Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग-118
लंका पहुँचकर इन्द्रजीत ने एक स्वर्णभूषित रथ को सजवाया और उस पर प्रास, खड्ग, बाण आदि सामग्री रखवाकर घोड़े जुतवाए। फिर एक कुशल सारथी को लेकर वह पुनः नगर से बाहर निकला और उसने विभीषण एवं लक्ष्मण पर फिर आक्रमण कर दिया। उसे रथ पर बैठा देखकर वानर-सेना दंग रह गई। उस निशाचर की फुर्ती व बुद्धिमानी देखकर लक्ष्मण को भी बड़ा विस्मय हुआ।
नए रथ और नए उत्साह के साथ युद्धभूमि में लौटे इन्द्रजीत ने अब वानर सेना का संहार आरंभ कर दिया। उसने अपने धनुष को इतना खींचा कि वह गोल दिखने लगा। उसके नाराचों की मार से भयभीत होकर वानर-सैनिक लक्ष्मण की शरण में भागे। तब लक्ष्मण का क्रोध भड़क उठा और उन्होंने उस राक्षस का धनुष काट डाला। फिर इन्द्रजीत ने दूसरा धनुष उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाई, पर लक्ष्मण ने तीन बाण मारकर उस धनुष को भी काट दिया।
अब लक्ष्मण ने पाँच भयंकर बाणों से इन्द्रजीत की छाती में गहरी चोट पहुँचाई। उनकी मार से वह रक्त की उल्टियाँ करने लगा। फिर भी स्वयं को संभालकर उसने अब तीसरा धनुष हाथ में उठा लिया और बड़ी फुर्ती से लक्ष्मण पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। परन्तु लक्ष्मण ने अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए उसके बाणों को रोक दिया और अनेक बाण मारकर राक्षसों को भी घायल कर दिया। झुकी गाँठ वाले भल्ल से उन्होंने इन्द्रजीत के सारथी की भी गरदन उड़ा दी। लेकिन फिर भी उसके घोड़े विचलित नहीं हुए और शांत भाव से रथ को खींचते हुए युद्ध भूमि में गोल चक्कर लगाते रहे।
क्रोधित लक्ष्मण ने अब उसके घोड़ों को लक्ष्य बनाया। इससे कुपित होकर इन्द्रजीत ने भी लक्ष्मण को दस बाण मारे, किन्तु वे सब नष्ट हो गए। तब क्रोधपूर्वक उसने लक्ष्मण के सिर को लक्ष्य बनाया और उनके माथे पर तीन बाण मारकर उन्हें घायल कर दिया।
इस प्रकार उन दोनों के बीच बहुत देर तक ऐसा भीषण युद्ध चलता रहा। दोनों लहूलुहान हो गए। इसी बीच इन्द्रजीत ने विभीषण को लक्ष्य बनाकर उसके माथे पर भी तीन बाणों से प्रहार कर दिया। लोहे की नोक वाले पैने बाणों से विभीषण को घायल करके उसने प्रमुख वानरों को भी लक्ष्य बनाना आरंभ कर दिया।
इससे विभीषण को बड़ा क्रोध आया और उसने अपनी गदा से इन्द्रजीत के चारों घोड़ों को मार डाला। तब इन्द्रजीत ने रथ से नीचे कूदकर अपने चाचा पर शक्ति का प्रहार किया। लेकिन लक्ष्मण ने अपने पैने बाणों से उस शक्ति के दस टुकड़े कर डाले। उतने में ही विभीषण ने भी इन्द्रजीत की छाती में पाँच बाण मार दिए। उनकी चोट से इन्द्रजीत का शरीर विदीर्ण हो गया और वे बाण उसके रक्त से सन गए। अब क्रोधित इन्द्रजीत ने यमराज का दिया हुआ एक बाण अपने धनुष पर रखा। यह देखते ही लक्ष्मण ने भी एक भयंकर बाण उठा लिया। उन दोनों के ही बाण बड़े वेग से हवा में टकराकर नष्ट हो गए।
