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किस ‘शब्द’ से सिया को लंका में मिल गए थे राम …

रूद्र प्रताप दुबे

by Rudra Pratap Dubey
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रामचरित मानस के सुन्दरकाण्ड में पहली बार हनुमान जी और माता सीता की भेंट होती है। ये भेंट इतनी सामान्य नहीं थी। दोनों एक दूसरे से पूर्ण अपरिचित, दोनों ऐसी जगह मिल रहे हैं जो पूरी तरह मायावी है और ऐसे समय में मिल रहे हैं जहाँ पर माँ सीता का विश्वास हिल चुका है क्यूँकि उनके सामने ही सुन्दर स्त्री बाद में शूर्पणखा बन चुकी थी, सोने का हिरन वास्तव में मारीच था, भिक्षा माँगने वाला साधू रावण था और लंका में तो निशाचर लगातार रूप ही बदलते दिखते थे।
ऐसे समय जब हर जगह भ्रम, हर जगह अविश्वास, हर जगह शंका वहाँ पर एक पूर्ण अपरिचित वानर ऐसा क्या करे जिससे माता को ये विश्वास दिला सके कि उन्हें प्रभु श्री राम के द्वारा ही भेजा गया है। अविश्वास की इस कठिन परीक्षा में हनुमान जी कैसे सफल हुए…आइये जानते है 

रामचरित मानस के सुन्दरकाण्ड में पहली बार हनुमान जी और माता सीता की भेंट होती है। ये भेंट इतनी सामान्य नहीं थी। दोनों एक दूसरे से पूर्ण अपरिचित, दोनों ऐसी जगह मिल रहे हैं जो पूरी तरह मायावी है और ऐसे समय में मिल रहे हैं जहाँ पर माँ सीता का विश्वास हिल चुका है क्यूँकि उनके सामने ही सुन्दर स्त्री बाद में शूर्पणखा बन चुकी थी, सोने का हिरन वास्तव में मारीच था, भिक्षा माँगने वाला साधू रावण था और लंका में तो निशाचर लगातार रूप ही बदलते दिखते थे।
ऐसे समय जब हर जगह भ्रम, हर जगह अविश्वास, हर जगह शंका वहाँ पर एक पूर्ण अपरिचित वानर ऐसा क्या करे जिससे माता को ये विश्वास दिला सके कि उन्हें प्रभु श्री राम के द्वारा ही भेजा गया है। अविश्वास की इस कठिन परीक्षा में हनुमान जी कैसे सफल हुए, इसे जानने के लिए आपको थोड़ा पीछे लेकर चलता हूं।

तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरित मानस में ये ज्ञात होता है कि भगवान श्रीराम और सीता जी विवाह से पहले जनकपुर के पुष्प वाटिका में मिल चुके थे। घटना बताती है कि गुरू वाल्मीकि को पूजा के लिए पुष्पों की आवश्यकता थी और गुरु की आज्ञा से ही श्रीराम वाटिका में पुष्प लाने गये थे। माता सीता भी उस समय वाटिका में उपस्थित थीं। जब श्री राम और सीता जी ने पहली बार एक दूसरे को देखा, उसी क्षण सीता जी ने श्रीराम को मन से पति के रूप में स्वीकार कर लिया।

अब दूसरी चिंता ये आ गई कि सीता जी को उसी समय ध्यान आया कि पिता द्वारा रखी गयी शिव धनुष भंग की शर्त को यदि किसी अन्य ने पूरा कर दिया तो राम उन्हें पति रूप में नहीं प्राप्त हो पाएंगे। इस व्यग्रता से उबरने के लिए सीता जी अपनी अराध्य देवी माँ पार्वती की शरण में गयी। चिंतित सीता जी की मनोदशा को समझना माँ पार्वती के लिए अत्यंत सरल था। वो समझाती हैं, यदि तुमने मन से चाह लिया तो राम ही तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे।

