Home विषयविदेश The Civilisational Challenge
क्या किसी भारतीय का यूके या यूएस में किसी जगह कोई काम कराने में कोई घूस देनी पड़ी हो, किसी किस्म के करप्शन का कोई व्यक्तिगत अनुभव हुआ हो?
सर्वे विचित्र इसलिए है क्योंकि उन्हें भी पता था यह अनावश्यक है. सर्वे का परिणाम भी उन्हें मालूम है. पर किया क्यों?
क्योंकि उनकी वॉल पर लोग इस बात पर आपत्ति कर रहे थे कि वे अमेरिका की कुछ अधिक ही तारीफ करते हैं, अमेरिका को अधिक ही आइडोलाइज करते हैं… तो यह भी मानने को तैयार नहीं थे कि वेस्टर्न समाज में भारत या अन्य एशियाई देशों के मुकाबले नगण्य करप्शन है… और इसके लिए किसी सर्वे की आवश्यकता नहीं है.
सर वी एस नायपॉल ने भारत को एक आहत सभ्यता कहा है.. A wounded civilization. और यह बात सिर्फ हमारे इतिहास के बारे में ही नहीं, वर्तमान में भी सत्य है. एक अर्थ में हम आज भी आहत हैं.. और जो एक चीज सबसे अधिक आहत हुई है, वह है हमारी आइडेंटिटी.
हम अपनी आइडेंटिटी से सहज नहीं हैं. और हमें इसके दो एक्सट्रीम्स दिखाई देते हैं. एक छोर पर है वह क्लास जो अपनी आइडेंटिटी से शर्मिंदा है और इसे किसी भी बहाने से छोड़ने, या एक सरोगेट आइडेंटिटी से छुपाने का प्रयास करता है. वह अपने आप को किसी भी तरह से अपने सिविलाइजेशनल रूट्स से जोड़ने से बचता है और पश्चिम की अंधी नकल करता है.
और दूसरी ओर है वह एक्सट्रीम जो हर बात में अपनी सिविलाइजेशन को सुपीरियर और वेस्टर्न सिविलाइजेशन को इनफिरियर सिद्ध करने के प्रयास में बहुत आक्रामक रहता है. यह वर्ग आत्मावलोकन में बहुत डिफेंसिव रहता है और किसी भी सांस्कृतिक कमी या कमजोरी को या तो नकारता है या किसी बाहरी शक्ति पर ब्लेम करता है, और अपने अतीत के बारे में अतिशयोक्तिपूर्ण क्लेम से अपने को संतुष्ट रखता है.
एक भारतीय के लिए इन दोनों में से किसी भी एक्सट्रीम में नहीं रहना और अपनी पहचान के प्रति सहज रहना आसान नहीं है. जो भी सभ्यता के घाव हैं वह हमारी कलेक्टिव साइकी पर हैं…तो हम सभी उनसे प्रभावित हैं. पर बड़ा प्रश्न है, यह हीलिंग प्रॉसेस कैसे शुरू हो…
मेरी दृष्टि में हमारी सिविलाइजेशनल हीलिंग की शुरुआत हो सकती है तो सबसे पहले हीलिंग ऑफ आइडेंटिटी से… हम जो हैं, उस पहचान से कंफर्टेबल हों. अपनी शक्तियों को पहचानें और अपनी कमजोरियों को भी. दूसरों में जो अच्छा है उसे एप्रिशिएट करने में कृपण ना हों.
एक सामान्य प्रवृत्ति है कि पश्चिम की प्रगति को, संपन्नता और समृद्धि को हम “लूट का माल” बता कर छोटा करने की कोशिश करते हैं, और अपनी विफलताओं को हम विदेशी शासन का परिणाम बताकर तसल्ली कर लेते हैं. जहां कोलोनियलिज्म और उससे जुड़ा शोषण एक सच्चाई है, वह वर्तमान स्थिति को एक्सप्लेन करने में जरा भी मदद नहीं करता. इंग्लैंड की समृद्धि कोलोनियल लूट का परिणाम नहीं है और अमेरिका की समृद्धि दासता के शोषण का परिणाम नहीं है. यह सही है कि उन फैक्टर्स ने एक समय उनकी समृद्धि में कंट्रीब्यूट किया होगा, लेकिन आज तक वही नहीं चल रहा. इंग्लैंड ने दो विश्वयुद्धों के रूप में जो मूल्य चुकाया है वह उसकी कोलोनियल संपदा को खाली करने के लिए काफी था. दूसरे विश्वयुद्ध के अंत में इंग्लैंड एक फटेहाल कंगाल देश था जब ब्रेड और कपड़े तक की राशनिंग होती थी और बड़े घेरे का स्कर्ट पहनने पर पाबंदी लगाई गई थी. अमेरिका ने जो कुछ भी दासता के शोषण से कमाया उससे अधिक मूल्य सिविल वॉर में चुका दिया. बल्कि अमेरिका के जो भाग अश्वेत दासों के श्रम पर निर्भर थे वे कभी भी अमेरिका के सबसे संपन्न भूभाग नहीं थे. यह अर्थशास्त्र का बहुत ही बेसिक सिद्धांत है कि स्लेव लेबर फ्री लेबर के मुकाबले कम उत्पादक और अधिक महंगा होता है.
तो कॉलोनियलिज्म और दासता जहां अवसर पड़ने पर इंग्लैंड और यूएस को नैतिक जूते लगाने का माध्यम हैं, वस्तुस्थिति के आकलन के लिए ये उपयोगी टूल नहीं हैं. आज हमारी आर्थिक स्थिति अगर पश्चिम के मुकाबले उन्नीस या अठारह है तो उसका कारण यह नहीं है कि अंग्रेजी शासन के दो सौ वर्षों में यहां क्या हुआ था, बल्कि उसका कारण पिछले 75 वर्षों के हमारे व्यवहार में छुपा है. इन 75 वर्षों में हमारे पास पर्याप्त अवसर थे कि हम अपने कॉलोनियल अतीत को अप्रासंगिक बना देते. पर हमने वह समय समाजवादी नीतियों में गंवा दिया. आज हमारी गरीबी का कारण अंग्रेज नहीं हैं, बल्कि हमारे द्वारा चुनी गई मूलतः समाजवादी अर्थव्यवस्था है. हमारे नैतिक मूल्यों में व्याप्त भ्रष्टाचार मूलतः उस व्यवस्था का प्राकृतिक परिणाम है. एक समाज में जहां सामर्थ्यवान और समृद्ध होने के प्राकृतिक रास्ते; व्यापार और उद्योग, बन्द कर दिए जाएंगे तो उसके अप्राकृतिक रास्ते यानि अपराध और भ्रष्टाचार खुल जायेंगे. अंग्रेज आए और हमें भ्रष्ट बना कर चले गए… यह बहाना हमें तसल्ली तो दे सकता है लेकिन समाधान नहीं.

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