Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 111
श्रीराम और लक्ष्मण को मूर्च्छित देखकर वानर-सेना में विषाद छा गया। तब विभीषण ने उन सबको समझाते हुए कहा, “वानर वीरों! आप लोग भयभीत न हों। ये दोनों भाई केवल मूर्च्छित हुए हैं। इनके प्राणों पर कोई संकट नहीं आया है।”
यह सुनकर हनुमान जी विभीषण से बोले, “राक्षसराज! इस ब्रह्मास्त्र से घायल होकर जो-जो वानर-सैनिक रणभूमि में पड़े हुए हैं, हम दोनों को उनके पास चलकर उन्हें भी आश्वासन देना चाहिए।”
उस समय रात हो चुकी थी, इसलिए हनुमान जी और विभीषण अपने हाथों में मशाल लेकर एक साथ रणभूमि का निरीक्षण करने लगे। युद्ध में घायल होकर इधर-उधर गिरे हुए वानर सैनिकों से वह युद्ध भूमि भरी हुई थी। उनके हाथ-पैर कट गए थे, शरीर से खून बह रहा था और उनके अस्त्र-शस्त्र भी इधर-उधर बिखरे हुए पड़े थे। सुग्रीव, अंगद, नील, शरभ, गन्धमादन, जाम्बवान, सुषेण, वेगदर्शी, मैन्द, नल, ज्योतिर्मुख, द्विविद आदि अनेक प्रमुख वानर भी घायल पड़े हुए थे।
घायल जाम्बवान को देखते ही विभीषण ने उन्हें पुकारा। तब भूमि पर पड़े हुए जाम्बवान ने उत्तर दिया, “राक्षसराज! मैं केवल स्वर से ही तुम्हें पहचान पा रहा हूँ। पैने बाणों से मेरे सारे अंग बिंधे हुए हैं, अतः मैं आँख खोलकर तुम्हें देख नहीं सकता। तुम मुझे केवल इतना बता दो कि हनुमान जीवित है या नहीं?”
इस प्रश्न से चकित होकर विभीषण ने पूछा, “आर्य! आपने न राजा सुग्रीव के बारे में, न युवराज अंगद के बारे में और न ही स्वयं श्रीराम के बारे में कुछ पूछा, किन्तु आप केवल हनुमान जी के बारे में ही क्यों पूछ रहे हैं?”
यह सुनकर जाम्बवान ने उत्तर दिया, “राक्षसराज! सुनो, मैं हनुमान के बारे में इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि यदि हनुमान जीवित है, तो समझो कि यह मृत वानर-सेना भी पुनः जीवित हो सकती है, किन्तु यदि उसके प्राण निकल गए हों, तो हम सब जीते जी भी मृतकों के ही समान हैं।”
तब तक हनुमान जी भी इस बातचीत को सुनकर वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने वृद्ध जाम्बवान के दोनों पैर पकड़कर उन्हें विनम्र भाव से प्रणाम किया। तब जाम्बवान ने उनसे कहा, “हनुमान! इस समय जिस पराक्रम की आवश्यकता है, वह केवल तुम ही कर सकते हो, इसलिए आगे बढ़ो और वानर-सेना की रक्षा करो।”
“समुद्र के ऊपर से उड़ते हुए तुम्हें बहुत दूर का रास्ता तय करके पर्वतश्रेष्ठ हिमालय पर जाना होगा। वहाँ पहुँचने पर तुम्हें उत्तम ऋषभ पर्वत तथा कैलास पर्वत दिखाई देंगे। उन दोनों के बीच में औषधियों का एक पर्वत है। उसकी चमक इतनी अधिक है, जिसकी कोई तुलना नहीं है। वह पर्वत अनेक प्रकार की औषधियों से संपन्न है।”
“वानरवीर! उस पर्वत के शिखर पर तुम्हें चार ऐसी औषधियाँ दिखाई देंगी, जो अपनी चमक से दसों दिशाओं को प्रकाशित किए रहती हैं। उनके नाम हैं – मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी और संधानी। तुम उन सब औषधियों को शीघ्र यहाँ ले आओ क्योंकि उन्हीं से सब वानरों के प्राण बचेंगे।”
जाम्बवान की यह बात सुनकर हनुमान जी ने पुनः अपना आकार अत्यधिक बढ़ा लिया और एक पर्वत पर चढ़ने लगे। वह पर्वत उनके शरीर का भार नहीं संभाल सका। उनके भार से उसके वृक्ष टूटकर गिरने लगे और चोटियाँ भी ढहने लगीं। लंका का विशाल द्वार भी हिल गया। मकान और दरवाजे ढह गए। पूरी लंका नगरी भय से व्याकुल हो उठी।
