#मुंडमाल
“यह झील देखती हो प्रिये? क्या है ये झील??”
हिमालय की एक झील के के किनारे आज शिव का आसन स्थापित हुआ था। पार्वती के दीर्घ नेत्र प्रिय के गंभीर मुख की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में उठे।
“जल की उर्मियां माया हैं, जल की आर्द्रता माया है और जलबिंदु का अस्तित्व भी माया है…पर मूलतत्व तो जल है…जानो वही ब्रह्म है, वही आत्म है और ब्रह्म – आत्म का एक्य ही सत्य है…और जो सत्य है प्रिये, वही सत -चित -आनंद है, सच्चिदानंद है।”
शिव पार्वती को कथाएं कहते थे…कभी शास्त्र…कभी छंद…कभी संगीत…कभी वैद्यक…कभी इतिहास, कभी भविष्य…कभी तंत्र…कभी योग…
जब शिव कुछ कहते थे तो समय स्थिर हो जाता था।
पता नहीं क्यों पार्वती को ऐसा क्यों लगता था कि जैसे ये सब कुछ सहस्त्रों बार शिव उनसे कह चुके हैं और वो एक और बार सुनना चाहती थीं।
सहसा महादेव ने गले में की मुंड माला को स्पर्श किया।
पार्वती ने देखा कि यह कोई अनायास स्पर्श नहीं था।
यह तो जैसे किसी विरही प्रेमी ने युगों बाद अपनी प्रेयसी के उष्ण गालों को छुआ था।
उन्होंने देखा कि मुंड एक – दो ना थे। अनायास ही गिनने लगीं। मुंड पूरे एक सौ सात थे।
पार्वती कौतूहल में डूब गईं।
“प्रभु! ये मुंड किसके हैं और आप इन्हे क्यों धारण किए हुए हैं?”
शिव कुछ ना बोले और उनके सजीव नेत्र कुछ झुक गए। उन्होंने कोई उत्तर नही दिया।
“प्रभु! कृपा कर बताइए कि ये किसके मुंड हैं?”
“पार्वती, यह ना पूछो प्रिये।” शिव की आंखों में अथाह दुख का सागर लहराया।
देवी आश्चर्यचकित हो गईं।
निर्विकार में विकार? साक्षात आनंदकंद प्रभु को ऐसा दुख??
“प्रभु, कृपया बताइए…यदि दुख हो तो भी बताइए। संगिनी के साथ दुःख का प्रसाद ना बाटेंगे तो सुख का भोग कैसे स्वादु लगेगा?”
शिव ने दीर्घ उच्छवास किया…
“देवि! ऐसा कोई समय नहीं था जब मैं नहीं था…ऐसा भी कोई समय ना था जब तुम नही थीं। हर कल्प में मैं तुम्हे ढूंढता हूँ और फिर तुम्हें पा जाता हूँ।”
शिव की आँखें क्षितिज की अनंत गहराई में डूब सी गईं।
“जब आकाश था तब तुम्हे प्राण रूप में पाया। जब शून्य था तब तुम ऊर्जा रूप में मिलीं, जब मैं जगत हुआ तो तुम माया बनीं।”
“समाधि अवस्था से उतर जब मैं स्वेच्छा से गोचर होता हूं, तो तुम मेरी संगिनी बनती हो। अनंत कल्पों से यही क्रम चला आ रहा है।”
“फिर एक दिन ऐसा आता है जब तुम्हें विदा होना होता है तब ये शिव शव सा हो जाता है और तुम्हारे विछोह के दुख में ब्रह्माण्ड और समय की धारा में डूबता उतराता है।”
“पर प्रभु ये मुंड किसके हैं?”
“जब भी तुम विलग होती हो तो तुहारी मायास्वरूप देह का प्रतीक, तुम्हारे स्थूल अस्तित्व का मूल शेष, तुम्हारा मुंड मैं धारण कर लेता हूँ।”
शिव की आँखें भर आईं।
हे गौरी! हे सौम्या!! ये सब मुंड तुम्हारे ही हैं और मैं विमुक्त होकर भी स्वेच्छा से तुम्हारे प्रेम में बद्ध होकर इन्हे अपनी देह से लगा कर रखता आया हूँ, युगों युगों से।”
पार्वती भगवान का प्रेम सुनकर भाव समाधि में चली गई।
शक्ति अपने मूल रूप में आकर शिव में समा गई।
फिर से एक और जन्म लेने के लिए।
शिव की आंखों से निकले उष्ण आँसू झील के जल में मिल गए।
झील ने उन अश्रुमणियों की उष्णता को प्रसाद रूप में पाया और मणिमहेश के रूप में जग में जानी जाने लगी।
शिव पुनः समाधि लीन हो गए।
उनके मुंडमाल में अब 108 कपाल थे।

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