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स्त्री का स्वाभिमान और सम्मान

मधुलिका शची

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80 के दशक में या उससे पहले पैदा होने वाले अधिकतर पुरुष , माँ को तभी तक समय देते थे जब गोद मे थे दूध पीना था जैसे ही बड़े हुए इनका अधिक समय दोस्तों के साथ बीतने लगा या फिर किसी विशेष कार्य के तहत पिता से बात किया करते थे।
इन्हें कहाँ से पता चलेगा कि एक स्त्री का भी स्वाभिमान होता है , उसकी भी कुछ शिकायते हैं, उसे भी वो व्यंग्य चुभते हैं जिनपर तुम अहंकार से गर्व करते हो और सच में या मजाक में ही सही उसे अनपढ़ , गँवार कह देते हो , उसकी भी कुछ पीड़ा है जो उसने अपने आंसुओं से समेटकर अपने हृदय में छिपा रखा है…
बहन से भी बात करने का समय इनके पास नहीं होता था। चारों तरफ से पुरुषवादी सोच, प्रतिक्रिया से जुड़े रहे और यही कारण है इन्हें प्रभाव में रखना, स्वामी बनना अधिक पसंद है।
ये स्त्री को एक ही बात बार बार सुना सकते हैं पर स्त्री ने पलटकर इन्हीं की भाषा में जवाब दे दिया तो इनका अहंकार घायल हो जाता है, जिन बातों का अहसान पुरुष सदैव जताता आया है अगर पलटकर स्त्री ने भी अपने अहसान गिना दिया तो झुंड बनाकर एक हो जाते हैं और पूरी ताकत से प्रहार करने लगते हैं…..
ऐसे पुरुषों की प्रतिक्रिया ऐसे होती है जैसे ब्रिटिश सरकार अपने अहसान भारतीयों को गिनाती थी ,मतलब मेरी बात मानो नहीं तो मैं तुमपर फेमिनिष्ट होने का तोप चला दूंगा और अपनी खोपड़ी को तनिक भी ठोक पीटकर नहीं देखते कि आप में कितना पुरुषवादी सत्ता का जाल फैला है उसे ठीक करने की कोशिश के बजाय चुप कराने की कोशिश करोगे तो यह जान लो…
अंधी अतिवादी पुरुषवादी सोच से ही जन्म होता है फेमिनिज्म का…!! फेमिनिज्म आपके ही अतिवादी सोच का परिणाम है ….ये कहीं आसमान से नहीं आयी है

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