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लापियेर की पुस्तक ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में माउंटबेटन तत्कालीन राजनेताओं के व्यक्तित्वों की थाह लेने के लिए अनौपचारिक मुलाकातें करते हैं।
उन्होंने अपने निष्कर्षों में जिन्ना को सर्वाधिक जटिल पाया और एकमात्र कमजोरी जो वह ढूंढ पाये वह थी उनकी अतिशय महत्वाकांक्षा और गांधी से अथाह ईर्ष्या।
दूसरे नेता जिसे उन्होंने ‘प्राचीन रोम के भव्य सीनेटर’ के रूप में देखा और ‘अत्यंत निर्मम निगोशिएटर’ व कठोर व्यक्तित्व के रूप में पाया, वह थे सरदार पटेल। लेकिन उनकी कमजोरी भी उन्होंने ढूंढ निकाली और वह थी भावुकता में गांधी को अपना गुरु मानकर उनकी हर आज्ञा का पालन करने की मानसिक विवशता।
और नेहरू व गांधी?
माउंटबेटन के लिए नेहरू एक बच्चे से ज्यादा कुछ कभी नहीं रहे जिसे उन्होंने संकेतों पर नचाया।
जहाँ तक गांधी का प्रश्न है माउंटबेटन पहली ही भेंट में समझ गए कि गांधी एक निहायत आत्ममुग्ध व्यक्ति हैं।
इस मुलाकात के विषय में लापियेर माउंटबेटन के हवाले से लिखते हैं कि गाँधीजी को बातें करना बहुत पसंद है विशेषतः अपने बारे में ही बातें करना अतिशय पसंद है।
आत्ममुग्धता की सबसे बड़ी निशानी।
सच बात तो यह है कि गांधी नार्सासिज्म की हद तक आत्ममुग्ध थे।
उनके साहित्य को पढ़कर मेरा आकलन है कि उनका मानना था कि उनसे बड़ा अहिंसक व सत्य का आग्रही धरती पर कोई हुआ ही नहीं।
ब्रिटिश संरक्षण व भारतीय जनता में नेतृत्व के अभाव के चलते उन्होंने जो स्थान घेरा उसको लेकर उन्हें हद दर्जे की आसक्ति थी और उसे बनाये रखने के लिए उन्होंने कई बलियां लीं।
-अपने बेटे का भविष्य खा लिया,
-नेताजी व पटेल का अधिकार खा गये,
-भगतसिंह, स्वामी श्रद्धानंद व महाशय राजपाल का जीवन खा गये,
-हजारों स्त्रियों की इज्जत खा गये,
-लाखों निरीह हिंदुओं के प्राण खा गये,
और तो और विभाजन करवाकर भी विभाजन के लिये सौ प्रतिशत वोट पाकिस्तान बनवाने वाले सांपों के पाँच करोड़ संपोलों को फिर देश में ही रोककर इस देश का भविष्य भी खा गए।
माउंटबेटन ने नेताओं की कमजोरी से फायदा उठाकर इस देश के भूगोल और भविष्य की रेखाएं खींचीं।
और यह सब हुआ उस व्यक्ति के कारण जो अपनी आत्ममुग्धता में इस देश को दाँव पर लगाने से नहीं हिचकता था।
माउंटबेटन के अलावा दो और व्यक्ति थे जिन्होंने गांधी के व्यक्तित्व का विश्लेषण किया था जिनमें से एक थे हुतात्मा स्व.नाथूराम गोडसे।
कुछ लोग पूछते हैं कि उन्होंने जिन्ना को क्यूँ नहीं मारा या पहले क्यों नहीं मारा?
क्योंकि नाथूराम ऐसे लोगों की तरह मूर्ख नहीं थे बल्कि तत्कालीन परिस्थितियों में देशकाल व राजनीति व राजनेताओं का विश्लेषण करने वाले एक बुद्धिजीवी भी थे।
जिन्ना को मारने का कोई अर्थ नहीं था क्योंकि उससे मुस्लिमों की ‘हिंदू डोमिनेंसी’ की आशंका सिद्ध हो जाती और विभाजन को तुली बैठी सरकार को मुस्लिमों को सहानुभूति में ‘पाकिस्तान’ देने का बहाना मिल जाता।
पहले मारने का कोई अर्थ नहीं था क्योंकि भारत के अन्य नागरिकों की तरह उन्हें भी भरोसा था कि गांधी विभाजन स्वीकार नहीं करेंगे।
मोपला विद्रोह में चुप्पी, भगत सिंह, विभाजन को स्वीकार करने जैसे प्रकरणों से खार खाये बैठे गोडसे के धैर्य का पात्र तब छलक उठा जब गांधी ने शरणार्थियों को मस्जिदों से बाहर निकलवा दिया।
उस समय गांधी द्वारा पाकिस्तान यात्रा को लेकर भी हर देशभक्त संशय में था कि ‘ईस्ट वैस्ट पाकिस्तान कॉरीडोर’ या ऐसी ही किसी मांग पर वहीं धरने पर बैठ जाएं और भारत की अपार राष्ट्रीय क्षति हो।
भले ही स्व. गोडसे ने इस आशंका का उल्लेख अपने वक्तव्य में न किया हो लेकिन पचपन करोड़ वापस दिलाने में गाँधीजी ने जिस तरह निर्णायक भूमिका निभाई उससे गांधीजी प्रस्तावित यात्रा के विषय में ऐसी आशंका स्वाभाविक ही थी जिसने स्व. गोडसे के लिये न केवल निर्णय को पुष्ट कर दिया बल्कि उसे शीघ्रातिशीघ्र कार्यान्वित करना सुनिश्चित कर दिया।
गोडसे ये भी जानते थे कि उनके कृत्य से गांधी को स्वीकार्यता मिलेगी और उनके जीवन व हिंदुत्व को बदनाम किया जाएगा परंतु भारत का प्रश्न उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण था।
अब जहाँ तक उस तीसरे व्यक्ति का प्रश्न है जिसने गांधी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया था उन्होंने गांधी वध पर लिखा था,
“..गांधी की हत्या से इस देश के लिए कुछ अच्छा ही निकलेगा…यह लोगों को सोचने पर विवश करेगा कि उनके लिए अच्छा क्या है।”
इस महापुरुष की बात सत्य सिद्ध हुई और
आखिरकर इस देश ने 70 साल बाद सोचना शुरू किया कि गोडसे सही थे।
गांधी का आकलन और भविष्यवाणी करने वाले महापुरुष थे- बाबा साहेब अंबेडकर!

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