महोदर ने आगे कहा, “कुम्भकर्ण! ऐसी बात नहीं है कि महाराज रावण नीति और अनीति को नहीं जानते हैं। धर्म, अर्थ और काम को समझने की बुद्धि तुम्हारे पास नहीं है, इसी कारण तुम ऐसी निरर्थक बातें कर रहे हो। तुम्हारा यह कहना भी मूर्खतापूर्ण है कि जिस राम ने जनस्थान में इतने सारे बलशाली राक्षसों को मार डाला था, उसे तुम अकेले ही परास्त कर दोगे। मुझे तुम्हारी इस मूर्खता पर आश्चर्य होता है।”
कुम्भकर्ण से ऐसा कहकर महोदर अब रावण से बोला, “महाराज! मेरे मन में एक उपाय है। आप नगर में घोषित कर दीजिए कि ‘महोदर, द्विजिह्व, संह्रादी, कुम्भकर्ण और वितर्दन, ये पाँच राक्षस राम का वध करने जा रहे हैं।’ यदि हमने राम पर विजय पा ली, तो आपको सीता मिल जाएगी। यदि वह बचकर निकल गया, तो हम राम नाम वाले बाणों से अपने शरीर को घायल करवा लेंगे और खून से लथपथ होकर युद्ध-भूमि से यह कहते हुए लौटेंगे कि ‘हमने राम और लक्ष्मण को खा लिया है’। तब आप नगर में उनके वध की घोषणा करवा दें और अपने योद्धाओं को हर प्रकार की भोग सामग्री, दास-दासी, रत्न-आभूषण आदि उपहार में दें। इससे सब लोगों में चर्चा फैल जाएगी कि राम को राक्षसों ने खा लिया है।”
“जब सीता तक भी यह समाचार पहुँच जाए, तब आप एकान्त में उसके पास जाएँ और उसे सांत्वना देकर धन-धान्य और सुख-भोग का लोभ दिखाएँ। इससे सीता का शोक और बढ़ जाएगा तथा इच्छा न होने पर भी वह आपके अधीन हो जाएगी। मुझे यही उचित लगता है कि आप युद्ध में राम का सामना न करें क्योंकि उससे आपकी मृत्यु की संभावना है। जो राजा बिना युद्ध के ही शत्रु पर विजय पाता है, उसका जीवन सुरक्षित रहता है और यश व कीर्ति भी बढ़ती है।”
महोदर की यह बातें सुनकर कुम्भकर्ण उसे फटकारता हुआ बोला, “महोदर! तुम जैसे चापलूसों ने ही सदा राजा की हाँ में हाँ मिलाकर सब काम चौपट किया है। उसी का फल है कि लंका में अब केवल राजा रह गए हैं, पर खजाना खाली हो चुका है और सेना मार डाली गई है। अब मैं समरभूमि में जाकर अपने पराक्रम से शत्रु को परास्त करूँगा व तुम लोगों ने अपनी खोटी बुद्धि के कारण जो परिस्थिति बिगाड़ दी है, उसे ठीक करूँगा।”
यह सुनकर रावण ने प्रसन्न होकर कुम्भकर्ण से कहा, “कुम्भकर्ण! यह महोदर निःसंदेह राम से डर गया है, इसी कारण ऐसी कायरता की बातें कर रहा है। तुम्हारे बल के आगे कोई नहीं टिक सकता। तुम युद्धभूमि में जाओ और शत्रुओं का वध कर डालो। तुम्हारा रूप देखकर ही सब वानर भाग जाएँगे और राम-लक्ष्मण के हृदय में भी भय व्याप्त हो जाएगा।”
रावण की यह बात सुनकर कुम्भकर्ण भी बहुत प्रसन्न होता हुआ युद्ध के लिए लंका से बाहर निकला। शत्रु का संहार करने के लिए उसने काले लोहे का बना हुआ एक पैना शूल हाथ में ले लिया। वज्र के समान भारी वह शूल तपे हुए सोने से सजा हुआ और बहुत चमकीला था। उसमें लाल फूलों की एक बड़ी माला लटक रही थी और उससे आग की चिनगारियाँ झड़ रही थीं।
रावण ने कुम्भकर्ण को सोने की एक माला पहनाई। उसे बाजूबंद, अँगूठियाँ, अन्य आभूषण और चन्द्रमा के समान चमकीला एक हार भी पहनाया। उसके विभिन्न अंगों में सुगन्धित फूलों की मालाएँ भी बँधवाई गईं तथा दोनों कानों में कुण्डल पहनाए गए।
