कुछ लोग एतराज करते हैं कि रावण को महाज्ञानी कहना उचित नहीं है । जबकि उन्हें समझ नहीं है कि रावण का महाज्ञानी होना ही वास्तविकता को आईना दिखाना है ।
सर्वनाश किसी अज्ञानी का नहीं होता उसकी तो सिर्फ आंशिक क्षति होती है, उस क्षति से अज्ञानी उबरने की कोशिश करता है , लगभग उबर भी जाता है क्योंकि अहँकार की मात्रा बड़ी कम होती है लेकिन एक महाज्ञानी के अंदर अहंकार उच्चतम स्तर का होता है वो सबकुछ जानते समझते देखते हुए भी जिद पर अड़ जाता है , अहँकार उसकी सारी दृष्टि को खा जाता है , मस्तिष्क में सिर्फ और सिर्फ उसका अहंकार स्थान बनाये घूमता फिरता है।
सोचने समझने की सारी शक्ति विलुप्त हो जाती है और अब अपने अहंकार का पोषण करना ही उसका परम कर्त्तव्य हो जाता है । समाज में ऐसे कई लोग हैं जो अपने अहंकार का इतना अधिक पोषण कर बैठे हैं कि दूरदर्शिता उनके मस्तिष्क की संकरी गली में कहीं विचर रही है। अपने ही अहंकार के महल में हाँ में हाँ मिलाने वालों को बैठाकर अपने अहंकार का पोषण करके प्रसन्न हैं।
खुद राजा बन बैठे हैं और चार चाटुकारों को मंत्री बना बैठे हैं , ऐसी स्थिति में उनके साथ यही होना है ;
सचिव बैद्य गुरु तीन ज्यों प्रिय बोलें भय आस
राजधर्म तन तीन कर होंहि बेगहि नाश
तुम अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मान बैठे हो, तुम मानते हो कि तुम्हारे द्वारा किये गए सारे अधार्मिक कार्य भी धर्म ही हैं।
तुम मानते हो कि तुमने शास्त्रों को अपने वश में कर रखा है और तुम जो कहोगे वो वही करेंगे तो फिर रास्ता क्या बचता है प्रकृति के पास सिवाय तुम्हारे शास्त्रों के साथ तुम्हारे भी सर्वनाश की गति को लिखने की..?