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हिन्दू धर्म का दर्शन को समझना

रंजना सिंह

by रंजना सिंह
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तुम सनातन वैदिक आर्य हिन्दू धर्म का दर्शन समझना चाहते हो ।
कार्ल मार्क्स तुमको बराबरी नही दिला पाएगा।
हमारे गरूण पुराण की एकदम अंतिम पंक्ति भी तुम्हें बराबरी और सम्मान दिलाएगी। पर तुम्हें धर्म के पथ पर चलना होगा ( चंपक वाले दूर रहें )।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः।
पूरा वामपंथ पढ़ कर इससे अच्छा वाक्य ढूँढ कर ले आओ , अगर दम है तो।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
यह एक थोथा शांति पाठ मात्र नहीं है बल्कि यही है सनातन धर्म का जीवन दर्शन। जहाँ , सर्व के कल्याण की भावना है और उस सर्व में पशु पक्षी और वनस्पतियाँ भी सम्मलित हैं ।
राजशेखर
राँची से दिल्ली आते हुए कल वामपंथ के और एक विष से परिचय हुआ.
नायपॉल की “Beyond Belief” पढ़ रहा था. बगल वाली सीट पर बैठे हुए आदमी ने कहा – कैसी लग रही है किताब?
मैंने सर उठाया और पहली बार उस आदमी का नोटिस लिया. 60-65 साल का एक गोरा था. जीन्स, महँगी सी दिखने वाली फॉर्मल जैकेट, सर पर हैट…
यह किताब इस्लाम पर अपनी टिप्पणियों की वजह से विवादित रही है. तो अपना रिएक्शन छुपाते हुए मैंने कहा – अभी तो शुरू ही किया हूँ.
उसने कहा – बहुत अच्छी किताब है…
मैंने पूछा – पढ़ी है आपने?
उसने कहा – हाँ, मैंने नायपॉल की सारी किताबें पढ़ी हैं.
– सारी? सभी 30?
वह थोड़ा सकपकाया – ना, तीस तो नहीं, शायद 10-12.
– और सबसे अच्छी कौन सी लगी?
– Million Mutinies…
मेरा माथा थोड़ा ठनका. यह आदमी एक टूरिस्ट नहीं लग रहा था. एक तो झारखंड में विदेशी टूरिस्टों के लिए कोई आकर्षण नहीं है. और एक गोरा टूरिस्ट यहाँ की 26 डिग्री के तापमान में गर्म जैकेट नहीं पहनेगा. यह व्यक्ति भारत के मौसम का अभ्यस्त हो गया है. तीसरे, उच्चारण से यह अंग्रेज़ भी नहीं लग रहा है. तो एक अभारतीय, गैर-अंग्रेज़ की नायपॉल में क्या रुचि हो सकती है?
मैंने कुरेदा – Million Mutinies में क्या अच्छा लगा आपको.
उसने कहा – साहित्य के रूप में यह कुछ खास नहीं है पर उसमें भारत के अंदर के कॉन्फ्लिक्टस का बहुत अच्छा वर्णन है…
मैं असहमत था…साहित्य के रूप में यह किताब एक माइलस्टोन है. और जिसे वह कॉन्फ्लिक्टस कह रहा है, उसे नायपॉल ने देश की अपनी आइडेंटिटी को तलाशने की कोशिश कहा है और किताब बेहद सकारात्मक मोड़ पर खत्म की है. तो यह है कौन, जिसकी नायपॉल में रुचि भारत में आंतरिक संघर्ष खोजने में है.
अब मैंने जबरदस्ती उससे बात करना शुरू किया…लगभग नायपॉलियन टेक्निक से.
– आप कहाँ से हो.
– मैं डच हूँ.
– और इस एरिया में क्या कर रहे हो.
– मैं हिस्टोरियन हूँ. ट्राइब्स के इतिहास पर रिसर्च कर रहा हूँ.
– अच्छा; क्या आप अपने रिसर्च का कुछ इनसाइट शेयर करना चाहोगे?
