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देश के लब्ध प्रतिष्ठित साप्ताहिक #पाञ्चजन्य के ताजा अंक में प्रकाशित लेख

by Pranjay Kumar
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देश के लब्ध प्रतिष्ठित साप्ताहिक #पाञ्चजन्य के ताजा अंक में प्रकाशित लेख। आपकी सुविधा के लिए मूल लेख भी पोस्ट कर रहा हूँ।आप पढ़कर अपनी राय दें तो मुझ अकिंचन को विचारों का वैभव प्राप्त होगा।

कर्नाटक के उडूपी से उठा बुर्क़े और हिज़ाब का विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा। गत वर्ष दिसंबर के आखिरी सप्ताह से शुरु हुई ऐसी माँगें अब कर्नाटक के अन्य स्कूलों-कॉलेजों में भी ज़ोर पकड़ने लगी हैं। ‘हिज़ाब नहीं तो क़िताब नहीं’ जैसे नारे बुलंद किए जा रहे हैं। इनके विरोधस्वरूप कहीं-कहीं बहुसंख्यक समाज के लड़के-लड़कियाँ भी गले में भगवा पट frका और स्कार्फ़ डालकर स्कूल-कॉलेज पहुँचने लगे। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई तक शैक्षिक संस्थानों में इस प्रकार के परिधानों (हिज़ाब या भगवा स्कार्फ़) पर रोक लगाई है और छात्र-छात्राओं को यूनीफॉर्म में स्कूल जाने तथा शैक्षिक संस्थानों को कक्षाएँ शुरु करने की सलाह दी है। निश्चित रूप से न्यायालय इसे संज्ञान में रखते हुए अंतिम निर्णय देगा कि शिक्षा के मंदिरों में इस प्रकार की माँगों का क्या और कितना औचित्य है? ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के प्रकरण पहली बार न्यायालय के समक्ष आए हों। इससे मिलते-जुलते एक मामले में, 15 दिसंबर 2016 को सर्वोच्च न्यायालय ने वायुसेना में नौकरी कर रहे मुहम्मद ज़ुबैर नामक शख़्स की धार्मिक मान्यता के आधार पर दाढ़ी रखने की माँग को ख़ारिज करते हुए अपने एक फ़ैसले में कहा था – ”वेशभूषा से जुड़े नियम और नीतियों की मंशा धार्मिक विश्वासों के साथ भेदभाव करने की नहीं है और न ही इसका ऐसा प्रभाव होता है। इसका लक्ष्य और उद्देश्य एकरूपता, सामंजस्य, अनुशासन और व्यवस्था सुनिश्चित करना है जो वायुसेना के लिए अनिवार्य है। वास्तव में यह संघ के प्रत्येक सशस्त्र बल के लिए है।” सर्वोच्च न्यायालय ने इस फ़ैसले में इस्लाम में दाढ़ी रखने की अनिवार्यता जैसी दलील को ख़ारिज करते हुए वादी को सेवा से निष्कासित किए जाने के आदेशपत्र को सही ठहराया था। विधि विशेषज्ञों की भी यही राय है कि स्कूलों-कॉलेजों, कार्यालयों या किसी भी संस्था को अपना ड्रेसकोड तय करने का अधिकार है। और उसमें अध्ययनरत विद्यार्थियों एवं कार्यरत कर्मचारियों के पास भी यह विकल्प है कि वे वहाँ न जायँ। बुनियादी संस्कारों एवं धार्मिक मान्यताओं के पालन के लिए अपने-अपने घरों, पूजा या प्रार्थना-स्थलों में हरेक को संपूर्ण स्वतंत्रता है, पर चूँकि संस्थाओं में व्यक्ति स्वेच्छा से जाता है, अतः वहाँ लागू ड्रेसकोड, नियम एवं अनुशासन का पालन अपेक्षित है। उनका यह भी मानना है कि भारत जैसे स्वतंत्र, संप्रभु, पंथनिरपेक्ष और संविधान से संचालित देश में मज़हब या पंथ विशेष की रिवाज़ों या प्रथाओं को संस्थाओं पर थोपा नहीं जा सकता। इससे वहाँ अराजकता की स्थिति निर्मित हो जाएगी। ऐसी स्थिति राष्ट्रीय एकता, समता एवं बंधुत्व की भावना को भी बाधित एवं प्रभावित करेगी। बल्कि बहुत से इस्लामिक देशों में भी शिक्षण से लेकर अन्य अनेकानेक संस्थाओं में बुर्क़ा और हिज़ाब प्रतिबंधित हैं। आरिफ़ मोहम्मद खान एवं तमाम इस्लामिक विशेषज्ञों के अनुसार इस्लाम में हिज़ाब और बुर्क़ा अनिवार्य हैं ही नहीं, वहाँ केवल कलमा, नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज की ही अनिवार्यता है। हज भी केवल उन्हीं के लिए अनिवार्य है, जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं।

