Home विषयऐतिहासिक वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 115
हनुमान जी शीघ्र ही अपनी सेना के साथ श्रीराम के पास आए और दुःखी मन से उन्होंने कहा, “प्रभु! हम लोग युद्ध में लगे हुए थे कि तभी इन्द्रजीत ने हमारे सामने ही सीता जी का वध कर डाला। वह दृश्य देखकर मैं विषाद में डूब गया हूँ। इसीलिए मैं आपको यह समाचार देने आया हूँ।”
यह सुनते ही श्रीराम शोक से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। यह देखकर सब प्रमुख वानर तुरंत ही वहाँ आ पहुँचे और श्रीराम को जगाने के लिए उन पर जल छिड़कने लगे।
अपने भाई की यह अवस्था देखकर लक्ष्मण जी को बड़ा दुःख हुआ। वे भूमि पर बैठ गए और उन्होंने श्रीराम को अपनी दोनों भुजाओं में भर लिया। बहुत दुःखी होकर वे बोले, “आर्य! यह कैसा दुर्भाग्य है कि आज धर्म और अधर्म का अंतर समझ नहीं आ रहा है। आप सदा धर्म का पालन करते हैं, किन्तु फिर भी आपको इतने संकटों से जूझना पड़ रहा है और वह अधर्मी रावण अभी तक सुरक्षित है।”
“अब तो ऐसा लगता है कि धर्म का पालन करना निरर्थक है। धर्म से कभी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। अन्यथा धर्म का पालन करते हुए भी आपको इतने कष्ट क्यों मिलते? सुख तो पशु-पक्षियों को भी मिलता है, किन्तु उसका कारण धर्म नहीं है। जो लोग अधर्म में लगे हुए हैं, उनका धन बढ़ रहा है, वे सुख पा रहे हैं और जो धर्म पर चलते हैं, वे कष्ट भोग रहे हैं।”
“श्रीराम! आप ज्येष्ठ पुत्र हैं, इसलिए पिताजी ने आपको युवराज बनाने की बात कही थी। परन्तु बाद में अधर्म करते हुए वे उस सत्य से पलट गए। इसी असत्य के कारण उनका आपसे वियोग हुआ और वे मर गए। इसलिए आपको उस पहले सत्य का पालन करते हुए अपना ही राज्याभिषेक करवाना चाहिए था। फिर न पिता की मृत्यु होती और न सीता हरण आदि अनर्थ हुए होते। धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति पुरुषार्थ से ही होती है।”
“जिसके पास अधिक धन है, उसी के अधिक मित्र होते हैं। उसी को सब अपना भाई-बन्धु बनाते हैं। धनवान व्यक्ति ही श्रेष्ठ कहलाता है और वही विद्वान भी समझा जाता है। उसी को लोग पराक्रमी कहते हैं और उसी को बुद्धिमान मानते हैं। जिसके पास धन है, वही गुणवान समझा जाता है। अतः मैं नहीं समझ पाता हूँ कि आपने क्या सोचकर अपनी सारी संपत्ति और राज्य त्याग दिया था। आप पूज्य पिताजी की आज्ञा का पालन करने के लिए राज्य छोड़कर वन में चले आए और सत्य के पालन पर डटे रहे, किन्तु तब उस नीच राक्षस ने आपकी पत्नी का हरण कर लिया।”
“अब आप इस प्रकार शोक मत कीजिए। मैंने आपका ध्यान शोक से हटाकर पुरुषार्थ की ओर आकृष्ट करने के लिए ही यह सब कहा है। जानकी जी की मृत्यु का समाचार सुनकर मेरा रोष अत्यधिक बढ़ गया है। अतः मैं अपने बाणों से आज ही रावण सहित इस सारी लंका को धूल में मिला दूँगा।”
जब लक्ष्मण इस प्रकार श्रीराम को सांत्वना दे रहे थे, उसी समय विभीषण भी वानर-सेना का निरीक्षण पूरा करके वहाँ आ पहुँचा। अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए चार निशाचर मंत्री उसके अंगरक्षक बनकर साथ चल रहे थे। वहाँ पहुँचकर विभीषण ने भूमि पर शोकमग्न बैठे हुए लक्ष्मण को तथा उनकी गोद में सिर रखकर मूर्च्छित लेटे हुए श्रीराम को देखा।
इसका कारण जानने पर उसने तुरंत ही कहा, “श्रीराम! हनुमान जी ने जो समाचार सुनाया है, मैं उसे असम्भव मानता हूँ। सीता के प्रति रावण के मन में जो लालसा है, उसके कारण वह कभी भी सीता का वध नहीं होने देगा। मैंने तो स्वयं ही उसे कितनी बार समझाया था कि वह सीता को छोड़ दे, पर उसने मेरी बात नहीं मानी। आप निश्चित समझिये कि इन्द्रजीत ने जिसका वध किया, वह मायामयी सीता थी, वास्तविक नहीं।”
“वह इस समय निकुम्भिला मंदिर में जाकर होम कर रहा होगा। यदि उसका होम सफल हो गया, तो युद्ध में उसे परास्त करना देवताओं के लिए भी कठिन हो जाएगा। उसने सोचा होगा कि ‘वानरों का पराक्रम चलता रहा तो मेरे हवन में विघ्न पड़ेगा।’ इसी कारण उसने वानरों को भ्रमित करने के लिए माया से बनी सीता का वध किया, जिससे वानर-सेना शोक में पड़ जाए और युद्ध बंद कर दे।”
“प्रभु! आप तो धैर्य में सबसे बढ़कर हैं। आपको शोक संतप्त देखकर सारी सेना शोकग्रस्त हो गई है। अतः आप शोक त्याग दीजिए और इन्द्रजीत का वध करने के लिए लक्ष्मण को जाने की आज्ञा दीजिए। उनके पैने बाणों से इन्द्रजीत अवश्य मारा जाएगा। अब आप इसमें विलंब न कीजिए क्योंकि यदि इन्द्रजीत अपना अनुष्ठान पूर्ण कर लेगा, तो समरभूमि में देवता और असुर कोई भी उसे परास्त नहीं कर पाएँगे।”
अब तक श्रीराम की मूर्च्छा टूट गई थी और वे धीरे-धीरे उठ बैठे थे। विभीषण की बात सुनकर उन्होंने कहा, “राक्षसराज! तुम क्या कहना चाहते हो?”