उस पर्वत शिखर से आगे बढ़कर हनुमान जी बहुत ऊँचे मलय पर्वत पर चढ़ गए। वहाँ अनेक ऋषि-मुनि, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व एवं अप्सराएँ निवास करती थीं। उन सबको व्याकुल करते हुए वे मेघ के समान आगे बढ़ते रहे। अपने दोनों पैरों से उस पर्वत को दबाकर और अपने भयंकर मुख को फैलाकर वे निशाचरों को डराते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। उससे लंका के सारे राक्षस काँप उठे।
महापराक्रमी हनुमान जी ने अब समुद्र को नमस्कार करके श्रीराम का कार्य पूर्ण करने का संकल्प लिया।
अपनी पूँछ को ऊपर उठाकर उन्होंने अपनी पीठ झुकाई और दोनों कान सिकोड़कर प्रचण्ड वेग से आकाश में उड़ान भरी। उनके तीव्र वेग से अनेकों वृक्ष और शिलाएँ भी आकाश में उछल गईं और फिर जाकर समुद्र में गिर पड़ीं। अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर गरुड़ के समान उड़ते हुए हनुमान जी हिमालय की ओर बढ़ने लगे।
सूर्य के मार्ग का आश्रय लेकर बड़े वेग से बढ़ते हुए वे शीघ्र ही हिमालय पर्वत पर जा पहुँचे। वहाँ अनेक नदियाँ और झरने बह रहे थे। अनेक प्रकार के वृक्ष, कन्दराएँ और श्वेत पर्वत शिखर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। हनुमान जी उस पर्वत के सबसे ऊँचे शिखर पर खड़े हो गए। वहाँ से उन्हें भगवान् ब्रह्मा का स्थान, इन्द्र का भवन, रुद्रदेव द्वारा त्रिपुरासुर पर बाण छोड़े जाने का स्थान, भगवान् हयग्रीव का निवास स्थान आदि अनेक दिव्य स्थान दिखाई दिए। यमराज के सेवक भी उन्हें वहाँ दिखे।
तत्पश्चात उन्होंने श्रेष्ठ कैलास पर्वत, शिवजी के वाहन वृषभ तथा श्रेष्ठ ऋषभ पर्वत को भी देखा। इसके बाद उनकी दृष्टि उस उत्तम पर्वत पर पड़ी, जो सब प्रकार की औषधियों से चमक रहा था। वहाँ पहुँचकर वे उस शैल-शिखर पर विचरण करने लगे। लेकिन उनके पहुँचते ही सब औषधियाँ वहाँ से तत्काल अदृश्य हो गईं।
सहस्त्रों योजन लाँघकर वहाँ तक पहुँचने पर भी उन औषधियों को न देख पाने से हनुमान जी कुपित हो उठे और रोष के कारण जोर-जोर से गर्जना करने लगे। उनकी आँखें अग्नि के समान लाल हो गईं और क्रोधित होकर उन्हें बड़े वेग से उसे पर्वत-शिखर को ही उखाड़ लिया। उसे उखाड़कर वे पुनः गरुड़ की भाँति आकाश में उड़ चले और शीघ्र ही लंका में लौट आए।
उन्हें देखते ही सब वानर गर्जना करने लगे। तब हनुमान जी ने भी बड़े हर्ष से सिंहनाद किया। उसे सुनकर पुनः लंकावासी निशाचर भयाक्रांत हो गए और घबराकर चीत्कार करने लगे। कुछ ही देर में हनुमान जी त्रिकूट पर्वत पर उतर गए और फिर वानर-सेना के बीच पहुँचकर उन्होंने सबको प्रणाम किया।
हनुमान जी की लाई हुई उन दिव्य औषधियों की सुगंध से श्रीराम और लक्ष्मण दोनों स्वस्थ हो गए। उनके शरीर के सारे बाण निकल गए और उनके घाव भी भर गए। अन्य प्रमुख वानर भी एक-एक करके उन औषधियों की सुगन्ध से ठीक होकर उठ खड़े हुए। वे सब निरोग हो गए और उनकी सारी पीड़ा समाप्त हो गई।
तत्पश्चात प्रचण्ड वेग से पुनः हिमालय पर जाकर हनुमान जी ने उस पर्वत को वापस वहीं रख दिया और फिर वे लौटकर श्रीराम से आ मिले।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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