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तनिक विश्राम भी कर लिया करें रघुवर

मधुलिका शची

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तनिक विश्राम भी कर लिया करें रघुवर
या चारों पहर आठों याम आप इस संसार की चिंता में ही मगन रहेंगे ..!
मृगनयनी जनकदुलारी सीता को कमलदल लोचन ऐसे प्रेम से निहारने लगते हैं जैसे चंद्र अपनी आभा को निहारता हो..!
सीता जी रघुवर का हाथ पकड़ उन्हें अपने पास बैठने को कहती हैं तो सहज ही रघुनाथ सीता जी के समीप बैठ जाते हैं.!
प्रेम पूर्वक निहारते निहारते धीरे धीरे राम अपनी वामांगी की गोद में सिर रखकर भूमि पर लेट जाते हैं .!
सीता जी रघुवर के मस्तक को प्रेमभाव से सहलाते हुए कहती हैं,
स्वामी ..!
यदि आज्ञा हो तो एक प्रश्न करूँ ..!
रामजी सीता जी की गोद मे लेटे लेटे पलट कर अपना मुख सीता जी की ओर करते हुए , उनकी ठुड्डी को स्पर्श करके उनका मुख अपनी ओर लाते हुए प्रेम से भरी हुई वाणी में कहते हैं ..
हे सीते ….!
तुम मेरी जीवन संगिनी हो , तुम बिना मैं मात्र एक माटी का पुतला हूँ, इस राम के शरीर में जो प्राण वायु है वो तुम हो सीते..!
हे अव्यक्ता , हे भूमिजा …! तुम ही मेरे जीवन के हर प्रश्न का उत्तर हो ..!
भला मैं और तुम विलग अलग कैसे हो सकते हैं ..!
हे आर्या इस समस्त संसार में तुम मुझे अतिशय प्रिय हो
क्योंकि हे अयोनिजा तुम ही मेरा धर्म हो ..!
तुम ही मेरी नित्या हो..!
हे सहचारणी ऐसा कौन सा प्रश्न है जो तुम मुझसे पूँछना चाहती हो जिसका उत्तर तुम स्वयं नही जानती ..!
रघुवर के मुख से ऐसी बात सुनकर सीता जी तनिक लजा गयी और अपने आँचल को समेटने के बाद,
अपने आदिनाथ के केशों को बड़े ही प्रेमभाव से सहलाते हुए मन्द मन्द मुस्कुराते हुए बोली;
नाथ ,..! मैं इस प्रश्न का उत्तर आपके मुख से सुनना चाहती हूँ क्योंकि इससे मुझे आनंद मिलेगा..!
अव्यक्त अपनी अनन्या के इस प्रश्न पर मुस्कुराया और मन ही मन कहने लगा ..।
अहो महाचंचला ..! अपनी चंचलता से मुझे रिझाना चाहती है, अपने प्रेम पाश में बांध कर मुझे प्रेम की सरिता में स्नान करवाना चाहती है,
हाँ सत्य है, प्रकृति शिव के प्रेम में ऐसी उलझी है कि शिव को भी प्रेम राग के गीत गाने को विवश कर देती हैं,
अहा..!
ये कैसा मानवीय आनंद है जो मुझे मेरे शांत चित्त शालिग्राम से नारायण बनाने पर तुला हुआ है ,,
रचना से मुक्त रहने वाला आज प्रेम का शिल्पकार बन कर ऐसी मूर्ति गढ़ना चाहता है जो साक्षात प्रेम की जीवित
मूर्ति हो..!
चैतन्य अपनी अक्षरा से मधुर वाणी में बोला;
प्रश्न करो सीते जिससे तुम्हारे हृदय को शांति मिले और मुझे आंनद की अनुभूति हो .!
सीता जी अपने पल्लू को सिर पर और चढ़ाते हुए शहद से परिपूर्ण वाणी में कहती हैं,
स्वामी , भविष्य में यदि हमारा कभी वियोग हो गया तो क्या आप उस वियोग की अग्नि को सह पाएंगे..!
सीता का इतना कहना भर था कि ऐसा लगा जैसे नक्षत्र टूट कर गिरने लगे हो, जैसे समुद्र में ज्वार भांटा आ गया हो,
मर्यादा की उस मूर्ति की चेतना ठहरने सी लगी जो निर्विकार सब को चैतन्य करता है ,वह स्वयं चेतना शून्य सा होने लगा..;
हृदय तीव्र गति से स्पंदन करने लगा जिससे धरती कंपायमान होने लगी,
यकायक दशों दिशाओं में एक ध्वनि गूंजने लगी ,
ऐसा लगा जैसे अलख निरंजन अपनी ज्योति का त्याग करने वाला हो..
नारायण..! नारायण ….!