न केवल वैधानिक अपितु सामाजिक दृष्टि से भी शिक्षण-संस्थाओं में बुर्क़े और हिज़ाब पहनने की ज़िद और जुनून अनुदार एवं प्रतिगामी विचार हैं। मज़हबी कट्टरता और पृथक पहचान की राजनीति को परवान चढ़ाने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल की जा रहीं ये कमउम्र लड़कियाँ शायद नहीं जानतीं कि यही माँगें कल इनके पाँवों की जंज़ीरें बनेंगीं। सनद रहे कि अफगानिस्तान के तालिबानीकरण की कहानी भी ऐसी ही माँगों से प्रारंभ हुई थी और उसकी सर्वाधिक क़ीमत वहाँ की महिलाओं और लड़कियों को ही चुकानी पड़ी है। शरीयत के क़ानून के नाम पर न केवल अफगानिस्तान में बल्कि अन्य अनेक इस्लामिक देशों में भी महिलाओं एवं बच्चियों को अनेकानेक प्रतिबंधों एवं अमानवीय स्थितियों से गुज़रना पड़ा है। कर्नाटक के स्कूलों में हिज़ाब और बुर्क़े जैसी माँगों के लिए समर्थन जुटा रहे और हैशटैग चला रहे छात्र-संगठन ‘कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया’ का संबंध देश-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन ‘पीएफआई’ से है। जमियत उलेमा-ए-हिंद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन जैसे संगठनों का आंदोलनकारी छात्राओं के समर्थन में खुलकर सामने आना, पाकिस्तानी सरकार द्वारा तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करना, इस्लामिक सहयोग संगठन(ओआईसी) का बयान जारी करना और अब याचिकाकर्त्ताओं के वकील देवदत्त कामत द्वारा पाँच राज्यों में हो रहे चुनाव तक सुनवाई को टालने की सिफ़ारिश करना, पर्दे की पीछे की ताक़तों और साज़िशों की ओर पुख़्ता इशारा करता है। आज तक तो बुर्क़े और हिज़ाब के बिना भी मुस्लिम लड़कियाँ स्कूल-कॉलेज जाती रहीं, अचानक उन्हें इसकी अनिवार्यता क्यों महसूस हुई? बल्कि बीसवीं शताब्दी के अंत तक भारत में हिज़ाब का प्रचलन लगभग नगण्य था। हास्यास्पद है कि कुछ लोग सुरक्षा का हवाला देकर इसे जायज़ ठहरा रहे हैं। उन्हें स्कूल-कॉलेजों के क्लासरूम्स में किनसे ख़तरा है, अपने शिक्षकों और सहपाठियों से? यह कितना कमज़ोर एवं लचर तर्क है। जबकि आम, उदार एवं प्रगतिशील मुस्लिम महिलाओं को तो स्वयं यह सोचना चाहिए कि इस प्रकार की रिवाज़ों-प्रथाओं का सहारा लेकर ही उनकी प्रगति की राह में आज तक रोड़े अटकाए जाते रहे हैं, उनकी ऊँची उड़ानों के पर कतरे जाते रहे हैं और उनके अरमानों एवं सपनों का गला घोंटा जाता रहा है। इसे विडंबना ही कहेंगें कि एक ओर जहाँ चारों ओर जंज़ीरें पिघल रही हैं, दिल-दिमाग़ में सदियों से जमी कीच-काई छँट रही है, सींखचे और साँकलें टूट रही हैं, दहलीज़ों की दीवारें लाँघ भारत की करोड़ों बेटियाँ सफलता के नए-नए कीर्त्तिमान स्थापित कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर उदार, आधुनिक एवं आज के वैज्ञानिक दौर में भी इस प्रकार की ज़िद और जुनून को पाला जा रहा है, उन्हें प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

