Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 100
श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई खून से लथपथ होकर बाणों की शय्या पर पड़े थे। उनकी साँसें बहुत धीमी हो गई थीं। उन्हें इस अवस्था में देखकर सब वानर शोक करने लगे। जब इन्द्रजीत ने बाणों की वर्षा रोक दी, तो सुग्रीव और विभीषण भी वहाँ आ पहुँचे।
मायावी मेघनाद को वानर देख नहीं पा रहे थे। तब विभीषण ने भी माया से देखना आरंभ किया और उसे अपना भतीजा सामने दिखाई दिया। श्रीराम व लक्ष्मण की यह अवस्था देखकर मेघनाद बहुत प्रसन्न था। उसने अपने पराक्रम का वर्णन करते हुए कहा, “सारे देवता और असुर मिलकर भी इन बाणों के बन्धन से दोनों भाइयों को छुड़ा नहीं सकते। लंका पर जो संकट छाया हुआ था, उसे आज मैंने समाप्त कर दिया है।”
इतना कहकर उसने पुनः बाण-वर्षा आरंभ कर दी। नौ बाणों से उसने नील को घायल कर दिया, तीन-तीन बाण मैन्द व द्विविद पर चलाए, एक तीक्ष्ण बाण से जाम्बवान की छाती में गहरी चोट पहुँचाई तथा हनुमान जी को भी उसने दस वेगवान बाण मार दिए। दो-दो बाण मारकर उसने गवाक्ष तथा शरभ को घायल कर दिया और अंगद को भी अपने बाणों से गहरी चोट पहुँचाई। बड़े-बड़े वानर वीरों को अपने बाणों से इस प्रकार घायल करके उसने भीषण अट्टहास किया। उसके इस पराक्रम को देखकर राक्षस-सैनिक चकित रह गए।
श्रीराम-लक्ष्मण को बाणों से घायल और मूर्च्छित देखकर सुग्रीव भयभीत हो उठा। उसके नेत्र शोक से व्याकुल हो गए और वह दुःख से आँसू बहाने लगा। तब विभीषण ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, “सुग्रीव! डरो मत। डरने से कोई लाभ नहीं होगा। युद्ध में विजय कभी निश्चित नहीं होती है। भाग्य ने साथ दिया, तो ये दोनों भाई अवश्य ठीक हो जाएँगे।”
ऐसा कहकर विभीषण ने जल से भीगे हाथों से सुग्रीव के आँसू पोंछ दिये। तब सुग्रीव का मन कुछ शांत हुआ।
विभीषण ने आगे कहा, “वानरराज! यह घबराने का समय नहीं है। घबराहट से सब काम बिगड़ जाते हैं। घबराहट को छोड़कर इस समय हमें सेना को संभालना चाहिए और इन दोनों भाइयों की रक्षा करनी चाहिए। देखो, ये सब वानर घबरा गए हैं और आपस में कानाफूसी कर रहे हैं। मैं जाकर इन्हें समझाता हूँ, तुम इन दोनों भाइयों की रक्षा का ध्यान रखो।”
यह कहकर विभीषण वानर सेना को समझाने चला गया और सब प्रमुख वानर श्रीराम व लक्ष्मण को चारों ओर से घेरकर उनकी रक्षा के लिए पहरा देने लगे। थोड़ी भी आहट होते ही वे चौंक उठते थे कि कहीं इन्द्रजीत तो नहीं आ गया।
श्रीराम और लक्ष्मण को इस प्रकार भूमि पर पड़ा देखकर मेघनाद ने उन्हें मृत मान लिया और वह अपनी सेना के साथ लंका वापस लौट गया। अपने पिता निशाचर रावण के पास जाकर उसने राम-लक्ष्मण के मारे जाने का प्रिय समाचार सुनाया। यह सुनकर रावण हर्ष से उछल पड़ा व उसने अपने इस पराक्रमी पुत्र को गले से लगा लिया। फिर उसने घटना का पूरा वर्णन पूछा। इन्द्रजीत से पूरी घटना सुनने के बाद वह और भी अधिक प्रसन्न हो गया। उसकी सारी व्याकुलता दूर हो गई। उसने अपने इस पुत्र की अत्यंत प्रशंसा करके उसे विदा किया।
उसके जाते ही रावण ने सीताजी की रक्षा करने वाली त्रिजटा व अन्य राक्षसियों को बुलवाकर उनसे कहा, “राक्षसियों! तुम लोग जाकर सीता से बताओ कि इन्द्रजीत ने राम और लक्ष्मण को मार डाला। फिर उसे पुष्पक विमान पर बिठाकर रणभूमि में ले जाओ व उन दोनों मरे हुए भाइयों के शव दिखा दो। जिनके भरोसे सीता आज तक मुझसे दूर थी, अब उनकी मृत्यु के बाद उसकी आशा समाप्त हो जाएगी और वह स्वयं ही चलकर मेरे पास आ जाएगी।”
राक्षसियों ने रावण की आज्ञा का पालन किया और सीता को पुष्पक-विमान पर बिठाकर पूरी लंका दिखाई। त्रिजटा के साथ उस विमान में बैठी हुई सीता ने युद्धभूमि में वानरों की मृत सेना को भी देखा। उन्हें बाणों की शय्या पर सोये हुए दोनों भाई भी दिखाई पड़े। उन दोनों के कवच टूट गए थे, धनुष-बाण इधर-उधर पड़े हुए थे और सायकों से सारा शरीर छलनी हो गया था। सब वानर उनके चारों और अत्यंत दुःखी होकर खड़े थे।
