Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड अंतिम भाग
सीता जी का यह अपमान देखकर लक्ष्मण को बहुत क्रोध आया किन्तु श्रीराम ने संकेत में उन्हें कुछ समझाया और तब लक्ष्मण ने सीता के लिए के लिए चिता तैयार कर दी। श्रीराम वहीं सिर झुकाए खड़े थे। उनकी परिक्रमा करके सीताजी प्रज्वलित अग्नि के पास गईं और हाथ जोड़कर उन्होंने अग्निदेव से कहा, “मेरा चरित्र शुद्ध है, फिर भी श्रीराम मुझ पर संदेह कर रहे हैं। यदि मैं निष्कलंक हूँ तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें।”
ऐसा कहकर उन्होंने अग्नि की परिक्रमा की और वे उस जलती आग में कूद पड़ीं। यह देखकर सब लोग हाहाकार करने लगे। श्रीराम की आँखों में भी आँसू आ गए। उसी समय अनेक देवताओं के साथ स्वयं ब्रह्माजी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने श्रीराम को समझाया, “आप तो स्वयं नारायण हैं और सीता साक्षात लक्ष्मी हैं। रावण का वध करने के लिए ही आपने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था। इन सब बातों को भूलकर आप सीता पर संदेह कैसे कर रहे हैं?”
तभी वृद्ध अग्निदेव स्वयं सीता को लेकर चिता से बाहर निकले और उन्होंने कहा, “श्रीराम! आपकी धर्मपत्नी सीता ने मन, वचन, बुद्धि से सदा केवल आपका ही विचार किया है। रावण की कैद में अनेक कष्ट सहकर भी यह केवल आपकी आशा में जीवित रही। इसका चरित्र सर्वथा शुद्ध है। अतः मैं आपको आज्ञा देता हूँ कि आप इसे सादर स्वीकार करें तथा कभी भी इससे कोई कठोर बात न कहें।”
यह सुनकर श्रीराम के आँसू छलक आए। वे अग्निदेव से बोले, “भगवन्! सीता के प्रति मेरे मन में तनिक भी संदेह नहीं था। जिस प्रकार सूर्य से उसकी प्रभा अलग नहीं हो सकती, उसी प्रकार मुझसे भी सीता कभी अलग नहीं हो सकती। मेरा और उसका हृदय एक ही है। परन्तु अन्य लोग यह सब नहीं समझ सकते। यदि मैं सीता को देखते ही प्रसन्न होकर उसे अपना लेता, तो यही लोग कहते कि दशरथ का पुत्र राम बड़ा मूर्ख और कामी है। लोगों को सीता की पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिए ही मुझे ऐसा करना पड़ा।”
यह कहकर श्रीराम बड़े प्रेम से सीता जी से मिले। फिर महादेव ने उन्हें बताया कि “आपके पिता दशरथ भी इन्द्रलोक से यहाँ आए हुए हैं।” तब श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने दशरथ जी को भी प्रणाम किया। वे अत्यंत प्रसन्न हुए और सबको आशीर्वाद देकर लौट गए। फिर देवराज इन्द्र के पूछने पर श्रीराम ने उस युद्ध में हताहत हुए सब वानरों को पुनः जीवित एवं स्वस्थ कर देने का वरदान माँगा। इसके बाद सब देवता अपने लोक को लौट गए।
अगले दिन श्रीराम विभीषण से बोले, “मित्र! यहाँ का मेरा कार्य अब पूर्ण हो गया है। अतः यहाँ ठहरना मेरे लिए अब उचित नहीं है। मेरा मन भरत से मिलने को व्याकुल है। तुम उसका कुछ उपाय करो क्योंकि अयोध्या तक पैदल पहुँचने में तो बहुत समय लगेगा।”
यह सुनकर विभीषण ने तुरंत ही पुष्पक विमान बुलवाया। उसे देखकर श्रीराम व लक्ष्मण को बड़ा विस्मय हुआ। फिर श्रीराम ने विभीषण से विदा लेते हुए कहा, “मित्र! इन सब वानरों ने युद्ध में बड़ा परिश्रम किया है। अतः तुम रत्न और धन आदि देकर इन सबका भी सत्कार करना।”
फिर उन्होंने सुग्रीव को भी किष्किन्धा लौट जाने की आज्ञा दी। तब विभीषण ने कहा, “श्रीराम! हम सब भी आपके राज्याभिषेक के लिए अयोध्या चलना चाहते हैं।”