– यही कहूँगा, हिस्ट्री कोई मोरल साइंस नहीं है. हिस्ट्री का कोई सही या गलत नहीं होता. जो होता है वह होता है…हमें बिल्कुल ऑब्जेक्टिव होकर हिस्ट्री को देखना चाहिए, नहीं तो हम सच को देखने से चूक जाएँगे.
– बेशक, सहमत हूँ. मेरा भी यही कहना है. इतिहास की शक्तियाँ प्रकृति की शक्तियों जैसी होती हैं, इतिहास के नियम विज्ञान के नियमों की तरह होते हैं.
पर जब आप भारत की बात कर रहे हैं तो कृपया मुझसे न्यूट्रलिटी की उम्मीद ना करें.
वैसे आपकी इस रिसर्च का सोर्स क्या है?
उसने कहा – डाक्यूमेंट्स, आर्काइव्स…
– कौन से आर्काइव्स? पिछले 200 सालों के ब्रिटिश डाक्यूमेंट्स ही होंगे ना? क्योंकि हम भारतीय इतिहास के डॉक्यूमेंटेशन में बहुत ही बुरे हैं. इसलिए जब एक बाहरी यहाँ आता है तो वह अपने साथ अपने पूर्वाग्रह लेकर आता है और आसानी से अपने मनचाहे निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र होता है. मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि आप भी यही कर रहे हो.
– मुग़ल आर्काइव्स के डाक्यूमेंट्स…बहुत से हैं.
– अच्छा, और आपने क्या पाया?
– कि यहाँ के ट्राइब्स का इतिहास बहुत ही हिंसक और संघर्षों से भरा है. लगातार विद्रोह होते रहे.
– अगर एक कम्युनिटी विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध विद्रोह करती है तो यह तो एक्सपेक्टेड ही है. इसमें असामान्य तो कुछ नहीं है.
– नहीं, ब्रिटिश पीरियड अपेक्षाकृत शांत रहा. उसके पहले का इतिहास ज्यादा हिंसक है.
– अगर आपको मुग़ल काल में विद्रोह मिले तो वह भी एक्सपेक्टेड ही है.
– नहीं, मुगलों से नहीं…आपस में संघर्ष.
– अच्छा, आपस में कैसा संघर्ष?
– छोटानागपुर के इतिहास को देखें तो यहाँ जिस किस्म की घुसपैठ, मास माइग्रेशन हुआ है, उससे यहाँ लगातार एक लो लेवल कॉन्फ्लिक्ट की स्थिति बनी रही है.
– अच्छा? किनकी घुसपैठ?
– बिहारियों की, बंगालियों की, उड़िया की…
और यह समझ लो, यहाँ के ट्राइब्स तुम्हारे देश की, तुम्हारे डेवेलपमेंट की, तुम्हारे कल्चर की परवाह नहीं करते. वे अकेले छोड़ दिये जाना चाहते हैं.
– अच्छा, आपने किस ट्राइब को स्टडी किया है?
– “हो” ट्राइब को.
– हाँ, “हो” ट्राइब इस मामले में मुख्यधारा से थोड़ी अलग है. वे चाईबासा के आसपास हैं. आज भी उनमें से अनेक “हो” छोड़कर और कोई भाषा नहीं जानते. उसमें से कुछ जब बीमार पड़ने पर जमशेदपुर आते हैं तो समस्या हो जाती है क्योंकि किसी से बात नहीं कर पाते.
– हाँ; इसीलिए तो मैंने उन्हें चुना है.
– अच्छा, तो आप भी अपने साथ एक पूर्वाग्रह लेकर ही आये हैं, अपने पूर्वनिर्धारित निष्कर्ष को स्थापित करने के लिए मटेरियल जुटाने.
– नहीं, ऐसा नहीं है. यह तो मैंने यहाँ आकर जाना.
– अच्छा, फिर भी आने के पहले से आप जानते थे कि आपको मुंडा, उरांव, संथाल छोड़ कर हो को ही स्टडी करना है.
– हो ट्राइब बाहर वालों के घुसपैठ और हस्तक्षेप को पसंद नहीं करती.
उसकी निष्पक्षता और ऑब्जेक्टिविटी का पर्दा उठ चुका था. अब मुझे दूसरा पक्ष स्थापित करना था…मिशनरियों से उसका संबंध.