यह भीषण दृश्य देखकर सीता का धैर्य टूट गया और वे फूट-फूटकर रोते हुए कहने लगीं, “सामुद्रिक लक्षणों को जानने वाले विद्वानों ने मुझे पुत्रवती बताया था। लक्षणवेत्ता पुरुषों ने मुझे यज्ञपरायण व राजाधिराज की पत्नी कहा था। ज्योतिष के विद्वानों ने मेरे पति के राज्याभिषेक की भविष्यवाणी की थी। उन सबकी बातें आज झूठी हो गईं। मेरे शरीर में स्त्रियों के सारे शुभ-लक्षण विद्यमान हैं, किन्तु वे सब आज निष्फल हो गए। इन दोनों भाइयों ने मेरे लिए जनस्थान को छान डाला, विशाल समुद्र को भी पार कर लिया, किन्तु हाय! इतने सब कर लेने के बाद भी वे राक्षस-सेना के हाथों मारे गए। ये दोनों तो वरुण, आग्नेय, ऐन्द्र, वायव्य एवं ब्रह्मशिर आदि सब अस्त्रों को जानते थे। उन्होंने मरने से पहले इन अस्त्रों का प्रयोग क्यों नहीं किया? सत्य ही है कि काल के आगे सब विवश होते हैं।”
सीता की ऐसी बातें सुनकर राक्षसी त्रिजटा ने उन्हें समझाते हुए कहा, “देवी! विषाद न करो। सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना में घबराहट मच जाती है, किन्तु वानर-सेना में कोई घबराहट या उद्वेग नहीं है। सब वानर एकजुट होकर दोनों राजकुमारों की रक्षा कर रहे हैं। बाणों से अचेत होने पर भी इन दोनों भाइयों के शरीर की कान्ति नष्ट नहीं हुई है। उनके मुख पर भी कोई विकृति नहीं है। इन सब लक्षणों से स्पष्ट है कि तुम्हारे पतिदेव जीवित हैं। तुम्हारे शील-स्वभाव और निर्मल चरित्र के कारण तुम मेरे मन में घर कर गई हो। इसीलिए मैं स्नेहवश तुमसे यह सब कह रही हूँ। तुम अपने शोक और दुःख को त्याग दो। ये दोनों भाई मर नहीं सकते।”
त्रिजटा की इन बातों को सुनकर सीता को सांत्वना मिली। फिर पुष्पक विमान उन दोनों को लेकर लंका वापस लौट गया और विमान से उतरने पर राक्षसियों ने पुनः सीता को अशोक वाटिका में पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर सीता उन दोनों का स्मरण करके पुनः शोक में डूब गईं।
उधर युद्ध-भूमि में बहुत देर बाद श्रीराम की मूर्छा टूटी और वे जाग गए। अपने प्रिय भाई को बाणों से घायल होकर भूमि पर खून से लथपथ पड़ा देख वे अत्यंत व्यथित होकर विलाप करने लगे, “हाय! आज मैं अपने पराजित भाई को इस प्रकार युद्ध-स्थल में पड़ा हुआ देख रहा हूँ। अब यदि सीता मुझे मिल भी गई, तो मैं प्रसन्न नहीं हो सकता। लक्ष्मण जैसा भाई मिलना असंभव है। यदि लक्ष्मण जीवित न रहा, तो मैं भी अपने प्राण त्याग दूँगा। मुझे जैसे दुष्कर्मी व अनार्य को धिक्कार है कि मेरे कारण आज लक्ष्मण इस प्रकार बाणों की शय्या पर पड़ा है।”
“जब मैं विषाद में डूब जाता था, तो लक्ष्मण ही मुझे सांत्वना देता था। अत्यंत कुपित होने पर भी इसने कभी मुझसे कोई कठोर या अप्रिय बात नहीं कही। मेरा यह भाई इतना वीर था कि एक ही बार में पाँच सौ बाण चला सकता था। वही आज यहाँ बाणों की शय्या पर लेटा हुआ है। जिस प्रकार लक्ष्मण मेरे पीछे-पीछे वन में चला आया था, उसी प्रकार अब मैं भी उसके पीछे-पीछे यमलोक को चला जाऊँगा।”
“मुझे यह दुःख सदा जलाता रहेगा कि विभीषण को राक्षसों का राजा बनाने की बात मैं पूरी नहीं कर सका। मित्र सुग्रीव! अब तुम अपनी सेना सहित यहाँ से लौट जाओ क्योंकि मेरे बिना तुम्हें असहाय समझकर रावण तुम्हारा तिरस्कार करेगा। नल, नील, अंगद, जाम्बवान, गवाक्ष, मैन्द, द्विविद, शरभ, गज आदि सब वानरों ने मेरे लिए अपना महान पराक्रम दिखाया और प्राणों का मोह त्यागकर घनघोर युद्ध किया। परन्तु भाग्य के लिखे को मिटाना असंभव है। मेरे लिए जो कुछ हो सकता था, वह सब तुम लोगों ने किया है। अब जहाँ इच्छा हो, वहाँ तुम सब चले जाओ। यह मेरी आज्ञा है।”
श्रीराम का ऐसा विलाप सुनकर सब वानर दुःख से आँसू बहाने लगे।
वानर-सेना का निरीक्षण करने गया विभीषण भी तब तक अपना कार्य पूरा करके हाथ में गदा लिए हुए वापस लौट आया। उसे आता देखकर सब वानर उसी को इन्द्रजीत समझकर घबराहट में इधर-उधर भागने लगे।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा…

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