श्रीराम ने सहर्ष इसकी अनुमति दे दी। तब उन सबको लेकर वह विमान आकाश में उड़ चला। आकाश-मार्ग से जाते समय श्रीराम ने सीता जी से कहा, “विदेहनन्दिनी! त्रिकूट पर्वत के शिखर पर विश्वकर्मा की बनाई हुई इस सुन्दर लंकापुरी को देखो। उस युद्धभूमि को देखो, जहाँ रक्त और मांस का कीचड़ जमा हुआ है। वह देखो, उधर रावण राख का ढेर बनकर सोया हुआ है। तुम्हारे लिए ही मैंने इसका वध कर डाला। वह समुद्र के ऊपर नल वानर का बनाया हुआ सेतु दिख रहा है। वह कठिन सेतु भी मैंने तुम्हारे लिए ही बनवाया था।”
इस प्रकार सब स्थानों को देखते हुए वे लोग आगे बढ़ते रहे। मार्ग में सीता के कहने पर उन्होंने किष्किन्धा में रुककर सुग्रीव की पत्नियों और अन्य वानर स्त्रियों को भी साथ ले लिया। फिर आगे बढ़ते हुए वे लोग प्रयाग में संगम तट पर भरद्वाज मुनि के आश्रम में आ पहुँचे। श्रीराम ने उनसे अयोध्या का और भरत का कुशल-क्षेम पूछा।
इसके बाद श्रीराम ने हनुमान जी से कहा, “हनुमान! समस्त सुखों, हाथी, घोड़ों और रथों से भरपूर समृद्ध राज्य मिलने पर किसका मन नहीं पलट सकता? अतः तुम शीघ्र जाकर अयोध्या की स्थिति का पता लगाओ। शृङ्गवेरपुर में निषादराज गुह से भी मिलना और भरत का समाचार पूछना। फिर तुम भरत से मिलना। उसे सीता के अपहरण से लेकर रावण के वध तक का सब घटनाक्रम भी बताना। तुम भरत से कहना कि ‘श्रीराम अपने शत्रुओं को जीतकर, राक्षसराज विभीषण, वानरराज सुग्रीव तथा अपने अन्य महाबली मित्रों के साथ अयोध्या आ रहे हैं।’”
“यह कहते समय तुम भरत की मुख-मुद्रा पर तुम विशेष ध्यान देना और मेरे प्रति उसके विचार जानने की चेष्टा करना। यदि कैकेयी की संगति अथवा दीर्घकाल तक राज्य-वैभव का सुख भोगने के कारण भरत का मन बदल गया हो, तो ऐसा राज्य मुझे नहीं लेना है।”
यह सुनकर हनुमान जी मनुष्य रूप धारण करके तीव्रगति से अयोध्या की ओर उड़े। शृङ्गवेरपुर में निषादराज गुह से मिलकर वे शीघ्र नन्दीग्राम के पास आ पहुँचे। वहाँ उन्होंने चीर-वस्त्र और मृगचर्म धारण किए हुए आश्रमवासी भरत को देखा। भाई के वनवास से वे बहुत दुःखी और दुर्बल दिखाई दे रहे थे। उनके सिर पर जटा बढ़ी हुई थी और तपस्या ने उन्हें दुबला कर दिया था। इन्द्रियों का दमन करके वे बड़े संयम से रहते थे और श्रीराम की चरणपादुकाओं को सिंहासन पर रखकर शासन संभालते थे।
भरत को प्रणाम करके हनुमान जी ने अपना परिचय दिया और श्रीराम के आगमन का वृत्तांत सुनाया। यह सुनते ही भरत आनंदविभोर हो गए। प्रसन्न होकर उन्होंने हनुमान जी को गले लगा लिया और उनकी आँखों से हर्ष के आँसू बहने लगे। तुरंत ही उन्होंने शत्रुघ्न को श्रीराम के स्वागत की तैयारी करने की आज्ञा दी। दशरथ जी की रानियाँ भी वहाँ आ गईं। तभी सामने से आता हुआ पुष्पक विमान भी दिखाई दिया।
श्रीराम को देखते ही भरत ने विनीत भाव से उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। फिर श्रीराम की आज्ञा से कुबेर का वह विमान कुबेर को ही लौटा दिया गया। इसके बाद भरत ने कहा, “श्रीराम! आपका राज्य मेरे पास धरोहर के रूप में था, वह आज मैं आपको लौटा रहा हूँ। मेरे जीवन का मनोरथ आज पूर्ण हुआ।”
फिर शत्रुघ्न की आज्ञा से कुशल नाई बुलवाए गए और श्रीराम की जटाएँ निकलवाई गईं। इसके बाद श्रीराम ने स्नान किया और सुन्दर पुष्पमाला, अनुलेपन, पीताम्बर, आभूषण आदि धारण करके वे एक रथ पर आरूढ़ होकर अयोध्या की ओर चले। स्वयं भरत ने सारथी बनकर रथ की बागडोर संभाल रखी थी। शत्रुघ्न ने छत्र पकड़ा और लक्ष्मण तथा विभीषण दोनों ओर चँवर लेकर खड़े हो गए। सुग्रीव और अन्य सब वानर भी मनुष्य रूप धारण करके हाथियों पर बैठे हुए थे। श्रीराम को देखते ही सब अयोध्यावासी उनकी जय-जयकार करने लगे।
