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पीआर व माइंडसेट का खेल

विवेक उमराओ

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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बहुत वर्षों पहले जिस दिन मैं पहली बार रायपुर से दक्षिण बस्तर तक जाने वाली बस में बैठा था, उसके कुछ दिन पहले ही माओवादियों ने यात्रियों वाली बस को रोककर आग लगा दी थी। रायपुर में मुझसे लोगों ने कहा कि यदि बस्तर में आपके बहुत मित्र होते तब भी आपको कतई नहीं जाना चाहिए, आप हैं कि वहां किसी को जानते नहीं, कोई परिचित नहीं, किसी के साथ किसी भी प्रकार का कोई संपर्क तक नहीं। कोई अपरिचित तक भी ऐसा नहीं था जो मुझे जानना-पहचानना तो दूर, मेरा नाम भी कभी किसी से सुना हो।
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आप वहां जाएंगे तो कहां रहेंगे, कहां खाएंगे, किससे मिलेंगे। बहुत ही अधिक खतरनाक इलाका है, रायपुर की बात छोड़िए जगदलपुर व गीदम इत्यादि में रहने वाले लोग तक तो अंदरूनी इलाकों में जाते नहीं हैं, घूमने-घामने जाने की बात अलग है।
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लेकिन मैं बस्तर संभाग के माओवाद से ग्रस्त आदिवासी इलाकों में गया, न सिर्फ गया, बल्कि वहां महीनों रहा और सैकड़ों गांवों में गया। अंदर के इलाकों में घुस-घुस कर गया, लोगों से मिला उनसे बातचीत की, उनकी स्थितियों को समझा। उन दिनों माओवादी दहशत कायम करने के लिए आम-लोगों से भरी बसों को रास्ते में रोककर आग लगा दिया करते थे। पुलिस की उपस्थिति बहुत कम थी, थानों में पुरानी घिसी-पिटी बंदूकें होती थीं, माओवादी थानों को लूट लिया करते थे।

जिला मुख्यालय तक में मोबाइल टावर, पेट्रोल पंप नहीं होते थे। इक्का-दुक्का लोगों के पास मोटरसाइकिल हुआ करती थी, पेट्रोल भरवाने के लिए एक से दो लीटर पेट्रोल फूंकना पड़ता था पेट्रोल पंप तक आना-जाना करने के लिए।
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मोबाइल पर बात करना हो तो अलग से योजना बनानी पड़ती थी कि फलाने दिन फलाने समय पर इतने किलोमीटर दूर जाकर मोबाइल टावर मिलने पर बात की जाएगी या SMS भेजा जाएगा। इंटरनेट के बारे में तो कल्पना करना भी बेमानी। मोबाइल भी बिना फोटो वीडियो वाले होते थे। बात हो जाए, SMS किसी तरह सेंड हो जाए, बहुत बड़ी उपलब्धि होती थी। कभी-कभी तो एक-एक घंटे के प्रयासों के बावजूद SMS सेंड तक नहीं होता था। कोई हमें SMS भेजे तो गारंटी नहीं कि हमको डिलीवर होगा ही, अधिकतम टाइम-लिमिट ही एक्सपायर हो जाती थी।
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सरकार या फंडिंग एजेंसी या मीडिया-हाउस नहीं खड़ा था। मैं किसी सरकार, कंपनी या मीडिया या NGO का वेतनभोगी कर्मचारी नहीं था, व्यवसायिक संबंध नहीं था। मेरा अपना ऐसा कोई प्रोजेक्ट नहीं था जिसको फंडिंग मिलने के कारण बस्तर के आदिवासी इलाकों में जाना पड़ा हो, जब मेरी कोई NGO ही नहीं थी तो मेरा कोई फंडेड-प्रोजेक्ट होने का दूर-दूर तक कोई सवाल ही नहीं था।
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मैं किसी मीडिया-हाउस से नहीं जुड़ा था जो मुझे फोटो, आडियो, वीडियो, लेख इत्यादि के लिए पैसे मिलने हों। मेरे पास हजारों फोटो, हजारों वीडियो हैं, अंदर की बहुत जानकारियां हैं आथेंटिक जानकारियां हैं, वहां की स्थितियों के बारे में मौलिक समझ है। लेकिन आज तक एक को भी किसी मीडिया हाउस को नहीं बेचा, एक रुपया नहीं अर्जित किया।
माओवादियों के पास तगड़ा पीआर नेटवर्क रहा है। पैसे की कमी नहीं रही, हजारों करोड़ रुपए प्रतिवर्ष केवल बस्तर से। इतना रेवेन्यू जनरेट करने के बाद भी माओवादियों ने आदिवासी समाज के विकास के लिए धेला कुछ नहीं किया (कुछ फर्जी चोचलेबाजी जरूर कर दी। वैसे ही जैसे कई हजार स्कूल हों और दो-चार स्कूलों में रंगाई पुताई करवा दी जाए, पंखे व शौचालय लगवा दिए जाएं और ढोल पीटा जाए कि दुनिया का सबसे बेहतरीन शिक्षा माडल, और लोग-बाग ताली पीटने को अपनी जागरूकता, परिवर्तन-कारिता होना मानें, इस पर अहंकार भी करें)।
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माओवाद ने लंबे समय से बाल-संघम, नाट्य-संघम इत्यादि खूबसूरत नामों से हत्यारे ट्रेन करने के ट्रेनिंग कैंप जमाने से खोल रखे थे। उनका एजेंडा था कि हर एक आदिवासी परिवार से कम से कम एक लड़का लड़की इन कैंपों में कुछ-कुछ सालों के लिए रहे, ताकि हर एक परिवार में उनका एक जासूस हो, हर एक परिवार उनके नियंत्रण में हो। जो परिवार विरोध करते, उनकी हत्या कर दी जाती। हजारों परिवार जंगल व अपने घर छोड़कर भागने को विवश हुए, भिखारियों सा जीवन जीने को अभिशप्त हुए।
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माओवाद का पीआर तगड़ा, व्यवस्थित व अच्छे से गढ़ा गया कि जिन लोगों को जमीनी हकीकत की असलियत पता नहीं, जो पता भी वह भयंकर मैनीपुलेटेड, ये लोग भी जाने अनजाने जुट गए माओवाद के समर्थन में।
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माओवादियों ने ऐसे परिवार तैयार किए जो मुख्यधारा से आने वाले पत्रकारों, लेखकों इत्यादि को अपने घरों में होस्ट करते। जब तक सोशल मीडिया नहीं आया था, तब तक NGO वाले प्राथमिक माध्यम थे। मुख्यधारा के इन लोगों को अहंकार के साथ यही लगता रहा, आज भी लगता है कि ये बस्तर व माओवाद की जमीनी हकीकत समझते हैं। इन लोगों ने खूब लेख लिखे, खूब किताबें लिखी। और भी बहुत कुछ हुआ। परिणामतः मुख्यधारा के लोगों का माइंडसेट वैसा ही बनता रहा जैसा माओवादी चाहते रहे।
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तानाशाही व्यवस्थाएं सूक्ष्म व बहुत गहरे माइंडसेट का खेल खेलती हैं, सच लगने वाले तथ्य गढ़े जाते हैं। एक तानाशाही का समर्थन व दूसरी तानाशाही का विरोध जैसा कुछ नहीं होता। तानाशाही, तानाशाही होती है, प्रकार नहीं होते हैं।
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