Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 117
विभीषण की कड़वी बातें सुनकर इन्द्रजीत को बड़ा क्रोध आया। वह अपने रथ को आगे बढ़ाकर तुरंत सामने आ खड़ा हुआ। उसने अपने हाथों में धनुष-बाण उठा लिया था और उसका खड्ग एवं अन्य आयुध भी वहीं रखे थे। अपने रथ पर बैठे हुए उस निशाचर ने देखा कि लक्ष्मण उससे युद्ध करने के लिए हनुमान जी की पीठ बैठे हुए हैं। तब उसने वानरों को ललकारते हुए कहा, “शत्रुओं! आज तुम सब मेरा पराक्रम देखना। इस युद्धभूमि में मेरे धनुष से छूटे हुए बाण तुम सबके शरीरों की धज्जियाँ उड़ा देंगे। अपने शूल, शक्ति, ऋष्टि, तोमरों और सायकों से मैं तुम सबको छिन्न-भिन्न करके यमलोक पहुँचा दूँगा।”
“लक्ष्मण! उस दिन के रात्रियुद्ध में मैंने तुम दोनों भाइयों को अपने बाणों से मूर्च्छित करके युद्ध-भूमि में सुला दिया था। परन्तु लगता है कि अब तू वह बात भूल गया है। इसी कारण तू पुनः मुझसे युद्ध करने आ गया। अवश्य ही तू अब यमलोक को जाएगा।”
यह सुनकर लक्ष्मण का क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने गरजते हुए कहा, “निशाचर! तू केवल बड़ी-बड़ी बातें करता है, पर उन्हें पूरा नहीं कर सकता। जो मनुष्य केवल कहता है किन्तु करता कुछ नहीं, वह मूर्ख है। बुद्धिमान वही है, जो अपनी कही हुई बात को पूर्ण करके भी दिखाए। उस दिन संग्राम में तूने चोरों की भाँति छिपकर बाण चलाए थे। वीर पुरुष ऐसा नहीं किया करते हैं। यह तो कायरों का काम है। यदि तुझमें साहस है, तो आगे बढ़ और अपना पराक्रम दिखा। मैं तो तेरे सामने खड़ा हूँ। फिर तू केवल बातें क्यों बना रहा है?”
यह सुनते ही इन्द्रजीत ने कुपित होकर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। अपने विषैले बाणों से उसने लक्ष्मण को घायल कर दिया। अगले ही क्षण लक्ष्मण ने भी अपने धनुष को कान तक खींचा और बड़े वेग से पाँच नाराच उस राक्षस की छाती में मारे। लक्ष्मण के बाणों से आहत होकर वह क्रोध से आगबबूला हो गया। अब उसने भी लक्ष्मण को तीन बाण मारकर बदला ले लिया। इस प्रकार दोनों के बीच भीषण युद्ध चलता रहा।
अब कुपित होकर लक्ष्मण ने अपने धनुष पर एक साथ अनेक बाण रखे और धनुष को डोरी को खींचकर एक झटके में छोड़ दिया। उस धनुष की टंकार सुनकर इन्द्रजीत का मुँह सूख गया और वह उदास होकर लक्ष्मण को देखने लगा।
उसको उदास देखकर विभीषण ने तुरंत ही लक्ष्मण से कहा, “महाबाहो! इस समय इन्द्रजीत के जो लक्षण दिखाई दे रहे थे, उनसे लगता है कि उसका उत्साह भंग हो गया है। अतः आप इसके वध में अब देर न करें।”
यह सुनते ही लक्ष्मण ने अपने भयंकर बाणों को धनुष पर चढ़ाया और इन्द्रजीत पर चला दिया। उन बाणों की चोट से इन्द्रजीत मूर्च्छित हो गया। थोड़ी देर बाद जब उसकी चेतना लौटी, तो उसने वीर लक्ष्मण को सामने खड़ा देखा। उन्हें देखते ही उसकी आँखें क्रोध से लाल हो गईं। अब उसने लक्ष्मण पर तीखी धारवाले सात बाण चला दिए और दस सायकों से हनुमान जी पर भी आक्रमण किया। फिर उसने दुगुने रोष से विभीषण पर भी बाणों की वर्षा कर दी।
लेकिन इससे विचलित हुए बिना लक्ष्मण ने पुनः अपने भयंकर बाण इन्द्रजीत पर चला दिए। उन बाणों से उस निशाचर का सोने का बना हुआ कवच टूटकर रथ में बिखर गया और बाणों की मार से वह रक्तरंजित हो गया। इससे कुपित होकर उसने भी लक्ष्मण पर अपने बाणों से भीषण आक्रमण किया। इससे लक्ष्मण का कवच भी छिन्न-भिन्न हो गया। इस प्रकार लड़ते-लड़ते वे दोनों योद्धा लहूलुहान हो गए। बहुत देर तक उनका युद्ध चलता रहा, किन्तु दोनों में से कोई भी युद्ध से पीछे नहीं हटा। वे एक-दूसरे पर आक्रमण करते रहे और एक-दूसरे के बाणों को काटते रहे।
अंततः विभीषण भी अब अपने धनुष-बाण लेकर आगे बढ़ा और उसने भी राक्षसों पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। विभीषण के अनुचर भी बड़े वीर राक्षस थे। वे भी समरभूमि में शूल, खड्ग और पट्टिशों से निशाचरों का संहार करने लगे।