इस पर विभीषण ने उत्तर दिया, “श्रीराम! इन्द्रजीत अवश्य ही इस समय निकुम्भिला मन्दिर की ओर गया है। ब्रह्मा जी ने उसे वरदान देते हुए कहा था, ‘निकुम्भिला नामक वटवृक्ष के पास तेरा हवन पूर्ण होने से पहले यदि कोई शत्रु तुझ पर आक्रमण करेगा, तो उसी के हाथों तेरा वध होगा।’ इन्द्रजीत ब्रह्मास्त्र का ज्ञाता, धूर्त, मायावी और बड़ा बलवान है। वह युद्ध में देवताओं को भी हरा सकता है। अतः लक्ष्मण को भी इसी समय सेना लेकर निकुम्भिला के मंदिर में जाना चाहिए और वहीं उसका वध कर देना चाहिए।”
यह सब सुनकर श्रीराम ने कहा, “इन्द्रजीत जब अपने रथ पर आकाश में विचरने लगता है, तब उसकी गति का कुछ पता ही नहीं चलता। लक्ष्मण! तुम वानरराज सुग्रीव की सेना तथा हनुमान, जाम्बवान आदि वीरों को साथ लेकर जाओ और इन्द्रजीत का वध कर दो। राक्षसराज विभीषण उसकी मायाओं से भली-भाँति परिचित हैं, अतः अपने मंत्रियों के साथ ये भी तुम्हारे पीछे-पीछे जाएँगे।”
यह सुनते ही लक्ष्मण ने युद्ध की अन्य सामग्री एकत्र कर ली। फिर उन्होंने कवच धारण किया, तलवार बाँध ली और धनुष-बाण हाथ में उठा लिए। अपने भाई को प्रणाम करके उन्होंने उनकी परिक्रमा की तथा श्रीराम ने उनकी विजय के लिए स्वस्तिवाचन किया। तब तुरंत ही लक्ष्मण निकुम्भिला मंदिर की ओर चल पड़े। विभीषण, हनुमान जी तथा बड़ी संख्या में वानर सैनिक भी उनके पीछे चले।
बहुत बड़ी दूरी तय कर लेने पर उन लोगों को दिखाई दिया कि सामने राक्षस-सेना मोर्चा बाँधे खड़ी है। तब वीर लक्ष्मण भी आगे बढ़कर निकुम्भिला नामक स्थान पर पहुँच गए। इस समय उनके साथ विभीषण, अंगद व हनुमान जी भी थे।
राक्षस-सेना को देखकर विभीषण ने कहा, “सुमित्रानन्दन! शिलाओं से आक्रमण करने वाले वानरों को इस राक्षस सेना पर टूट पड़ना चाहिए और आप भी इसके व्यूह को भेदने का प्रयास करें। यह मोर्चा टूटने पर ही हमें इन्द्रजीत दिखाई देगा। अतः उसका हवन समाप्त होने से पहले ही आप शत्रु पर धावा बोल दीजिए।”
यह सुनकर लक्ष्मण ने तत्काल ही राक्षसों पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। वानर सैनिक भी बड़े-बड़े वृक्ष और शिलाएँ लेकर राक्षसों पर टूट पड़े। उधर से राक्षसों ने भी अपने पैने बाणों, तलवारों, शक्तियों व तोमरों का प्रहार कर दिया। इस प्रकार दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध होने लगा।”
जब इन्द्रजीत ने सुना कि शत्रुओं के आक्रमण से मेरी सेना पीड़ित हो रही है, तो उसे भयंकर क्रोध आ गया और अपना अनुष्ठान पूर्ण होने से पहले ही वह युद्ध के लिए उठ खड़ा हुआ। घने पेड़ों के बीच से निकलकर वह एक रथ पर आरूढ़ हो गया। उसके हाथ में भयंकर धनुष और बाण थे। वह कोयले के ढेर जैसा काला था और उसका मुँह एवं आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं।
आगे जारी रहेगा ….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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