मैंने पूछा – पर सबसे ज्यादा हस्तक्षेप तो मिशनरियाँ करती हैं.
– कौन सी मिशनरी?
– बेशक, ईसाई मिशनरी…
– और हिन्दू मिशनरी?
– हिन्दू मिशनरी? यह क्या होता है? हिन्दू मिशनरी धर्म है ही नहीं. हम तो किसी को कन्वर्ट करते ही नहीं.
– नहीं, हिन्दू एक्टिविस्ट वहाँ जाते हैं.
– क्यों ना जाएँ. ईसाई मिशनरी कन्वर्शन करती रहे और हम जाएँ भी नहीं? मेरे घर से चालीस किलोमीटर दूर, और मैं वहाँ बाहरी हूँ…और तुम 5000 मील दूर से आकर उनके अपने और हितैषी हो गए.
अब उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा था. उसकी आवाज तेज हो रही थी. उसका स्कॉलरली मुखौटा उतर गया था. उसकी निष्पक्षता का क्लेम ध्वस्त हो गया था.
– हर कोई कहीं ना कहीं से आता है. क्या दिक्कत है तुम्हें कन्वर्शन से.
– बिल्कुल है. इससे हमारी डेमोग्राफी प्रभावित होती है. क्रिश्चियनिटी कब से ट्राइबल कल्चर कहलाने लगा? यह छुपा हुआ आक्रमण है, इम्पेरिअलिज्म है…दूसरे नाम से.
– तुम इंडियंस हर बात को इतना पॉलिटिकल क्यों बना देते हो?
– क्योंकि यह है ही पॉलिटिकल. तुम्हें यह अच्छा नहीं लग रहा कि भारत ने अपनी पॉलिटिकल नियति खुद तय करनी क्यों शुरू कर दी है. क्यों नहीं पहले की तरह इसे यूरोपियनों के हाथ में छोड़ दिया…
और कम से कम मैं यह प्रीटेंड नहीं कर रहा कि मैं न्यूट्रल हूँ. तुम भी यह प्रीटेंड करना बन्द कर दो कि तुम एक ऑब्जेक्टिव, न्यूट्रल स्कॉलर हो. तुम धंधेबाज हो…तुम इतिहास को मन-मुताबिक तोड़ने मरोड़ने के धंधे में हो. हम ऐसे हिस्टोरियंस को ट्वीस्टोरियन कहते हैं. और तुम अगर इन ट्राइब्स को स्टडी कर रहे हो तो इसलिए नहीं कि तुम्हें इनसे कुछ मतलब है. बल्कि इसलिए कि तुम्हें यहाँ अपना कनफ्लिक्ट नैरेटिव खड़ा करना है. कोई तुम्हारे यहाँ होने का खर्चा उठा रहा है, तुममें इन्वेस्ट कर रहा है तो इसलिए नहीं कि तुम बड़े काबिल हो, बल्कि इसलिए कि इसमें उनका पॉलिटिकल फायदा है…तुम उसके एम्प्लॉयी हो.
उसके नथुनों से आग निकल रही थी. उसकी रेस्पेक्टेबिलिटी का स्वांग खत्म हो गया था. अपने महंगे जैकेट और स्टाइलिश हैट के बावजूद वह बिल्कुल नंगा था…चेहरे से उसका द्वेष, उसका जंगलीपन टपक रहा था. उसका सिविलाइजेशनल जंगलीपन जो दूसरी सभ्यताओं की हत्या कर देने को बेताब है.
मैंने नॉक-आउट पंच मारकर सात तक गिनती गिनी. फिर शान्त भाव से नायपॉल को पढ़ने लगा. उसने भी धड़ाम-धडूम झटके से ट्रे टेबल को बन्द किया. झनकते-पटकते अपना हैंडबैग खोला और उसमें से एक किताब निकाली और पढ़ने लगा. मैंने देखा, किताब थी दूसरे वामपंथी जेएनयू के छोरे अभिजीत बनर्जी की “पुअर इकोनॉमिक्स”. अगल बगल की सीट पर एक वामपंथी दूसरे वामपंथी से मिल रहा था और एक हिन्दू दूसरे हिन्दू से.