विभीषण ने वानर सैनिकों से कहा, “वानरों! खड़े-खड़े क्या देखते हो? अब रावण की सेना का यही अंतिम भाग शेष रह गया है। प्रहस्त, कुम्भ, निकुम्भ, धूम्राक्ष, कुम्भकर्ण, जम्बुमाली, महामाली, तीक्ष्णवेग, अशनिप्रभ, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, वज्रदंष्ट्र, संह्रादि, विकट, अरिघ्न, तपन, मन्द, प्रघास, प्रघस, प्रजंघ, जंघ, अग्निकेतु, रश्मिकेतु, विद्युज्जिह्व, द्विजिह्व, सूर्यशत्रु, अकम्पन, सुपार्श्व, चक्रमाली, कम्पन, देवान्तक, नरान्तक सब मारे जा चुके हैं। इस इन्द्रजीत के मरते ही रावण की सारी शक्ति समाप्त हो जाएगी।”
“मैं इसके पिता का भाई हूँ। इस नाते यह मेरे पुत्र समान है। इसका वध करना मेरे लिए अनुचित है। फिर भी मैं अपने संबंधों को तिलांजलि देकर इसे मारने के लिए उद्यत हुआ हूँ। जब मैं इसे लक्ष्य बनाकर हथियार चलाता हूँ, तो आँसुओं से मेरी आँखें ढक जाती हैं। अतः वीर लक्ष्मण ही इसका विनाश करेंगे। तुम लोग भी झुण्ड बनाकर इसके सैनिकों पर टूट पड़ो।”
यह सुनते ही वे सब वानरों जोर-जोर से गर्जना करते हुए उन राक्षसों से पर टूट पड़े। अपने पत्थरों, नखों व दाँतों से वे राक्षसों को पीटने लगे। तब राक्षसों ने भी जाम्बवान को चारों ओर से घेर लिया और बाणों, फरसों, पट्टिशों, डंडों व तोमरों से उस पर प्रहार करने लगे। यह देखकर हनुमान जी ने लक्ष्मण को अपनी पीठ से उतार दिया और वे स्वयं भी साल का एक वृक्ष उखाड़कर राक्षसों का संहार करने लगे।
इन्द्रजीत और लक्ष्मण अभी भी एक-दूसरे से जूझ रहे थे। अपने बाणों की वर्षा करके वे एक-दूसरे को घायल कर देते थे। उनके बाणों की भीषण वर्षा से सारा आकाश ही ढक जाता था और नीचे गिरे हुए बाणों से पूरी युद्धभूमि भर गई थी। वे दोनों इतनी फुर्ती से बाण चलाते थे कि यह पता नहीं लगता था कि कब उन्होंने तरकस से बाण निकालकर धनुष पर रखा, कब धनुष को दूसरे हाथ में लिया, कब मजबूत मुट्ठी बाँधकर उसे पकड़ा, कब कानों तक डोरी खींची और कब शत्रु पर लक्ष्य बनाकर बाण छोड़ दिया।
इस प्रकार लड़ते-लड़ते सूर्यास्त हो गया और अन्धकार छा गया। अब लक्ष्मण का भी धैर्य टूटने लगा था। उन्होंने चार बाण मारकर उस राक्षस के चारों घोड़ों को बींध दिया। फिर एक पैना बाण उठाकर कान तक खींचा और इन्द्रजीत के सारथी का सिर भी धड़ से अलग कर दिया।
अब इन्द्रजीत एक हाथ से रथ को संभालता और दूसरे हाथ से धनुष चलाता हुआ लड़ने लगा। जब वह घोड़ों को रोकने के लिए हाथ बढ़ाता, तो लक्ष्मण पर उस पर बाणों से आक्रमण कर देते थे और जब वह युद्ध करने के लिए अपना धनुष उठाता था, तो वे उसके घोड़ों पर बाण चला देते थे। इस प्रकार भीषण आक्रमण से उन्होंने इन्द्रजीत को अत्यंत पीड़ित कर दिया। अपने सारथी की मृत्यु से वह बड़ा विचलित हो गया था। उसका उत्साह समाप्त हो गया और वह विषाद में डूब गया।
उसकी ऐसी अवस्था को देखकर सब वानर बड़े प्रसन्न हुए और लक्ष्मण की जय-जयकार करने लगे। तभी सहसा प्रमाथी, रभस, शरभ और गन्धमादन, ये चारों वानर उछलकर इन्द्रजीत के घोड़ों पर कूद गए। उनके भार से दबकर उन घोड़ों के प्राण निकल गए और मुँह से खून उगलते हुए वे धरती पर गिर पड़े। घोड़ों को मार डालने के बाद उन वानरों ने रथ को भी तोड़-फोड़ डाला और वेग से उछलकर वे पुनः लक्ष्मण के पास आकर खड़े हो गए।
अपना सारथी और घोड़े नष्ट हो जाने पर इन्द्रजीत रथ से कूद गया और बाणों की वर्षा करता हुआ लक्ष्मण की ओर बढ़ा। लक्ष्मण ने भी आगे बढ़कर अपने पैने बाणों की मार से उसे अत्यंत घायल कर दिया। तब उसने धीरे से अपने साथी राक्षसों से कहा, “श्रेष्ठ निशाचरों! सूर्यास्त हो जाने के कारण अब चारों दिशाओं में अन्धकार छा रहा है। मित्र और शत्रु की पहचान करना कठिन हो गया है। अतः मैं अब यहाँ से जाता हूँ और दूसरे रथ पर बैठकर युद्ध के लिए शीघ ही आऊँगा। तब तक तुम लोग वानरों को इस प्रकार भ्रम में उलझाए रहो कि नगर में मेरे प्रवेश करते समय वे मेरा सामना करने न आएँ।”
ऐसा कहकर इन्द्रजीत उन वानरों को चकमा देकर युद्धभूमि से निकल गया और लंका में आ पहुँचा।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

Related Articles

Leave a Comment