Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्ध काण्ड भाग 112
अब सुग्रीव ने आगे के युद्ध की योजना बनाकर हनुमान जी से कहा, “कुम्भकर्ण मारा गया और रावण के अनेक पुत्रों का भी संहार हो गया। अब लंका की रक्षा का प्रबन्ध कोई नहीं कर सकता। अतः अपनी सेना के सब महाबली और शीघ्रगामी वानर मशालें लेकर शीघ्र ही लंका पर धावा बोल दें।”
सुग्रीव की इस आज्ञा के अनुसार सूर्यास्त होने पर प्रदोषकाल में वे सब वानर मशाल हाथ में लेकर लंका की ओर चले। उनका आक्रमण होते ही लंका के प्रवेश-द्वारों की रक्षा में नियुक्त सभी राक्षस-सैनिक भाग खड़े हुए। तब आगे बढ़कर उन वानरों ने लंका के गोपुरों, अट्टालिकाओं, सड़कों, गलियों और महलों में सब ओर आग लगा दी।
इस आग से सहस्त्रों घर जलने लगे, प्रासाद धराशायी होने लगे। अगर, चन्दन, मोती, मणि, हीरे, मूँगे, रेशमी वस्त्र, क्षौम (अलसी या सन के रेशों से बने वस्त्र), भेड़ के रोएँ से बने कम्बल, ऊनी वस्त्र, उत्तम आसन, सोने के आभूषण, अस्त्र-शस्त्र, घोड़ों के गहने और जीन, हाथी को कसने के रस्से, उसके गले के आभूषण, रथों के उपकरण, योद्धाओं के कवच, बख्तर, खड्ग, धनुष, प्रत्यंचा, बाण, तोमर, अंकुश, शक्ति आदि सब आग की लपटों में जल गए। लाखों लंकावासियों को भी उस भीषण अग्नि ने जलाकर भस्म कर डाला। जो राक्षस आग से बचने के लिए लंका से बाहर भागते थे, उन पर नगर के बाहर खड़े वानर टूट पड़ते थे।
अब सुग्रीव ने सब प्रमुख वानरों को आज्ञा दी कि “तुम सब जाकर अपने-अपने निकटवर्ती द्वारों पर युद्ध करो। जो भी मेरे आदेश का पालन न करे अथवा युद्धभूमि से भाग जाए, उसे पकड़कर तुम लोग मार डालना क्योंकि वह राजाज्ञा का उल्लंघन होगा।”
इस आज्ञा ने अनुसार सब प्रमुख वानर लंका के सभी नगर-द्वारों पर युद्ध के लिए डट गए।
इससे रावण को बड़ा क्रोध आया। उसने तुरंत कुम्भकर्ण के दो पुत्रों, कुम्भ और निकुम्भ को अनेक राक्षसों के साथ युद्ध के लिए भेजा। यूपाक्ष, शोणिताक्ष, प्रजंघ और कम्पन भी उनके साथ युद्ध के लिए निकले। उन सबके हाथों में चमकीले खड्ग, फरसे, शूल, गदा, तलवारें, भाले, तोमर, धनुष आदि चमक रहे थे।
राक्षसों की उस सेना को देखकर वानरों की सेना भी उच्च स्वर में गर्जना करती हुई आगे बढ़ी। जैसे आग पर पतंगे टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार राक्षसों पर वानर-सेना टूट पड़ी। वृक्षों, पत्थरों, मुक्कों, दाँतों और नखों की मार से वानरों से राक्षसों पर आक्रमण कर दिया। राक्षस भी अपने पैने शस्त्रों से वानरों को घायल करने लगे। इस प्रकार उनका भीषण युद्ध होने लगा।
इस घमासान युद्ध के बीच अंगद ने आगे बढ़कर कम्पन को ललकारा, पर उसने अपनी गदा के तेज प्रहार से अंगद को मूर्च्छित कर दिया। सचेत होने पर अंगद ने एक बड़ी पर्वत-शिला से उस राक्षस पर प्रहार किया। उस एक ही प्रहार से उसके प्राण निकल गए।
कम्पन को मारा गया देखकर शोणिताक्ष ने अपना रथ अंगद की ओर मोड़ दिया। उसके चलाए हुए तीखे बाणों से अंगद का सारा शरीर घायल हो गया। फिर भी अंगद ने बड़े वेग से आगे बढ़कर उस राक्षस के धनुष, रथ और बाणों को नष्ट कर डाला। इससे कुपित होकर शोणिताक्ष ढाल और तलवार उठाकर रथ से नीचे कूद गया।
बलवान अंगद ने फुर्ती से उछलकर उसे पकड़ लिया और उसकी तलवार छीन ली। फिर उसी तलवार से अंगद ने उसके कंधे पर एक जोरदार वार कर दिया। यह देखकर प्रजंघ और यूपाक्ष भी अंगद की ओर बढ़े। थोड़ा संभलने का अवसर मिलते ही शोणिताक्ष ने भी अंगद पर प्रहार करने के लिए लोहे की गदा उठा ली। उन तीनों ने अंगद को घेर लिया।
