Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 108
कुम्भकर्ण के मारे जाने पर बचे-खुचे राक्षस युद्धभूमि से भाग खड़े हुए। रावण के पास पहुँचकर उन्होंने कुम्भकर्ण के वध का समाचार सुनाया। ‘कुम्भकर्ण युद्धभूमि में मारा गया’, यह सुनते ही रावण शोक-संतप्त होकर भूमि पर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया। अपने चाचा के निधन की वार्ता सुनकर देवान्तक, नरान्तक, त्रिशिरा और अतिकाय भी दुःख से पीड़ित हो फूट-फूटकर रोने लगे। कुम्भकर्ण के सौतेले भाई महोदर और महापार्श्व पर शोक से व्याकुल हो गए।
बहुत समय बाद रावण को होश आया। तब दुःखी होकर वह पुनः विलाप करने लगा, “हा भाई! हा वीर कुम्भकर्ण! तुम तो शत्रुओं के काल थे, पर दुर्भाग्यवश अब तुम ही मुझे असहाय छोड़कर चले गए। तुम जैसा पराक्रमी वीर उस राम के हाथों कैसे मारा गया? तुम्हारे ही भरोसे मैं देवता या असुर किसी से नहीं डरता था। आज तुम्हारे जाने से मैं असहाय हो गया।”
“अब मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है। मुझे अब सीता भी नहीं चाहिए। कुम्भकर्ण के साथ ही मेरी जीने की इच्छा भी मर गई है। अब यह निरर्थक जीवन मेरे किसी काम का नहीं है। मैं भी अब उसी यमलोक को जाऊँगा, जहाँ मेरा छोटा भाई कुम्भकर्ण गया है। मैं अपने भाइयों के बिना जीवित नहीं रह सकता। अपने अज्ञान के कारण मैंने धर्मपरायण विभीषण की हितकर बातों पर ध्यान नहीं दिया। उसी का यह फल मुझे आज मिला है।”
इस प्रकार विलाप करता हुआ रावण व्यथित होकर पुनः धरती पर गिर पड़ा।
तब त्रिशिरा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, “राजन! इसमें संदेह नहीं कि हमारे महापराक्रमी चाचा आज युद्ध में मारे गए हैं, किन्तु आप जिस प्रकार शोक कर रहे हैं, वह भी श्रेष्ठ पुरुषों को शोभा नहीं देता। आप तो अकेले ही तीनों लोकों को जीतने में समर्थ हैं। फिर क्यों इस प्रकार साधारण जनों की भाँति आप शोक कर रहे हैं? आपके पास ब्रह्माजी की दी हुई शक्ति, कवच, धनुष तथा बाण हैं, मेघ के समान गर्जना करने वाला विशाल रथ है, जिसमें एक हजार गधे जोते जाते हैं। आपने एक ही शस्त्र से अनेक बार देवताओं और दानवों को परास्त किया है। अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होने पर आप राम को भी अवश्य परास्त कर सकते हैं अथवा आप कहें, तो मैं स्वयं युद्ध के लिए जाऊँगा और आपके शत्रुओं का नाश कर दूँगा।”
यह सुनकर रावण का मन थोड़ा शांत हुआ। त्रिशिरा की बात सुनकर देवान्तक, नरान्तक और अतिकाय भी युद्ध के लिए उत्साहित हो गए। वे सब आकाश में विचरण करने वाले, माया को जानने वाले तथा अत्यधिक बलवान राक्षस थे। उनकी कभी पराजय नहीं हुई थी।
रावण ने अपने उन पुत्रों को गले लगाकर अनेक प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया और युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया। साथ ही उनकी रक्षा के लिए उसने महापार्श्व एवं महोदर को भी भेजा। अनेक प्रकार की औषधियों तथा गन्धों को स्पर्श करके त्रिशिरा, अतिकाय, देवान्तक, नरान्तक, महोदर और महापार्श्व युद्ध के लिए तैयार हो गए। रावण को प्रणाम करके उन्होंने उसकी परिक्रमा की और वे युद्ध के लिए निकल पड़े।
उस समय महोदर काले रंग के ‘सुदर्शन’ नामक हाथी पर बैठा हुआ था। हाथी की पीठ पर सब प्रकार के आयुध और तूणीर भी रखे हुए थे। त्रिशिरा व अतिकाय भी अपने-अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ उत्तम घोड़ों वाले अपने रथों पर आरूढ़ हो गए। नरान्तक एक विशालकाय एवं तीव्रगामी स्वर्णभूषित अश्व पर बैठा। देवान्तक व महापार्श्व अपने-अपने हाथों में क्रमशः परिघ व गदा लेकर पैदल ही युद्धभूमि की ओर निकले। उन सबके पीछे-पीछे हाथी, घोड़ों और रथों पर आरूढ़ होकर अनेक विशालकाय राक्षस भी अपने-अपने आयुध लेकर चल पड़े।