इस प्रकार सज-धज कर कुम्भकर्ण ने अपने भाई को गले से लगाकर उसकी परिक्रमा की और उसे प्रणाम करके वह युद्ध के लिए बाहर निकला। उसकी कमर में काले रंग की एक विशाल करधनी थी और छाती पर सोने का एक कवच बँधा हुआ था। रावण ने उसे आशीवार्द देकर श्रेष्ठ आयुधों से सुसज्जित सेना को उसके साथ भेजा। उन सब राक्षसों ने अपने हाथों में शूल, तलवार, फरसे, भिन्दिपाल, परिघ, गदा, मूसल, ताड़ के वृक्ष और गुलेलें पकड़ ली थीं।
युद्ध के लिए कुम्भकर्ण ने अपना आकार अत्यधिक बढ़ा लिया। फिर उसने सेना की व्यूह रचना की और अट्टहास करता हुआ बोला, “राक्षसों! आज मैं वानरों के एक-एक झुण्ड को भस्म कर डालूँगा। लेकिन सबसे पहले मैं राम और लक्ष्मण को मारूँगा क्योंकि उन्हीं के कारण ये बेचारे वानर वन में विचरना छोड़ कर यहाँ युद्ध के लिए चले आए हैं।”
ऐसा कहकर उसने भीषण गर्जना की और आगे बढ़ा।
कुम्भकर्ण के बढ़ते ही चारों ओर घोर अपशकुन होने लगे। गधों के समान भूरे रंग वाले बादल घिर आए। भीषण उल्कापात हुआ और बिजलियाँ गिरने लगीं। सारी पृथ्वी और समुद्र काँप उठे। गीदड़ियाँ अमंगलसूचक बोली बोलने लगीं। मण्डल (गोल घेरा) बनाकर पक्षी दक्षिण की ओर से उसकी परिक्रमा करने लगे। रास्ते में चलते समय कुम्भकर्ण के शूल पर एक गिद्ध आकर बैठ गया। उसकी बायीं आँख फड़कने लगी और बायीं भुजा काँपने लगी। उस समय बहुत तेज हवा भी चल रही थी और सूर्य का तेज क्षीण हो गया था।
ऐसे उत्पातों पर कोई ध्यान न देता हुआ कुम्भकर्ण आगे बढ़ता रहा।
उस पर्वताकार राक्षस को देखते ही वानर घबराकर चारों दिशाओं में भागने लगे। उन्हें इस प्रकार भागता देख कुम्भकर्ण भी बड़े हर्ष के साथ भीषण गर्जना करने लगा। उन भागते हुए वानरों को देखकर अंगद ने नल, नील, गवाक्ष, कुमुद आदि वानरों को पुकारते हुए कहा, “वानर वीरों! अपने उत्तम कुल और अलौकिक पराक्रम को भुलाकर तुम लोग साधारण बन्दरों की भाँति कहाँ भागे जा रहे हो? यह राक्षस हमसे युद्ध में नहीं जीत सकता। यह तो केवल तुम्हें डराने के लिए माया से रची गई विभीषिका है। इसे हम अपने पराक्रम से नष्ट कर देंगे। तुम लोग घबराओ मत, युद्ध के लिए लौट आओ।”
यह सुनकर बड़ी कठिनाई से वानर माने और इधर-उधर से वृक्ष उखाड़कर पुनः रणभूमि की ओर लौट गए। अब वे पूरी शक्ति से कुम्भकर्ण पर चट्टानों एवं वृक्षों को फेंक-फेंककर प्रहार करने लगे। उनकी इस मार से वह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुआ। चट्टानें उसके शरीर से टकराते ही चूर-चूर हो जाती थीं और वृक्ष भी टूटकर पृथ्वी पर गिर जाते थे। वह आगे बढ़ता अब वानरों की सेना को रौंदने लगा और खून से लथपथ होकर वानर भी धरती पर गिरने लगे। बहुत-से वानर उबड़-खाबड़ भूमि को लाँघते हुए जोर-जोर से भागने लगे। उनमें से कुछ तो समुद्र में भी गिर पड़े और कुछ आकाश में ही उड़ते रह गए। अंगद ने फिर किसी प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें युद्ध के लिए वापस लौटाया।
अब ऋषभ, शरभ, मैन्द, धूम्र, नील, कुमुद, सुषेण, गवाक्ष, रम्भ, तार, द्विविद, पनस और हनुमान जी आदि सभी वीर वानर कुम्भकर्ण का सामना करने के लिए रणभूमि की ओर बढ़े। अन्य वानर भी अब मरने-मारने का संकल्प लेकर भयंकर युद्ध करने लगे।
आगे जारी रहेगा…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)