उसी समय मैन्द और द्विविद भी अंगद की रक्षा के लिए वहाँ आ गए। अब उन तीनों ने मिलकर बड़े-बड़े वृक्ष उन निशाचरों पर चलाए, किन्तु प्रजंघ ने अपनी तलवार से उन सबको काट डाला। फिर वह अंगद पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा। उसे निकट देखकर अंगद ने अश्वकर्ण (साल) के वृक्ष से उस पर प्रहार किया। उसके जिस हाथ में तलवार थी, उस पर भी अंगद ने एक शक्तिशाली घूँसा मारा। उसके आघात से वह तलवार छूटकर नीचे गिर गई।
अब अंगद ने प्रजंघ पर मुक्कों की वर्षा कर दी। इससे कुपित होकर प्रजंघ ने भी अंगद के माथे पर एक ऐसा जोरदार घूँसा लगाया कि उससे अंगद को चक्कर आने लगा। लेकिन थोड़ा संभलते ही अंगद ने राक्षस प्रजंघ को इतना शक्तिशाली घूँसा मारा कि एक ही प्रहार में उस राक्षस का सिर धड़ से अलग हो गया।
अपने चाचा को मरा हुआ देखकर यूपाक्ष की आँखों में आँसू आ गए। उसके बाण भी समाप्त हो गए थे, इसलिए उसने भी रथ से उतरकर तलवार हाथ में ले ली। यह देखते ही वीर द्विविद ने बड़ी फुर्ती से उसके सीने पर प्रहार किया और झपटकर उसे पकड़ लिया।
भाई को इस प्रकार फंसा हुआ देखकर शोणिताक्ष ने द्विविद की छाती पर गदा से प्रहार किया। इस प्रहार से द्विविद विचलित हो उठा, पर शोणिताक्ष ने जब पुनः गदा उठाई, तो द्विविद ने झपटकर उसे छीन लिया। तब तक मैन्द भी द्विविद की सहायता के लिए आ गया था। उसने यूपाक्ष की छाती पर एक थप्पड़ से जोरदार प्रहार किया।
अब मैन्द, द्विविद, यूपाक्ष और शोणिताक्ष चारों आपस में भिड़ गए। वे एक-दूसरे को भूमि पर पटकने लगे, और छीना-झपटी करने लगे। द्विविद ने अपने नखों से शोणिताक्ष का मुँह नोच लिया और उसे पृथ्वी पर पटककर पीस डाला। मैन्द ने भी यूपाक्ष को अपनी भुजाओं में कसकर ऐसा दबाया कि उसे भी प्राण निकल गए। उन दोनों के मारे जाने पर अन्य राक्षस-सैनिक घबराकर कुम्भ के पास भाग गए।
राक्षसों को इस प्रकार पीड़ित देखकर कुम्भ ने अपना धनुष उठाया और बाणों की भीषण वर्षा करने लगा। वह बड़ा श्रेष्ठ धनुर्धर था । सोने के पंखों वाले बाणों से उसने द्विविद को घायल कर दिया।
अपने भाई को घायल होकर भूमि पर गिरता हुआ देखकर मैन्द ने एक बहुत बड़ी शिला उठाकर उस राक्षस की ओर फेंक दी। लेकिन कुम्भ ने अपने चमकीले बाणों से उस शिला के टुकड़े कर डाले। फिर उसने एक भयंकर बाण अपने धनुष पर रखकर मैन्द पर चला दिया। वह बाण सीधा मैन्द के मर्मस्थल पर लगा और वह भी मूर्च्छित होकर गिर पड़ा।
अपने दोनों मामाओं की यह दशा देखकर अंगद अब कुम्भ पर टूट पड़ा। उसे देखते ही कुम्भ ने एक के बाद एक आठ बाण मारकर अंगद को बींध डाला। फिर भी अंगद ने शिलाओं और वृक्षों की मार से उस राक्षस पर आक्रमण जारी रखा। तब क्रोधित होकर कुम्भ ने अपने दो बाणों से अंगद की भौहों पर प्रहार कर दिया। इससे अंगद की भौहों से रक्त बहने लगा और उसकी दोनों आँखें इस कारण बंद हो गईं।
तब अंगद ने खून से भीगी हुई अपनी दोनों आँखों को एक हाथ से ढक लिया और दूसरे हाथ से पास ही खड़े एक साल के वृक्ष को पकड़ा। फिर अपनी छाती से दबाकर उस वृक्ष को तने सहित झुका दिया और एक हाथ से ही उसे एक झटके में उखाड़ डाला। उस ऊँचे वृक्ष को अंगद ने बड़े वेग से कुम्भ पर दे मारा। लेकिन कुम्भ ने लगातार सात बाण मारकर उस वृक्ष के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले। यह देखकर अंगद को बड़ी व्यथा हुई। वह बहुत घायल भी हो चुका था। अगले ही क्षण वह भूमि पर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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