RRR देखा…
किन्तु!!
शानदार
सुपर से भी ऊपर
100/100 जैसी परम्परागत टिप्पणियों के साथ ही हाजिर हूं… चाहता तो कुछ समीक्षा भी लिख सकता था लेकिन इस क्षेत्र के मेरे कुछ काबिल मित्र अपनी दर्जनों कलम कुर्बान कर चुके हैं। ऐसे में मैं RRR पर कुछ लिखूं इससे पहले एक कहानी सुनें!
मेरे पड़ोस में एक चाचा रहते थे। पटाखा प्रेमी थे। दीपावली में जब वो अपने पटाखे का पिटारा खोलते तब मुहल्ले के सभी लोग अपनी मिर्ची बम और छुरछुरी छोड़, चाचा की आतिशबाजी और लाइट का आनन्द लेते।
बताइए जहां सात आवाज़ वाला बम, पांच मीटर की चटाई, तीन इंच त्रिज्या वाली घिरनी, सतरंगी अनार, गगनभेदी आतिशबाजी का नजारा हो वहां मिर्ची बम की क्या बिसात भला!! इसीलिए नहीं लिखता फिल्मी समीक्षाएं..
अब काम की बात-
मित्रों!मुझे RRR मूवी के डायरेक्टर श्री एस एस राजामौली से एक शिकायत है…
फिल्म की शुरुआत में उन्होंने डिस्क्लेमर दिया-उन्होंने अपनी कहानी के काल्पनिक होने का हवाला दिया। जानवरों की हिंसा पर उनका स्पष्टीकरण की फिल्म में दिखाये गये जानवर, कम्प्यूटर ग्राफिक्स के माध्यम से दर्शाये गये हैं तथा उन पर दिखाई गयी क्षति का वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं। इसी तरह टाइटेनिक मूवी में जहाज डूबने एवं यात्रियों के डूबने एवं मरने के उपरांत पूरी टीम को जीवित हालत में एक साथ दिखाया गया। जिससे कि दर्शकों के भीतर हताशा व निराशा का भाव न आये। कोई दर्शक इतनी बड़ी त्रासदी का जीवंत दृश्य देखकर अवसाद में न डूब जाये। खैर मैं ऐसी सतर्कता एवं संवेदना की सराहना करता हूं किन्तु साथ ही साथ एक शिकायत भी दर्ज़ करता हूं।
मित्रों! मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि राजामौली साहब अपनी फिल्मों में जो मर्द दिखाते हैं क्या आम जिंदगी में मर्द इतने फौलादी, जुनूनी और अदम्य साहसी होते हैं??? क्या आम मर्द ऐसे होते हैं जो दस हज़ार की भीड़ को अपने डंडे के दम पर नियंत्रित कर लें.. शेर और भेड़ियों को अपने पीछे दौड़यें!!! मित्रों…यदि जानवरों के मृत्यु या हिंसा पर दर्शकों के दिलों पर प्रभाव पड़ सकता है तो क्या आम घरों की महिलाओं के दिल पर ऐसे मर्दों को देखने के बाद फ़र्क नहीं पड़ता होगा??? क्या वो अपने मरद से ऐसा साहस,जुनून एवं हैरतअंगेज कारमानाओं की उम्मीद नहीं पाल सकतीं..मान लिजिए कोई औरत RRR के रामचरण या जूनियर एन टी आर को देखकर अपने मरद के भीतर उसके ताकत, जोश जुनून का पचासवां हिस्सा ही खोजने लगे तो बताइए एक आम पति किस कम्प्यूटर ग्राफिक्स की मदद से अपनी पत्नी के सामने खुद को पेश एवं प्रमाणित करेगा।
जहां आम आदमी इतना लाचार है कि अपनी पत्नी को दो हज़ार की साड़ी दिला रहा हो तथा बराबर में कोई नामुराद पति तीन हज़ार की दिला दे… तो दो हजारी इत्ते में ही नप जाता है.. ऐसे माहौल में राजामौली के फिल्मी नायकों का इतना ग्लोरियस प्रजेंटेशन बेहद जोखिमपूर्ण है।
भाई! आम आदमी वो होता है जो आधे किलो वजन के चूहे को सामने से नहीं घेर पाता। यदि कमरे की चिटकनी बंद करते वक्त कमरे में बिल्ली बंद हो जाये…मजाल क्या है कि पता लगने के बाद कमरे में किसी को नींद आ जाये। जब तक घुटनों के बल आकर बेड के नीचे झांककर बिल बिल बिल.…. बिलबिलबिलबिलबिल नहीं करेगा…कमरे से खदेड़ नहीं लेगा.. चैन से नहीं बैठेगा। ऐसे आम आदमी के सामने ऐसे फौलादी मर्द की नुमाइश जो शेर को अपनी गर्जना से चुप करा दे। यह तो जुल्म है.. एक गहरी साजिश है।
हम कहते हैं जो भी दिखाना हो दिखायें। लेकिन फिल्म के अन्त में उन शूरवीरों को दर्शकों… खासकर महिला दर्शकों के सामने पेश करें और सभी के द्वारा एक सार्वजनिक कुबूलनामा दिखाया जाये कि-
“हम भी आप सभी के पतियों, प्रेमियों जैसे बिल्कुल आम आदमी हैं। हम भी घर का सिलेंडर पूरी तरह हवा में नहीं उठा पाते। सिलेंडर, फर्श पर लिटा या सरकाकर.. गैस चूल्हे तक ले जाते हैं। हमारे बाजुओं में भी कमोवेश उतनी ही ताकत है जितनी एक आम आदमी के बाजुओं में.. हम मोटरसाइकिल हवा में नहीं उठा सकते…हम किसी अस्सी किलो के आदमी को कंधे पर बिठा नहीं सकते.. बिठाकर युद्ध करना तो दूर की कौड़ी है। हमारा निशाना इतना बुरा है कि साबुन को एक फिट दूर से साबुन दानी में फेंकने पर भी साबुन, साबुन दानी में नहीं टिक पाता.. फिसल कर नाबदान पकड़ लेता है। सब्जी का पांच किलो का थैला इतना भारी लगता है कि पैदल आने में आठ बार हाथ बदलना पड़ता है। सूई लगने के नाम पर सीटी देने लगता है..खंजर भाला तो बड़ी चीज है।
लब्बोलुआब आम आदमी की क्षमता और औकात के हिसाब से फिल्मी पात्र गढ़ा जाये नहीं तो कबूलनामा पेश किया जाये।
आम आदमी की भावनाओं एवं क्षमता का सम्मान हो।