(उपर्युक्त भाग आदरणीय राजशेखर भाई के पोस्ट से)
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यही #कालचक्र है
अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा पैराडॉक्स यह है कि पूंजीपति पूंजीवाद नहीं चाहता है.
पूंजीपति समाजवाद के साथ अधिक कंफर्टेबल है.
एडम स्मिथ लिखते हैं कि व्यापारी अगर किसी एक चीज से सबसे अधिक घृणा करता है तो वह है प्रतियोगिता से. व्यापारी की प्रवृति होती है कि वह प्रतियोगिता नहीं चाहता. लेकिन पूंजीवाद उसे यह ऑप्शन नहीं देता.
उसे यह ऑप्शन कौन देता है? समाजवाद!
जब हमारे आर्थिक निर्णयों का अधिकार सरकार के हाथ में पहुंच जाता है तो सबसे अधिक खुश होता है पूंजीपति. उसके लिए करोड़ों उपभोक्ताओं को खुश करने से अधिक आसान है दो चार पॉलिटिशियंस को, दस बीस सरकारी कर्मचारियों को खुश करना. उसे समझ में आता है कि ये पॉलिटिशियंस और सरकारी कर्मचारी उसके कॉम्पिटिशन को मार्केट में नहीं आने देंगे और वह सरकार की मदद से अपनी मोनोपॉली स्थापित कर सकेगा. स्थापित पूंजीपतियों और सरकार की यह सांठगांठ सिर्फ समाजवादी तंत्र में ही संभव है. इस सांठगांठ को वामपंथी क्रोनी कैपिटलिज्म कहते हैं. पर यह किसी भी विशेषण के साथ कैपिटलिज्म नहीं है. इसे कॉर्पोरेट सोशलिज्म कहना अधिक उचित होगा.
हालांकि कैपिटलिस्ट यह नहीं सोच पाता कि वह कॉम्पिटिशन से तो बच सकता है, कर्मफल के नियम से नहीं बच सकता. कैपिटलिस्ट जिस प्रॉसेस से कैपिटलिस्ट बना है उस प्रॉसेस को ही खत्म करना चाहता है, जिस सीढ़ी को पकड़ कर ऊपर चढ़ा है उस सीढ़ी को गिरा देना चाहता है. गूगल, फेसबुक, एप्पल ये सभी जायंट कॉरपोरेट्स सिर्फ अमेरिका के पूंजीवादी समाज में ही उपज सकते थे, लेकिन वे आज अमेरिका में वामपंथ के सबसे बड़े स्पॉन्सर हैं. वे यह नहीं समझते कि यह वामपंथ जब उस कैपिटलिस्ट प्रॉसेस को खत्म कर देगा तो उस समाज की संपन्नता को भी खत्म कर देगा जो उस प्रॉसेस की उपज है. और जब समाज की संपन्नता खत्म हो जाएगी तो इन कॉरपोरेट्स की संपन्नता भी खत्म हो जाएगी जो वे अपने परिवेश से ही पाते हैं. एप्पल का कंप्यूटर कोई इथियोपिया और सोमालिया में नहीं खरीदेगा. उसे खरीदने के लिए एक संपन्न समाज चाहिए. फेसबुक की आमदनी हमारे आपके फेसबुक पोस्ट्स से नहीं हो रही, उन उत्पादकों और विक्रेताओं से होती है जो फेसबुक का प्रयोग अपने विज्ञापनों के लिए करते हैं.
यही #कालचक्र है
कॉम्युनिज़म का बेसिक प्रिन्सिपल यह है :
“दो क्लास के बीच पहले अंतर दिखाना, फ़िर इस अंतर की वजह से झगड़ा करवाना और फ़िर दोनों ही क्लास को ख़त्म कर देना”…
वामपंथी वो प्रजाति है जो आपको ये विश्वास दिलादे की पतंग आसमान इसलिए नहीं छू पा रही क्योंकि वो एक डोर से बंधी है।
Feminism वामपंथी द्वारा पैदा किया हुआ एक कीड़ा है जो हमारी सनातनी बच्चों को ये विश्वास दिला देता है कि पति एक डोर है जिसकी वजह से वोह उड़ नहीं पा रही है।
“कॉम्युनिस्ट अफ़ीम” बहुत “घातक” होती है, उन्हें ही सबसे पहले मारती है, जो इसके चक्कर में पड़ते हैं..!
