अनिल जी के सौमित्र”, इसी शीर्षक से एक आलेख करीब डेढ़ दशक फहले अनिल जी के बारे में लिखा गया था। इंटरनेट पर खोजें, तो लेख शायद मिल भी जाए। कहना न होगा कि जिसके सैकड़ों मित्र हों, वह खुद दुर्भावना से किसी का अमित्र तो कम से कम नहीं हो सकता। फिर अत्याचार तो दूर की बात है। कानून का दुरुपयोग राजनीति चमकाने और नेतागीरी के लिए कोई नई बात नहीं है।
लेकिन, आग की लपटें घर को छूने लगें तो चुप नहीं बैठा जा सकता। चुप बैठे तो अंजाम क्या होता है, यह कहने की जरूरत नहीं। किसी के भी अपने वैचारिक मत हो सकते हैं, हम सबकी तरह अनिल जी भी इसके अपवाद नहीं हैं, और स्वयं अनिल जी इस बात की घोषणा डंके की चोट पर करते रहें हैं। उन्होंने कभी भी कथित सेकुलर चोले से अपनी राष्ट्रवादी वैचारिकता को ढंकना स्वीकार नहीं किया। राजनीतिक गलियारों के रसूख के बेहद करीब रहने वाले अनिल जी पर कभी भी वह सबकुछ हावी न हो सका, जो अक्सर अतीत के साथियों को भूल जाने का आग्रह करता है। वह हमेशा इसके विपरीतगामी रहे, और अतीत के उन मित्रों को भी मित्र से बढ़कर भाई मानते रहे।
भले ही लंबे समय तक कोई संवाद न हुआ हो। फिर भी वह हमेशा यही कहते रहे-“संपर्क और संवाद बना रहे।” आज सुबह से मन बेचैन है। यह सिर्फ कानून के दुरुपयोग का मामला नहीं है, यह मीडिया के दुरुपयोग का भी मामला है। यह चुनौती उस विचार को भी है, जिसे तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने कभी झुकने नहीं दिया। मैं जानता हूं कि अनिल जी को मुझ गिलहरी के आख्यान की आवश्यकता नहीं है, वह अपना पुल बनाना और पार होना जानते हैं, इस चुनौती से भी जल्द उबरेंगे। लेकिन, हम अपनी गिलहरी वाली भूमिका से पीछे तो नहीं हट सकते।”