों को एकत्र करो, किन्तु उन्हें इस बात का कारण मत बताना।”
तब रावण की आज्ञा के अनुसार उसके दूतों ने एक विशाल सेना वहाँ एकत्र कर दी।
उस सभा भवन में चल रहीं सब बातें सरमा ने छिपकर सुन ली थीं। उसने लौटकर सीता को बताया कि “विदेहनन्दिनी! राक्षसराज रावण की माता ने तथा उसके एक बूढ़े मन्त्री ने भी उसे समझाया कि ‘तुम सम्मानपूर्वक सीता को श्रीराम के पास वापस भेज दो। जनस्थान में जिस प्रकार श्रीराम ने अकेले ही सहस्त्रों राक्षसों का वध कर डाला था, वह उनके पराक्रम को समझने के लिए पर्याप्त है। उनके एक साधारण सेवक हनुमान ने अकेले ही समुद्र को लाँघकर सीता से भेंट कर ली और युद्ध में अनेकों राक्षसों का संहार करके पूरी लंका को नष्ट कर दिया, ऐसा कार्य और कौन कर सकता है?’”
“लेकिन इतना समझाने पर भी रावण ने उनकी बात नहीं मानी। अवश्य ही उसके सिर पर काल नाच रहा है, इसीलिए उसकी बुद्धि इस प्रकार भ्रष्ट हो गई है। तुम इस बात को निश्चित समझो कि श्रीराम के तीखे बाणों से अब वह युद्ध भूमि में मारा जाएगा।”
ये बातें चल ही रही थीं कि तभी अचानक वानर-सेना की ओर से भी शंखध्वनि तथा भेरी का भीषण नाद सुनाई पड़ने लगा। उसे सुनकर राक्षस सैनिकों में भय व्याप्त हो गया। रावण की मूर्खता के कारण उन्हें अब अपनी रक्षा का कोई उपाय दिखाई नहीं दे रहा था।
उस शंखध्वनि के साथ ही श्रीराम की सेना ने लंका पर आक्रमण कर दिया।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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