कॉम्युनिज़म का बेसिक प्रिन्सिपल यह है :
“दो क्लास के बीच पहले अंतर दिखाना, फ़िर इस अंतर की वजह से झगड़ा करवाना और फ़िर दोनों ही क्लास को ख़त्म कर देना”…
कॉम्युनिज़म सदेव एक काल्पनिक पूंजीवादी से संघर्ष करता मिलेगा जब तक सारी व्यवस्था चोपठ ना हो जाय।
बामपंथी हमेशा समाज में असहजता, विद्रोह, असंतुष्टि, अप्रसन्नता को हवा दे कर तंत्र को तबाह करने में लगा रहता है। पर तंत्र में पलट कर नियमानुसार सर्वमान्य, सर्वस्वीकार्य न्यायविधि से कार्यवाई कर दी तो कोई न कोई घटिया बहाना लेकर बचकाने ढंग से बचाव मे खड़ा होकर समाज में औसत बुद्धि के भावनात्मक लोगों की भीड़ को चारे की तरह इस्तेमाल करता है।
21 साल का सैनिक कश्मीर में बलात्कार करता है पर 21 साल का आतंकी बेचारा भटका हुआ है।
बामपंथ हर समाधान में समस्या खोज लेगा।
आप अपनें प्रतिष्ठान में एक टॉयलेट बनायेंगे तो ये इसे महिलाओं पर अत्याचार कहेंगे। आप दो टॉयलेट बनायेंगे तो ये इसे महिलाओं से विभेद बतायेंगे और जेंडर न्युट्रल टॉयलेट की मांग करेंगे।
महिला के मासिक धर्म के समय आप छुट्टी नहीं देंगे तो ये आपको अत्याचारी बतायेंगे। और आप उस समय महिला को आने से मना करेंगे तो ये आपको महिला विरोधी मानसिकता वाला करार देंगे।
कॉमरेड उवाच –
वामपन्थी एक फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर और फैक्ट्री के मालिक उद्यमी में संघर्ष खोजते हैं, एक समाज में रहने वाले दो समुदायों में संघर्ष खोजते हैं, अड़ोस पड़ोस में रहने वाले अमीर और गरीब में संघर्ष खोजते हैं, एक परिवार में एक छत के नीचे रहने वाले और एक बिस्तर पर सोने वाले स्त्री-पुरुष में संघर्ष खोजते हैं। वे आपकी जान और आपकी स्वतंत्रता के दुश्मन आक्रमणकारी से संघर्ष नहीं खोजते।
वामपन्थी अक्सर किसी भी एक पॉजिटिव सेंटिमेंट को उसकी उपयोगिता की उस सीमा तक ले जाते हैं कि वह हानिकारक हो जाती है वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अति तक ले जाते हैं और उसका उपयोग समाज को छिन्न भिन्न करने में करते हैं। वे स्त्री के अधिकारों को उस सीमा तक ले जाते हैं कि परिवार को नष्ट कर देते हैं। वे पर्यावरण की चिन्ता को वहाँ लेकर जाते हैं जहाँ वे उद्योगों और व्यवसाय को रुग्ण और अपंग बना देते हैं.