अब कुपित होकर लक्ष्मण ने वारुणास्त्र चलाया, तो इन्द्रजीत ने रौद्रास्त चला दिया। फिर इन्द्रजीत ने आग्नेयास्त्र का संधान किया, तो लक्ष्मण ने सूर्यास्त्र चलाकर उसे नष्ट कर डाला। इससे क्रोधित होकर इन्द्रजीत ने भयंकर आसुरास्त्र चलाया, तब लक्ष्मण ने माहेश्वरास्त्र का प्रयोग करके उसे भी समाप्त कर दिया।
इसके बाद लक्ष्मण ने ऐन्द्रास्त्र नामक एक अद्भुत बाण अपने धनुष पर रखा। उसमें सुन्दर पर लगे हुए थे। स्वर्ण से विभूषित वह बाण बड़ा मजबूत, गोल और सुन्दर गाँठों वाला था। उसे रोकना अथवा उसका आघात सहना बड़ा कठिन था।
अपने धनुष को कान तक खींचकर लक्ष्मण ने इन्द्रजीत पर वह ऐन्द्रास्त्र चला दिया। वह बाण सीधा जाकर इन्द्रजीत को लगा और एक क्षण में ही उसका सिर धड़ से अलग होकर भूमि पर जा गिरा। उसका धनुष भी हाथों से छूटकर दूर गिर गया और रावण का सबसे शक्तिशाली पुत्र इन्द्रजीत धराशायी हो गया।
इन्द्रजीत के वध से सारी राक्षस-सेना में हाहाकार मच गया। भयभीत राक्षस अपने पट्टिश, खड्ग और फरसे फेंककर चारों दिशाओं में भागने लगे। कोई लंका पहुँच गए, कोई घबराकर पर्वतों पर चढ़ गए, तो कोई अपनी सुध-बुध खोकर समुद्र में कूद पड़े।
हनुमान जी, जाम्बवान और विभीषण ने इस अद्भुत पराक्रम के लिए लक्ष्मण की अत्यंत प्रशंसा की। सब वानरों में भी हर्षित होकर लक्ष्मण को चारों ओर से घेर लिया व उनकी जय-जयकार करने लगे। इन्द्रजीत के वध से लक्ष्मण को भी अत्यंत प्रसन्नता हुई। अब वे सब लोग श्रीराम के पास पहुँचे और विभीषण ने कहा, “प्रभु! लक्ष्मण के हाथों इन्द्रजीत के वध का कार्य संपन्न हो गया।”
यह सुनकर हर्षित श्रीराम बोले, “लक्ष्मण! आज तुमने बड़ा पराक्रम किया है। इन्द्रजीत के मारे जाने से अब यह निश्चित मान लो कि हम लोग युद्ध जीत गए हैं। आज मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ।”
ऐसा कहकर श्रीराम ने लक्ष्मण को गले लगा लिया।
युद्ध में बाणों से घायल हो जाने के कारण लक्ष्मण अत्यंत पीड़ित थे। उनके शरीर में अनेक घाव हो गए थे। वे बार-बार लंबी साँस ले रहे थे और पीड़ा से कराह रहे थे। यह देखकर श्रीराम ने तुरन्त सुषेण को बुलवाया। सुषेण ने आकर लक्ष्मण को कोई औषधि सुंघाई, जिससे उनके शरीर में धँसे हुए सारे बाण निकल गए और उनके घाव भी भर गए। फिर सुषेण ने विभीषण तथा अन्य प्रमुख वानरों की भी चिकित्सा की। उनकी औषधि के प्रभाव से उन सबकी पीड़ा दूर हो गई।
उधर रावण के मन्त्रियों ने जब इन्द्रजीत के वध का समाचार सुना, तो उन्हें इस पर विश्वास नहीं हुआ। अतः उन्होंने प्रत्यक्ष देखकर इस बात की पुष्टि की और तब जाकर रावण को इसकी सूचना दी। अपने पुत्र के भयानक वध का भीषण समाचार सुनकर रावण शोक से मूर्च्छित हो गया। बहुत समय के बाद होश में आने पर वह दीनतापूर्वक विलाप करने लगा। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे और वह क्रोधित होकर अपने दाँत पीसने लगा। उसकी भयानक लाल आँखें देखकर सब राक्षस भय से काँप उठे। एक तो रावण स्वभाव से ही क्रोधी था। अब पुत्र के वध का समाचार सुनकर उसका क्रोध और बढ़ गया। अतः अब उसने सीता को भी मार डालने का निश्चय किया।