मैं भृगु ऋषि अपनी समस्त तपस्या के बल से आपको शाप देता हूँ कि आप मानव भेष में पत्नी वियोग में दर दर भटकेंगे,
नारायण आप पत्नी वियोग में दर दर भटकेंगे,
जैसे मैं अपनी पत्नी के वियोग में तड़प रहा हूँ
वैसे ही आप भी तड़पेंगे..!
राम यकायक निंद्रा से जाग उठे और विरह वाणी से क्रंदन करके पुकार उठे,
कंपित स्वरों से सीता को पुकारने लगे,
सीते …! सीते..!
हे मेरे दुख सुख की सहभागिनी, हे मेरी प्राणप्रिये….!
तुम कहाँ हो सीते ..?
देखो सीते..! मैं तुम्हारे वियोग में यहाँ कैसे तड़प रहा हूँ ..!
सीते मैं इन लताओं, इन वृक्षों से तुम्हारे विषय में पूंछता हूँ तो सब मौन हो जाते हैं..!
कोई कुछ बोलता ही नही सीते ..!
मैं इन वर्षा की जल कणिकाओं से जब पूंछता हूँ कि बता दो मेरी जनक नंदनी कहाँ है .?
मुझे पूर्ण करने वाली मेरी पूर्णा कहाँ है ..!
हे मेघ तुम तो दशों दिशाओं में भ्रमण करते हो तुम्हीं बता दो मेरी वैदेही कहाँ हैं..!
मैं दूर देश से आ रही इन वायु प्रवर्तिकाओं से पूंछता हूँ
हे वायु ..! तुमने अवश्य मेरी सीता को स्पर्श किया होगा तुम्ही बता दो मेरी सीता कहाँ है ..!
सीते..!
तुम्हारे न होने से मैं अर्ध मृत हो चुका हूँ, मैं शक्तिहीन हो चुका हूँ,
हे सुकोमला…! तुम्हारा राम सीता के वियोग में सूखे हुए वृक्ष के समान हो गया है,
हे भद्रे , मेरी प्रतीक्षा करना, तुम्हारा राम अपने प्राण त्याग देगा परन्तु तुम्हारा विस्मरण नही करेगा…!
तीनो लोकों में तुम कहीं भी होगी सौभद्रे मैं तुम्हे शीघ्र ही खोज लूँगा…
हे प्राणप्रिया अब मुझसे तुम्हारा वियोग सहा नही जाता ..!
राम वर्षा की बूंदों को अपनी हथेली में लेते हैं तभी लंका में अशोक वाटिका में वृक्ष की छांव तले बैठी रामप्रिया को ऐसा प्रतीत होता है जैसे उनके राम ने उन्हें स्पर्श किया हो..!
जिससे सीता आंनदित हो उठती हैं और वर्षा की कुछ बूंदों को अपनी अंजुली में भरकर जब उसे अपने मुख से लगाती हैं तो उन्हें ऐसा अनुभव होता है जैसे रामचंद्र जी उनके मुख को अपने हथेली में भर कर अपने प्रेम भाव को दर्शा रहें हो, उनको स्पर्श कर रहें हों..
महलों की रानी खुले आकाश में एक साध्वी के वस्त्र में वर्षा से भीग रही थी और प्रतीक्षा कर रही थी कि एक न एक दिन उसके स्वामी आएंगे और उसके समस्त दुःख दूर हो जायेंगें,
रघुवर के वियोग में वैदेही लता के उस वृक्ष के समान सूखती चली जा रही हैं जिसको उसके प्राण रूपी जल से अलग कर दिया गया हो,
दिन में तपता सूर्य और रात की ठंडक उस सती की ऐसी परीक्षा ले रही थी जैसी परीक्षा आज तक इतिहास में किसी भी नारी ने नही दी,
प्रेम के चकही चकहा दो किनारों पर विवश होकर वियोग में तड़प रहें हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं,
कब ये वियोग से भरी रात्रि बीते …!!!!
कब भोर का आगमन हो जिससे पुनः उनका मिलन हो सके,
अहो ये भोर की प्रतीक्षा ,
क्षण प्रति क्षण साल के समान प्रतीत होते हैं यदि मनुष्य प्रतीक्षा के पाश में बंध जाता है ….!
निशाचरों के राज्य में सीता आस और विश्वास के बल पर स्वयं को जीवित रखे हुए है ताकि उनके रघुवर अपनी सीता को उसी पूर्व रूप में पा सके जिसे एक दुष्ट ने वियोग दिया है,
राघव की चिंता सिया को सता रही थी अन्यथा कब के वह अपने प्राण त्याग कर स्वयं को बंधन मुक्त कर लेती…….
मधुलिका शची

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