एक आदमी जो बीस साल एक ऐसी जुर्म की सजा जेल से काटकर कर आता है, जिसे उसने किया ही नहीं था। बीस साल बाद वह उसके खिलाफ गलत फैसला देने वाले जज को तलाशता है। जो उसकी बीस साल की सजा के लिए दोषी थे। एक ऐसे अपराध के लिए, जो उसने किया ही नहीं था।
कहानी के दूसरे हिस्से में वह आदमी शहर से दूर एक ऐसी ही जेल तैयार करता है, जैसी परिस्थिति में उसने 20 साल काटे थे। वह जज का अपरहण करता है, अपने बनाए हुए जेल में रखता है।
वह आदमी जिसने जज की लापरवाही की वजह से अपनी जिन्दगी के 20 साल बर्बाद किए, उसे लगता है कि जज को भी इस बात का एहसास होना चाहिए कि यदि आपकी कोई गलती ना हो और आपको सजा दे दिया जाए तो कैसा एहसास होता है?
वह आदमी चाहता था कि जज जब उसकी कैद से आजाद होकर, वापस अपनी दुनिया में लौटे तो जरूर इन बीस सालों का अनुभव वह एक किताब में लिखे। उसे इस बात का पश्चाताप भी हो कि उसके एक गलत निर्णय की वजह से एक बेगुनाह आदमी ने अपनी जिन्दगी के 20 साल जेल में काट दिए।
यह तो एक कहानी है लेकिन फिर भी सवाल तो बनता है कि उस आदमी ने जो किया वह सही था या गलत? उसे क्या करना चाहिए था? निर्णय के खिलाफ रिव्यू पीटिशन डालना चाहिए था। मीडिया में अपनी बात बतानी चाहिए थी। या जो कुछ उसके साथ हुआ, उसे नीयति समझ कर भूल जाना चाहिए था।
भारतीय लोकतंत्र में एक आम आदमी को क्या करना चाहिए, जब उसके साथ अन्याय हो? जब कानून को हाथ में लेने के सिवा कोई रास्ता ना छोड़ा जाए? जरा इन सवालों पर थोड़ा विचार कीजिए।
एक बात और कि क्या 20 साल के बाद जब जज साहब की अवस्था 75 साल के आस पास की होगी। वे लौटकर इस आदमी की शिकायत पुलिस से करेंगे?
दूसरी बात, बीस साल बाद जज साहब जब कोई किताब लिखेंगे तो उसका कन्टेन्ट क्या होगा?