अब राज्याभिषेक की तैयारी आरंभ हुई। सुग्रीव ने चार श्रेष्ठ वानरों को सोने के चार घड़े देकर समुद्र का जल लेकर आने की आज्ञा दी। जाम्बवान, हनुमान जी, गवय और ऋषभ जाकर चारों महासागरों से व अनेक नदियों से सोने के कलश भरकर अगले दिन लौट आए।
फिर श्रीराम और सीता जी को रत्नों से सजी एक चौकी पर बिठाया गया। वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप, कात्यायन, सुयज्ञ, गौतम और विजय, इन आठ मंत्रियों ने सुगन्धित जल से उन दोनों का अभिषेक करवाया। सबसे पहले औषधियों के रसों द्वारा ऋत्विज ब्राह्मणों ने अभिषेक किया, फिर सोलह कन्याओं ने और फिर मन्त्रियों ने अभिषेक किया। तत्पश्चात अनेक योद्धाओं एवं व्यापारियों ने भी उनका अभिषेक किया।
अब वसिष्ठ जी ने अन्य ब्राह्मणों के साथ मिलकर रत्नों से सजे हुए एक सुन्दर मुकुट व अन्य सुन्दर आभूषणों से श्रीराम को अलंकृत किया। सोने का वह सुन्दर मुकुट ब्रह्माजी ने स्वयं बनवाया था। फिर शत्रुघ्न ने एक सफेद छत्र रखा और सुग्रीव तथा विभीषण चँवर लेकर दोनों ओर खड़े हो गए। इस अवसर पर वायुदेव ने सौ स्वर्ण कमलों से बना हुआ एक दिव्य हार और अनेक प्रकार के रत्नों एवं मणियों से विभूषित मुक्ताहार श्रीराम को भेंट किया।
अपने राज्याभिषेक के अवसर पर श्रीराम ने एक लाख घोड़े, एक लाख गाएँ, स्वर्ण मुद्रिकाएँ, बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण एवं बहुत-सी अन्य सामग्री दान में दी। सुग्रीव को उन्होंने सोने की एक सुन्दर माला भेंट की तथा अंगद को दो अंगद (बाजूबन्द) भेंट में दिए। वायुदेव ने जो सुन्दर मुक्ताहार दिया था, वह श्रीराम ने सीता जी के गले में डाल दिया। तब सीता जी ने श्रीराम को संकेत किया कि वे यह हार उपहार में हनुमान जी को देना चाहती हैं। तब उनकी सहमति से कजरारे नेत्रों वाली सीता जी ने वह हार बुद्धि, यश, विनय, नीति, पुरुषार्थ व पराक्रम के धनी हनुमान जी को दे दिया। उस हार से हनुमान जी की शोभा और भी बढ़ गई।
इस प्रकार श्रीराम ने सबका यथायोग्य सत्कार किया। उनके राज्याभिषेक को देखने के बाद सुग्रीव, हनुमान जी, जाम्बवान, मैन्द, द्विविद आदि सब वानर किष्किन्धा को लौट गए। विभीषण भी अपने निशाचर साथियों के साथ लंका लौट गया। उन सबके लौट जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! तुम अयोध्या के युवराज बनकर मेरे साथ इस राज्य को संभालो।” परन्तु बार-बार कहने पर भी लक्ष्मण ने युवराज पद स्वीकार नहीं किया। उनके आग्रह पर श्रीराम के भरत को युवराज बनाया। इस प्रकार अपने राज्य की उचित व्यवस्था करके श्रीराम ने अपने भाइयों के साथ अनेक वर्षों तक शासन किया।
श्रीराम सबसे श्रेष्ठ राजा थे। उनके राज्य में सदा न्याय होता था, कहीं भी चोर-लुटेरों का नाम तक सुनाई नहीं पड़ता था। सब लोग निर्भय होकर जीते थे। कोई मनुष्य झूठ नहीं बोलता था और अनैतिक कार्य नहीं करता था। चारों वर्णों के लोग श्रीराम के राज्य में सदा प्रसन्न रहते थे। श्रीराम स्वयं भी निष्ठापूर्वक धर्म का पालन करते थे और उनकी प्रजा भी सदा धर्म में तत्पर रहती थी।
समस्त संसार को श्रीराम के इस आदर्श जीवन का परिचय देने के लिए ही महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम की विजय के इस रामायण महाकाव्य की रचना की। नित्य इसका पठन-श्रवण करने से मन प्रसन्न रहता है और व्यक्ति पाप के विचारों से दूर रहकर अच्छे कार्यों की ओर प्रवृत्त होता है। जय श्री राम!
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)
सम्पूर्ण रामायण समाप्त

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