बच्चों में एक नकारात्मक सेल्फ इमेज डाल देते हैं जिसका दुष्प्रभाव स्थायी रह सकता है.
हमारे समय की पैरेंटिंग और स्कूलिंग तो जैसी थी, थी ही… और उसका क्या प्रभाव रहा यह समझने की ऑब्जेक्टिविटी नहीं है. पर अपने बच्चों के केस में साफ दिखाई दिया.
मेरे दोनों बच्चों की प्राइमरी शिक्षा जमशेदपुर में शुरू हुई. उस समय (2005-10) जमशेदपुर में बच्चों का प्राइमरी क्लास में एडमिशन की लड़ाई हमारे समय की आईआईटी और मेडिकल के एडमिशन की लड़ाई से कम नहीं थी. तीन-तीन साल के बच्चों के लिए कोचिंग, ट्यूशन से लेकर डीएम और एमपी-एमएलए की सिफारिश तक… बच्चों का प्राइमरी क्लास में एडमिशन एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट था. उस समय मैं मिशन के हॉस्पिटल में काम करता था तो उस रेफरेंस से लोयोला स्कूल में एडमिशन हो गया जो शहर का सबसे प्रतिष्ठित स्कूल था और जिसकी नेशनल रैंकिंग टॉप दस में बताते थे.
पर उस स्कूल में जाना मेरे बच्चों के लिए एक पनिशमेंट ही सिद्ध हुआ. बेटा पढ़ने में असाधारण था, और बेटी साधारण से कुछ नीचे. लेकिन दोनों ने एक समान स्ट्रगल किया. बेटा मैथ्स के सवाल खुद से और अपने तरीके से हल कर लेता था तो उसको डांट पड़ती थी. उसको सामान्यतः पढ़ाई आसान और बोरिंग लगती थी और वह क्लास में दिए गए बोरिंग और फालतू के क्लासवर्क और होमवर्क पर फोकस नहीं कर पाता था जिसमें मुख्यतः लंबे लंबे पैसेज रटने का काम होता था. उसकी टीचर अक्सर बुला कर उसके खराब मार्क्स के बारे में शिकायत करती थी… और वह था क्लास 1 या 2 में..
बेटा तो खैर अपने तरीके से इस टीचर को झेल लेता था, और मेरा एप्रोच भी रिलैक्स्ड ही रहता था. लेकिन बेटी को बहुत समस्या हुई. उसकी एक टीचर तो जैसे क्लास में उसको ह्यूमिलिएट करने में एक सैडिस्टिक सुख लेती थी. आज भी मेरी बेटी उस टीचर को याद करती है तो गुस्से से भर जाती है.
लेकिन अपने पूरे रिलैक्स्ड एप्रोच के बावजूद ये बातें हमें प्रभावित नहीं करतीं थीं ऐसा नहीं है. बेटी के खराब ग्रेड्स से परेशान हमने उसके आलतू फालतू ट्यूशन लगा दिए…जिसके लिए वह गर्मी की दोपहर तीन बजे जाया करती थी. आज सोचकर शर्म आती है कि 45-46 डिग्री तापमान में बच्चे को ट्यूशन भेजना कितना अमानवीय काम था.. और ट्यूशन भी किस चीज का, तो हिन्दी का.
खैर, संयोग से भारत से निकलना हुआ जो मेरे बच्चों के लिए अल्काट्राज के जेल से एस्केप से कम नहीं था. वही बच्चे, और यहां आकर बिल्कुल अलग ही अनुभव था. दोनों बच्चों के ग्रेड्स में वही अंतर था, जो यहां था. लेकिन स्कूल से मिलने वाले व्यवहार में और फीडबैक में जमीन आसमान का अंतर था. एक बड़ा अंतर यह था कि जहां भारत में कमियां खोज खोज कर फीडबैक दिया जाता था, वहीं यहां बच्चों को उनके अच्छे व्यवहार पर, उनकी आर्टिस्टिक एबिलिटी पर और उनके इमेजिनेशन पर तारीफ मिलती थी. जबकि यह था यहां का एक साधारण से साधारण सरकारी स्कूल, जिसके चयन में सिर्फ एक बात का ख्याल रखा गया कि यह स्कूल घर से सबसे पास था.
नेगेटिव फीडबैक को ही फीडबैक समझना हमारे कल्चर की एक खासियत है… हमने “निंदक नियरे राखिए” को खूब सीरियसली ले रखा है और खूब दिल लगा के निंदा करने का सुख लेते हैं…इस उम्मीद में कि कोई इसके लिए आपको आंगन में कुटिया छवा कर दे देगा. (और इसीलिए हमारे स्कूल सिस्टम पर दिया गया मेरा यह फीडबैक भी उसी परम्परा से प्रेरित है जिसमें हमारी स्कूलिंग हुई है

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