Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 116
इन्द्रजीत जैसे ही अपने रथ पर बैठा, उसकी राक्षस-सेना भी उसके आसपास एकत्र हो गई। तब हनुमान जी ने भी एक विशाल वृक्ष को उखाड़ लिया और राक्षसों पर प्रहार करने लगे। यह देखकर राक्षस भी अपने शूलों, तलवारों, शक्तियों, पट्टिशों, गदाओं, भालों, शतघ्नियों, मुद्गरों, फरसों, भिन्दिपालों तथा मुक्कों व थप्पड़ों से हनुमान जी से लड़ने लगे।
जब इन्द्रजीत ने यह देखा, तो उसने अपने सारथी से कहा, “यदि इस वानर को नहीं रोका गया, तो यह हम सब राक्षसों का विनाश कर डालेगा। अतः शीघ्र ही रथ को उसके पास ले चलो।”
हनुमान जी के निकट पहुँचकर इन्द्रजीत ने उन पर बाणों, तलवारों, पट्टिशों और फरसों से आक्रमण कर दिया। तब हनुमान जी कुपित होकर उससे बोले, “दुर्बुद्धि राक्षस! तू बड़ा शूरवीर है, तो आ मेरे साथ मल्लयुद्ध कर। यदि उसमें तू मेरे प्रहार सह गया, तो मैं तुझे वीर समझूँगा।”
लेकिन इन्द्रजीत ने हनुमान जी को मारने के लिए धनुष उठा लिया। यह देखते ही विभीषण ने लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! उस रथ पर बैठा हुआ इन्द्रजीत हनुमान जी का वध करना चाहता है। अतः आप अपने प्राणान्तकारी बाणों से उसे अभी मार डालिये।”
इतना कहकर विभीषण लक्ष्मण को साथ लेकर तेजी से आगे बढ़े। एक गहन वन में ले जाकर उन्होंने लक्ष्मण को इन्द्रजीत के अनुष्ठान का स्थान दिखाया। वहाँ बरगद का एक सघन वृक्ष था। लक्ष्मण को वहाँ की सब वस्तुएँ दिखाने के बाद विभीषण ने कहा, “युद्ध से पहले यहीं आकर इन्द्रजीत प्रतिदिन बलि देता है। यहाँ उसके पहुँचने से पहले ही आप उसका वध कर दीजिए।”
यह सुनकर लक्ष्मण ने अपना धनुष संभाल लिया। उतने में ही अग्नि के समान तेजस्वी रथ पर बैठा हुआ इन्द्रजीत सामने से आता दिखाई दिया। उसे देखते ही लक्ष्मण ने युद्ध के लिए ललकारा।
निकट आने पर विभीषण को देखकर उसे धिक्कारते हुए इन्द्रजीत बोला, “राक्षस! तुम यहीं जन्मे और यहीं पले-बढ़े। तुम मेरे पिता के सगे भाई और मेरे चाचा हो। परन्तु तुम में ने अपने परिजनों के प्रति अपनापन है, न आत्मीयजनों के प्रति स्नेह है और न अपने कुल का कोई अभिमान है। तुम तो राक्षसों पर कलंक हो। स्वजनों का त्याग करके तुमने दूसरों की दासता स्वीकार कर ली है। अतः तुम निंदनीय हो।”
“क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि जो अपने पक्ष को छोड़कर दूसरे पक्ष के लोगों से मिल जाता है, वह भी अपने पक्ष का विनाश होने के बाद फिर उन्हीं के द्वारा मार डाला जाता है। तुमने लक्ष्मण को यहाँ तक लाकर मेरा वध करवाने का जो प्रयास किया है, ऐसी निर्दयता केवल तुम्हारे जैसा नीच ही कर सकता था।”
यह सुनकर क्रोधित विभीषण ने उत्तर दिया, “राक्षस! यद्यपि मेरा मन क्रूरकर्मा राक्षसों के कुल में ही हुआ है, किन्तु मेरा स्वभाव वैसा क्रूर नहीं है। अधर्म में मेरी रुचि नहीं है। यदि मेरे बड़े भाई ने स्वयं ही मुझे घर से न निकाला होता, तो मैं दूसरे पक्ष में क्यों जाता?”
“जिसने पाप करने का दृढ़ निश्चय कर लिया हो, उसका त्याग करना ही उचित है। दूसरों का धन लूटना, परायी स्त्री पर हाथ डालना और अपने हितैषियों पर अत्यधिक शंका करना, तीनों ही बड़े विनाशकारी दोष हैं। ये सब दोष तेरे पिता में हैं। महर्षियों का वध, देवताओं से वैर, अहंकार, रोष और धर्म के विरुद्ध चलने के दुर्गुण भी उसमें विद्यमान हैं। इन्हीं दोषों के कारण मैंने तेरे पिता का त्याग किया है।”
“नीच! तू अत्यंत अभिमानी, उद्दंड और मूर्ख है। तू काल के पाश में बँधा हुआ है, इसलिए तेरी जो इच्छा हो, मुझे कह ले, किन्तु अब तू बरगद के नीचे तक नहीं पहुँच सकता। अब लक्ष्मण से युद्ध करके तू यमलोक ही पहुँचेगा।”
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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