राक्षसों के बीच खड़ा होकर उसने कहा, “निशाचरों! मैंने भीषण तपस्या करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया था। उनकी कृपा से मुझे देवताओं और असुरों से कोई भय नहीं है। मेरे पास ब्रह्माजी का दिया हुआ कवच है, जो सूर्य के समान चमकता रहता है। वज्र के प्रहार से भी वह टूट नहीं सकता। ब्रह्माजी ने मुझे बाण और एक विशाल धनुष भी दिया है। यदि मैं रणभूमि में खड़ा हो जाऊँ, तो साक्षात् इन्द्र भी युद्ध में मुझे हरा नहीं सकता। मेरे पुत्र ने वानरों को भ्रमित करने के लिए माया से सीता की एक आकृति बनाई और उसका झूठा वध किया। आज मैं उस झूठ को सच कर दिखाऊँगा और उस राम में अनुराग रखने वाली सीता का वध कर डालूँगा।”
ऐसा कहकर उसने तलवार हाथ में उठा ली और पत्नी व मन्त्रियों से घिरा हुआ रावण उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ सीता जी को रखा गया था। सीता जी को देखते ही वह उनका वध करने के लिए दौड़ पड़ा। उसके सुहृद राक्षस उसे रोकने के लिए भागे।
यह देखकर सीता जी के मन में अनेक विचार आने लगे कि ‘यह दुर्बुद्धि राक्षस जिस प्रकार कुपित होकर मेरी दौड़ रहा है, उससे लगता है कि यह अवश्य ही आज मुझे मार डालेगा। मैं अपने पति से प्रेम करती हूँ, फिर भी इसने कई बार मुझ पर दबाव डाला कि ‘तुम मेरी भार्या बन जाओ’, किन्तु मैंने सदा ही इसे ठुकराया। संभवतः उससे निराश होकर ही अब यह मुझे मार डालने आया है।’
‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे ही कारण इसने युद्धभूमि में आज श्रीराम व लक्ष्मण को मार डाला हो? यदि मेरे कारण उनके जीवन का नाश हुआ है, तो मेरे जीवन को धिक्कार है। मैंने हनुमान की बात नहीं मानी। मैं उसी समय उसकी पीठ पर बैठकर अपने पति के पास चली गई होती, तो आज इस प्रकार शोक न करना पड़ता। अब पुत्र शोक का समाचार सुनकर मेरी सास पर क्या बीतेगी? उस कुबड़ी मन्थरा को धिक्कार है, जिसके कारण कौसल्या माता को अपने पुत्र की मृत्यु का शोक सहना पड़ेगा।’
यह सोचकर सीता जी दुःख से विलाप करने लगीं।
उसी समय रावण के मन्त्री सुपार्श्व ने आगे बढ़कर उसे रोका। वह रावण से बोला, “राक्षसराज! तुम कुबेर के भाई होकर भी क्रोध के कारण धर्म को तिलांजलि देकर सीता के वध की इच्छा कैसे कर रहे हो? विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेदविद्या का अध्ययन करके तुम गुरुकुल से स्नातक बनकर निकले थे। तबसे तुम सदा अपने कर्तव्य का पालन करते हो, फिर तुम आज अपने हाथ से एक स्त्री का वध करना कैसे उचित समझ रहे हो? तुम युद्ध में चलकर अपना क्रोध राम पर उतारो।”
“आज कृष्णपक्ष की चतुर्दशी है। अतः आज युद्ध की तैयारी करके तुम कल अमावस्या के दिन तुम सेना के साथ विजय के लिए प्रस्थान करो। अपने श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होकर खड्ग हाथ में लेकर युद्ध करो। राम का वध करके तुम सीता को अवश्य पा लोगे।”
अपने मित्र सुपार्श्व की बाण मानकर रावण रुक गया और अपने महल में वापस लौट गया। फिर अपने सुहृदों के साथ उसने राजसभा में प्रवेश किया।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

Related Articles

Leave a Comment