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मट्टो की साइकिल फ़िल्म समीक्षा

zoya masoori

by ज़ोया मंसूरी
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सत्या ने फ़िल्म के लिए एक लाइन लिखी, ‘फ़िल्म में लोगों को उतना ही बुरा दिखाया गया है जितना लोग होते है और उतना ही अच्छा जितने वो होते हैं।’ किसी फिल्म को एक लाइन में कह देना बहुत बड़ी बात होती है। मैंने बस सत्या की इस इस लाइन को थोड़ा सा विस्तार दिया है।
फ़िल्म में कोई भी अनावश्यक किरदार नहीं है और न ही फ़िल्म को ज़बरन लम्बा करने की कोशिश की गई है। कहानी मट्टो, उसकी पत्नी और दो बेटियों के इर्द गिर्द बुनी गई है। बुनी गई कहना शायद उन करोड़ों मजदूरों के साथ अन्याय होगा जो वो जीवन जी रहे है जो फ़िल्म में दिखाया गया है। कहानी प्रधानी के चुनाव से शुरू होती है लेकिन कहानी में राजनीति बिल्कुल भी नहीं है। हम कहानी पर नही, सिर्फ फ़िल्म के किरदारों पर बात करेंगे।
मट्टो एक अच्छा पति और जिम्मेदार पिता है। वह पत्नी और बेटी को उतना ही प्यार करता है जितना एक आम भारतीय इंसान करता है। उसकी पत्नी टिपिकल इंडियन वाइफ है, कोई बनावटीपन नही। आंखों से पति का दर्द महसूस करना और जुबान से पति को ताने मारना, साथ ही बेटियों को बड़बड़ाना, क्या कमाल की एक्टिंग है। मट्टो की बेटियाँ लिम्का और नीरज बस उतनी ही मेच्योर है जितनी उनकी उम्र की लड़कियां होती है।
उदासी, प्रेम, स्नेह क्रोध और बड़ी बेटी होने की जिम्मेदारी सब नीरज की आँखों से झलकती है, शब्दों की जरूरत ही न पड़ी। दोनों ही लड़कियां किरदार में ऐसे ढली है कि लगता है जैसे सच मे इसी परिवेश से आती है। एक और लड़का है लल्लू। वो उतना ही शरीफ और उतना ही ठरकी है जितना उसकी उम्र के लड़के होते है। मट्टो का एक ठेकेदार है जो अक्सर देर से काम पर आने के चलते एक दिन मट्टो की छुट्टी कर देता है।
लेकिन साथ ही ठेकेदार मट्टो को साइकिल के लिए 1000 रुपए देने का वादा भी करता है। फ़िल्म में ठेकेदार की उतनी ही अहमियत दिखाई गई है जितनी एक मजदूर के लिए होती है। मट्टो जब नीरज के लिए रिश्ते की बात करने जाता है तो ठेकेदार को लेकर जाता है। मजदूर वर्ग में ठेकेदार को बुद्धिजीवी और आर्थिक रूप से मजबूत माना जाता है जो शादी ब्याह या बीमारी में मदद करता है इसलिए उसे पूरी इज्जत दी जाती है।
मजदूर वर्ग का यह पहलू फ़िल्म में दिखाना इस फ़िल्म को एक अलग ही लेवल पर ले जाता है। एक व्यक्ति द्वारा मट्टो को 300 की जगह 200 रुपए दिहाड़ी देकर भगा देना हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है, जिसे हर मजदूर ने कभी न कभी अवश्य भुगता होगा। कहानी का ये हिस्सा बताता है कि फ़िल्म की कहानी एसी ऑफिस में बैठकर नही लिखी गई है बल्कि मजदूरों के बीच काफी वक्त बिताया गया है। फ़िल्म में एक सबसे खास किरदार है कल्लू साइकिल रिपेयरिंग वाला जो मट्टो का दोस्त भी है।
कहानी में एक ही हीरो है, साइकिल और एक ही विलेन, साइकिल। फ़िल्म में बहुत सी बारीकियां है जिन पर ध्यान उसी का जाएगा जिसने ये जीवन जिया हो। जैसे मट्टो का कल्लू की दुकान पर जाकर स्वयं ही रिंच लेकर नट टाइट करना। मिस्त्री ने हाथ लगाया तो 5-10 रुपए ले लेगा। मट्टो के घर मे एक टेबल फैन है जिसकी आगे की जाली नहीं है। जाली अक्सर पंखों के टकराने के कारण हटानी पड़ती है।
मट्टो के घर मे पुराने समय का नल लगा हुआ है और चूल्हे के ऊपर पटरे लगाकर किचन का रूप दे दिया गया है। लिम्का का पॉलीथिन में राख लगाकर बर्तन धुलना, सुबह सुबह सींक वाली झाड़ू से घर मे झाड़ू लगाना, प्रधान के घर के बाहर ताश खेलते लोग, लिम्का के बालों से जुएं निकालती मट्टो की पत्नी, छत पर नीम के पेड़ के नीचे मोबाइल में वल्गर फोटो देखता लल्लू और उसका दोस्त, चारपाई पर बिछी दरी जिसे कथरी कहा जाता है, चारपाई के बान कसता मट्टो।
ये फ़िल्म की वो बारीकियां है, जो फ़िल्म बनाने से पहले की गई एक्सरसाइज दर्शाती है। फ़िल्म के डायलॉग भी एकदम जमीनी है। खासकर वो डॉयलॉग जब मट्टो अपने दोस्त कल्लू से कहता है, ‘देखते देखते बीस साल निकर गए, कछु न कर पाए।’ मट्टो बहुत महत्वाकांक्षी नहीं है, लेकिन इस डॉयलॉग में वह दर्द है जो एक मजदूर की पहली कमाई हाथ मे आने पर देखे गए सपनों के बुढापे में टूटने पर छलकता है।
पापा बच्चो के सुपर हीरो होते है, ये झलकता है लिम्का के उस संवाद में जब वो मट्टो से कहती है, ‘पापा तुम तो कहत ते हम कबौ थकत न है, फिर आज कैसे थक गए।’ कुछ छोटे छोटे किरदार है, जिनकी एक्टिंग इतनी सजीव है कि देखकर लगता है जैसे इन्हें बताया ही नही गया कि फ़िल्म की शूटिंग चल रही। सरकारी अस्पताल में डॉक्टर का व्यवहार और पुलिस का रवैया बेहद सधा हुआ। फ़िल्म में साइकिल खुद में एक सजीव किरदार है।
चेन उतरना, चैन कवर उखड़ना और स्टैंड का लटकना, साईकिल में वही कमियां और उनका वही उपचार दिखाया गया है, जो आर्थिक तंगी से जूझ रहा व्यक्ति करता है। हर किरदार ने इरफान खान लेवल की एक्टिंग की है। आपको लगेगा किसी मजदूर और उसके परिवार की दिनचर्या फिल्मा कर पेश कर दी गई है। फ़िल्म ग्रामीण भारत की एक सम्पूर्ण तस्वीर है, जहां नई साईकिल आने पर आज भी बतासे बांटे जाते है, लड्डू लेने की हैसियत आज भी नहीं है उनकी।

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