आगे बढ़ने पर उन्होंने देखा कि नगर की सीमा के बाहर वानर-सेना बड़े-बड़े वृक्ष और शिलाएँ लेकर युद्ध के लिए तैयार खड़ी है। वानरों ने भी देखा कि हाथी-घोड़ों से भरी हुई राक्षसों की सेना बड़े-बड़े आयुध लेकर चली आ रही है। एक-दूसरे को देखते ही दोनों सेनाएँ युद्ध के लिए भयंकर गर्जना करने लगीं और उन्होंने एक-दूसरे पर आक्रमण कर दिया।
दोनों पक्षों के अनेक योद्धा एक-दूसरे के प्रहारों से मारे गए। जब वानरों का पलड़ा भारी होने लगा, तो सहसा नरान्तक अपने घोड़े पर तीव्र वेग से दौड़ता हुआ वानर-सेना के बीच घुस गया व अपने चमचमाते हुए भाले से उसने अकेले ही सात सौ वानरों को मार डाला। वह इतनी तेजी से प्रहार करता था कि वानरों को कुछ समझने या बचने का अवसर ही नहीं मिल रहा था।
यह देखकर सुग्रीव ने उसे मारने के लिए अंगद को भेजा। अंगद को देखकर नरान्तक ने अपना भाला पूरे वेग से उसकी छाती पर फेंककर मारा। लेकिन अंगद के वज्र समान कठोर सीने से टकराकर वह भाला ही टूटकर गिर गया। तब अंगद ने बड़े जोर से नरान्तक के घोड़े पर थप्पड़ से प्रहार किया। उस भीषण प्रहार से घोड़े का सिर फट गया, पैर नीचे धँस गए, आँखें फूट गईं और जीभ बाहर निकल आई। उस अश्व के प्राण-पखेरू उड़ गए।
अपने घोड़े को मरा हुआ देखकर नरान्तक के क्रोध की सीमा न रही। एक ही मुक्के में उसने अंगद का सिर फोड़ डाला। अंगद के माथे से गर्म रक्त की धार बहने लगी और इस भीषण प्रहार से वह मूर्च्छित हो गया। कुछ समय बाद होश में आने पर अंगद ने नरान्तक के सीने पर एक जोरदार मुक्का जड़ दिया। उसके आघात से नरान्तक का हृदय फट गया और उसके प्राण निकल गए। एक ही क्षण में वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह देखकर सब राक्षस हाहाकार कर उठे।
अब महोदर, देवान्तक और त्रिशिरा तीनों ने एक साथ अंगद पर आक्रमण कर दिया। अंगद ने भी एक विशाल वृक्ष उखाड़कर सहसा देवान्तक पर दे मारा। लेकिन त्रिशिरा ने अपने भयंकर बाण से उस वृक्ष के टुकड़े कर डाले। अब त्रिशिरा, महोदर और देवान्तक तीनों अंगद पर टूट पड़े।
उनके प्रहारों से क्रोधित होकर अंगद ने महोदर के हाथी पर आक्रमण कर दिया और एक ही थप्पड़ में उसके प्राण निकाल दिए। उस भीषण प्रहार से हाथी की दोनों आँखें पृथ्वी पर गिर पड़ीं और वह तत्काल मर गया। फिर अंगद ने उसका एक दाँत उखाड़ लिया और तेजी से दौड़कर देवान्तक पर उसी दाँत से प्रहार किया। उस हमले की मार से देवान्तक व्याकुल होकर काँपने लगा और उसके शरीर से महावर के समान लाल रंग का रक्त बहने लगा। फिर भी उसने किसी प्रकार स्वयं को संभाला और अपना परिघ उठाकर अंगद पर दे मारा। उसके प्रहार से अंगद ने घुटने टेक दिए। अगले ही क्षण अंगद आकाश में उछला, पर उसी समय त्रिशिरा ने अपने तीन भयंकर बाणों से अंगद के माथे को गहरी चोट पहुँचाई।
अंगद को इस प्रकार तीन निशाचरों से घिरा हुआ देखकर हनुमान जी और नील उसकी सहायता के लिए आगे बढ़े। नील ने त्रिशिरा पर एक पर्वत शिखर फेंका, पर त्रिशिरा ने अपने पैने बाणों से उसे चूर-चूर कर दिया। अपने भाई का पराक्रम देखकर देवान्तक को बड़ा हर्ष हुआ और उसने परिघ लेकर हनुमान जी पर धावा बोल दिया। तब हनुमान जी ने एक ही घूँसे में उसका सिर फोड़ डाला। उसका मस्तक फट गया, दाँत, आँखें और जीभ बाहर निकल आई व एक क्षण में ही उसके प्राण निकल गए।
आगे जारी रहेंगे….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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