इतना तय है कि मोदी सरकार में अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोना रोने वाले बेहद क्रिटिकल कंडीशन के मानसिक बीमार है। राजनीति के इतर सिने जगत से भी आवाज़ें उठती आई है कि सरकार हमारी आवाज़ को दबा रही है।
जितने भी फ़िल्म मेकर्स इन वार्ड में भर्ती है वे सब एडवांस स्टेज में है। 2024 के नतीजें बहुत हद तक सबकुछ डैमेज़ कर देंगे। साथ ही सरकारी संस्थाओं पर नियंत्रण का आरोप जड़ रहे है। तो उन्हें समझना चाहिए, कब्ज़ा क्या होता है।
1975 में गुलज़ार, लेखक-निर्देशक ने ‘आँधी’ फ़िल्म बनाई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने बैन बोर्ड लटका दिया था, क्योंकि इसके केंद्र किरदार यानी सुचित्रा सेन की छवि पूर्व पीएम से मेल खाती दिखलाई दी। वैसे 1975-77 के दौरान जितनी अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता मिली थी, भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में कभी न मिली। मने हालात ये रहे, गायक ने गीत गाने से मना कर दिया तो उन्हें ऑल इंडिया रेडियो पर चुप कर दिया। हमने आपको बोलने व अपनी बात कहने का मौका दिया, आप चूक गए। अब दूसरों को बोलने दे….
लंदन में बैठकर लोकतंत्र खत्म, खतरे की बात कर रहे है। सदन में माइक बन्द करने के आरोप जड़ रहे है।
लेखक-निर्देशक अनुभव सिन्हा न जाने कौनसी सोचनीय अवस्था में पहुँच गए है। कि उन्हें अगस्त 1947 और मार्च 2020 की परिस्थितियां समान नजर आई, कोई फ़र्क न दिखाई दिया।
1947 ने लोगों को अपना घर, जमीन, मोहल्ला से दूर कर दिया और ऐसी परिस्थितियों में धकेल दिया। जहाँ सबकुछ शून्य था। उसकी तुलना 2020 से हो रही है जहाँ महीने का लॉक डाउन लगाया गया और सरकार ने उन्हें जगह छोड़ने को न कहा, बल्कि विपक्षी नेताओं की अफवाहों से सड़क पर आने को मजबूर किया गया। तिस पर जो भी सड़क पर थे, प्रवासी थे और अपने गृह नगर को जा रहे थे। वहाँ उनके परिजन रहते है। बस कर्म भूमि छोड़कर, जन्म भूमि की ओर थे। यक़ीनन लॉक डाउन में बहुतों की नौकरी छीन गई। लेकिन 1947 में क्या क्या गया, उसका अंदाजा तो 2020 में रत्ती भर तक न था।