घोर आश्चर्य है कि कथित बुद्धिजीवी, प्रगतिशील व नारीवादी साहित्यकार, मानवाधिकारवादी एवं सामाजिक क्रांति व परिवर्तन के तमाम पैरोकार, जो आए दिन स्त्रियों की आज़ादी एवं अधिकारों के नाम पर घूँघट या पर्दा-प्रथा, स्त्रियों के मंगलसूत्र पहनने, बिंदी व सिंदूर लगाने, चूड़ी-पायल-बिछिया पहनने तथा व्रत-उपवास आदि करने के विरोध में वक्तव्य जारी करते हैं, वे बुर्क़े और हिज़ाब पर बिलकुल ख़ामोश हैं। कई नामचीन सितारों-तारिकाओं को कन्यादान की परंपरा तक दकियानूसी लगती रही है, उन्हें इस शब्द-प्रयोग पर घोर आपत्ति रही है, पर बुर्क़े और हिज़ाब पहनने को वे चयन की आज़ादी और मौलिक अधिकार बताते नहीं थकते। ऐसे सभी बुद्धिजीवियों एवं क्षद्म पंथनिरपेक्षतावादियों को 1940 के दशक में प्रकाशित डॉ भीमराव आंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक ”पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन” का यह अंश अवश्य पढ़ना चाहिए :- “पर्दा प्रथा की वजह से मुस्लिम महिलाएँ अन्य जातियों की महिलाओं से पिछड़ जाती हैं। वो किसी भी तरह की बाहरी गतिविधियों में भाग नहीं ले पातीं हैं जिसके चलते उनमें एक प्रकार की दासता और हीनता की मनोवृत्ति बनी रहती है। उनमें ज्ञान प्राप्ति की इच्छा भी नहीं रहती क्योंकि उन्हें यही सिखाया जाता है कि वो घर की चारदीवारी के बाहर वे अन्य किसी बात में रुचि न लें।…..पर्दाप्रथा के कारण मुस्लिम महिलाओं का मानसिक और नैतिक विकास भी नहीं हो पाता। स्वस्थ सामाजिक जीवन से वंचित रहने से उनमें गलत प्रवृत्ति आ जाती है। बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग-थलग रहने के कारण उनका ध्यान तुच्छ पारिवारिक झगड़ों में ही उलझा रहता है। इसका परिणाम संकीर्ण सोच और संकुचित दृष्टिकोण के रूप में सामने आता है।….हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों में पर्दा-प्रथा की जड़ें गहरी हैं। मुसलमानों में पर्दाप्रथा एक वास्तविक समस्या है और जबकि हिंदुओं में ऐसा नहीं है। मुसलमानों ने इसे समाप्त करने का कभी प्रयास किया हो इसका भी कोई साक्ष्य नहीं मिलता है।…..मुसलमानों ने समाज में मौजूद बुराइयों के खिलाफ कभी कोई आंदोलन नहीं किया। हिंदुओं में भी सामाजिक बुराइयाँ मौजूद हैं, लेकिन अच्छी बात ये है कि वो अपनी इस गलती को मानते हैं और उसके खिलाफ आंदोलन भी चला रहे हैं। लेकिन मुसलमान तो ये मानते ही नहीं हैं कि उनके समाज में कोई बुराई है।”

बाबा साहेब के उक्त कथन में समस्या के चित्रण के साथ-साथ समाधान के सूत्र भी निहित हैं। यह सत्य है कि हिंदू-समाज में भी काल-प्रवाह में अनेक कुरीतियाँ पनपीं और फैलीं, पर कालांतर में किसी-न-किसी संत या समाज-सुधारक ने उनके विरुद्ध सुधारवादी आंदोलन चलाए और उन आंदोलनों को व्यापक जनसमर्थन भी मिला, परिणामतः आज वह सती-प्रथा, पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, बेमेल विवाह, छुआछूत, विधवा-विवाह का निषेध जैसी तमाम बुराइयों से लगभग मुक्त हो चला है। पर दुर्भाग्य से भारतीय मुस्लिम समाज में उदार एवं सुधारवादी आंदोलनों के प्रति न केवल एक उदासीनता दिखाई देती है, बल्कि वह प्रायः उनके प्रतिरोध में आंदोलनरत रहता है। कई लोग समस्या का सरलीकरण करते हुए अशिक्षा एवं निर्धनता को मुस्लिम-समाज की दकियानूसी सोच एवं कट्टरता का कारण बताते हैं। वे भूल जाते हैं कि ओसामा बिन लादेन इंजीनियर, आफ़िया सिद्दीकी न्यूरोसाइंस विशेषज्ञ, अल जवाहिरी सर्जन, अल बगदादी पीएचडी और हाफ़िज़ सईद प्राध्यापक था। आतंकवादी संगठन आईसिस से जुड़ने वाले भारतीय एवं दुनिया के अन्य देशों के नौजवान भी उच्च शिक्षित रहे हैं। वस्तुतः समय और युग की आवश्यकता के अनुसार बदलाव को बिलकुल भी तैयार न होना ही मुस्लिम समाज की वास्तविक समस्या है। किसी भी समाज का आज से हजारों वर्ष पूर्व कही-लिखी गई बातों को मानने-मनवाने की ज़िद और जुनून न तो व्यावहारिक है, न ही आज के सभ्य, उदार एवं वैज्ञानिक युग के अनुकूल। उन्हें आज नहीं तो कल यह मानना ही पड़ेगा कि जो समाज दकियानूसी विचारों एवं रिवाज़ों की लाशों को चिपकाए रखता है, समय उसे छोड़कर निश्चित आगे बढ़ जाता है।
#प्रणय_कुमार

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