तुलसीदास जी ने इस पूरे संदर्भ को दोहे में स्पष्ट करते हैं, ‘करुणानिधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।’
माँ पार्वती सीता जी को समझाते हुए कहती हैं कि श्रीराम करुणानिधान, शीलवान और सर्वज्ञ हैं। वह सब जानते हैं। इसके बाद माँ पार्वती सीता जी को अपना स्नेह प्रदान करते हुए कहती हैं कि तुम्हारे साथ अब मेरा भी आशीर्वाद है
‘सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।’

बालकाण्ड की इस चौपाई को पढ़ कर ही आप समझ जाएंगे कि माँ पार्वती सीता जी से कहती हैं कि ‘तुमने मन में जिसे बिठाकर पूजा की है वही सहज, सुन्दर, सांवरा वर तुम्हें प्राप्त होगा।

इस पूरे प्रसंग में एक जरुरी बात ये हुई कि माँ पार्वती ने जब श्रीराम के गुणों का वर्णन किया तो उसमें एक गुण ‘करुणानिधान’ बताया। सीता जी को मां पार्वती का ये शब्द इतना पसंद आया कि उन्होंने इस शब्द को नाम के रूप में ही अपना लिया और विवाह के पश्चात वो प्रभु श्री राम को इसी नाम से सम्बोधित करती थीं। इसके बाद के समय काल में प्रभु के जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आये। महल छूटा, पिता जी देह त्याग गए और फिर सीता का भी अपहरण हो गया।

प्रसंग को अब उस समय में लाते हैं, जब माता सीता का पता लगाने के लिए हनुमान जी लंका जाने लगे और उस समय श्रीराम ने हनुमान जी को अपने पास बुलाया। प्रभु कहते हैं कि मेरी मुद्रिका लेकर जाओ, इसको सीता को देना इससे वह तुम्हें मेरा दूत मान लेगी। हनुमान जी बोले, प्रभु यदि इससे भी माता न मानी तो क्या करुँगा ! इस पर श्रीराम हनुमान जी से बोले, कि सीता मुझे ‘करुणानिधान’ के नाम से बुलाती है और यह बात मात्र उन्हें और मुझे ही मालूम हैं। यह बात तुम सीता को कहना कि आपके करुणानिधान ने यह मुद्रिका दी है तो सीता पूर्ण विश्वास कर लेगी और तुम्हें मेरा दूत मान लेगी।

अब, जब हनुमान जी लंका की अशोक वाटिका पहुंचते हैं और माता सीता को देखकर रामगुण गाते हैं और मुद्रिका को उनके सामने फेंक देते हैं तब माता पुकारती हैं, यह कौन गा रहा है और मेरे सामने क्यों नहीं आ रहा। माता को चिंतित देखकर हनुमान जी मसक रूप में उनके सामने आते हैं और उन्हें देखते ही माता सीता भय से अपना चेहरा छुपा लेती हैं। उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि एक इतना छोटा वानर प्रभु की मुद्रिका लेकर उनका पता लगाने आ सकता है।

विश्वास की इस परीक्षा में असफल होने की कगार पर खड़े हनुमान जी को सहसा ही प्रभु के वचन याद आते हैं और वो बोल उठते हैं, ‘राम दूत मैं मातु जानकी, सत्य शपथ करुणा निधान की’

हनुमान जी ने कहते हैं, ‘माता जानकी, मैं श्री राम का ही दूत हूं और ये बात मैं करुणानिधान की सत्य शपथ खाते हुए कह रहा हूं।’

अब क्या था! बिछड़े हुए शब्दों ने विश्वास की माला जोड़ दी। वो काम जो व्यक्ति, वस्तु नहीं कर पा रही थी उसे एक शब्द ने कर दिया। सुन्दर पर्वत के नाम से प्रारम्भ हुआ सुन्दरकाण्ड अगर पाठकों के लिए वास्तव में सुन्दर हुआ तो वह करुणानिधान की वजह से ही हो पाया।

 

 

 

Written By -रूद्र प्रताप दुबे

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