एक तरफ ये लोकतांत्रिक देशों में चुनी हुई सरकार को गाली देते हुए तानाशाह कहेंगे। दूसरी तरफ ये एक मौका पाते ही देश को तानाशाही की तरफ ले जाते हैं।
ये पूंजीवादियों को जमकर गाली देते हैं। दूसरी तरफ ये सरकार को ही पूंजी कमाने में लगाने की पैरवी करते हैं।
हिन्दू धार्मिक आस्था से बामपंथी का सदेव बेर रहेगा पर विधर्मी उन्माद के समकश इनकी कलिया खुल जाती हैं। धर्म विहीनता के मारे वामपन्थी को धार्मिक स्तर पर पड़खनी नही दी जा सकती है। किंतु इन्हे इनके पूर्व कार्यो पर घेरा जा सकता है।
कुल मिलाकर हर परिस्थिति में असन्तुष्ट। जब तक की खुद की तानाशाही सरकार न हासिल कर ले।
वामपन्थी और भेड़िया मे समानता
भेड़िया ही एकमात्र ऐसा जानवर है जो भूख मिटाने के लिए शिकार नहीं करता। वह शुद्ध रूप से हिंसा करने, दूसरे जानवरों को मारने का सुख लेने के लिए शिकार करता है। वामपन्थी ऐसे ही भेड़िये होते हैं।
एक औसत बामपंथी नेता धूर्त होता है जबकी एक औसत बामपंथी समर्थक मूर्ख होता है। धूर्तों और मूर्खो की इस फौज से देश को बचाकर रखना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिये।
है ना विषैले वामपन्थ की हर बात मजेदार।
असमानता प्रकृति का नियम है, और न्याय सभ्यता का. समानता स्थापित करना न्याय नहीं है, असमानता के बावजूद किसी का शोषण ना हो यह न्याय है. लोग असमान हैं इसीलिए शक्तिशाली से कमजोर की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सरकार नाम का इंस्टिट्यूशन बना है. यही प्रक्रिया न्याय को स्थापित करती है.
जब समाज मे व्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई तो सम्पदा का सृजन सम्भव हुआ. लोग लॉन्ग टर्म गोल्स को परस्यू करने लगे. खेती करना सम्भव हुआ क्योंकि आश्वासन हुआ कि आपकी खेत की फसल को कोई दूसरा छीन कर नहीं ले जाएगा. बचत करना संभव हुआ क्योंकि आपकी बचत को कोई नहीं छीनेगा और आप उसे निवेश कर सकेंगे, तो व्यवसाय सम्भव हुआ. लोग स्वेच्छा से म्यूचअली बेनेफिशल कॉन्ट्रैक्ट को स्वीकार करने लगे. इसके बिना वे स्लेव्स होते.
सरकार नाम का इंस्टिट्यूशन बनाया ही इसलिये गया जिससे लोग स्वतंत्र रह सकें, और दुनिया में सारी समृद्धि इस स्वतंत्रता की देन है. इसलिये यह सरकार का काम है और सरकार का सिर्फ यही काम है. हम सबने नियम कानून स्वीकार किये, अपनी अपनी स्वतंत्रता का एक भाग सैक्रिफाइस किया जिससे सबकी स्वतंत्रता सुनिश्चित हो सके. पूरी सभ्यता बस इतने से एडजस्टमेंट से जन्मी है.
और वामपन्थ नाम ही है सभ्यता के बिल्डिंग ब्लॉक्स को तोड़ने का. इसीलिए वामपंथी स्टेट के इस एकमात्र फंक्शन को बाधित करना चाहते हैं जिससे वे लोगों को गुलाम बना सकें. मुक्त समाज में वामपन्थी स्टेट को आपका शत्रु घोषित करते हैं पर वामपन्थ में स्टेट और अधिक शक्तिशाली हो जाता है, और वह आपके जीवन के हर आस्पेक्ट को कन्ट्रोल करने लगता है. स्टेट का फंक्शन लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा करने के बदले लोगों को गुलाम बनाना हो जाता है।
भाई राजीव मिश्रा के “विषैला वामपंथ” से-
(मैं तो आज पूरे विश्व में जहाँ जो अव्यवस्था, संघर्ष,परिवार समाज देश दुनियाँ का खण्ड खण्ड होना देखती हूँ,उसके पीछे यही एक शक्ति मुझे कार्यशील दिखती है।जहाँ यह अकेली है,वहाँ अतिवादी विध्वंसक शक्तियों से इसका उन्हें खत्म कर पूर्णतः अपने वर्चस्व को स्थापित करने का संघर्ष है और जहाँ एक व्यवस्थित समाज संस्कृति और शांति है,वहाँ विध्वंसक आतंकवादी इसके सहयोगी हैं।प्रगतिशीलता के पर्याय रूप में स्वयं को स्थापित कर चुके इस महामारी(वाम-पन्थ) को पहचान कर, इससे पूर्णतः दूरी बनाए बिना विश्व अपना रक्षण नहीं कर सकता)

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