Home लेखक और लेखदेवेन्द्र सिकरवार राज्य_बनाम_राष्ट्रराज्य

राज्य_बनाम_राष्ट्रराज्य

679 views
पश्चिम प्रेरित वामपंथियों की सबसे बड़ी सफलता यह रही है कि उन्होंने ‘राष्ट्रराज्य’ के रूप में ‘राज्य’ को ‘राष्ट्र’ से ऊपर ही सिद्ध नहीं किया है बल्कि अधकचरे हिंदू बुद्धिजीवियों के मस्तिष्क में ‘राज्य’ व ‘राष्ट्र’ को समानार्थी बना दिया है।
जिस बात को,
पर्शियन्स जानते थे,
ग्रीक्स जानते थे,
चीनी जानते थे,
अरब जानते थे,
कि वंक्षु नदी से लेकर सिंहल तक भारत एक राष्ट्र है लेकिन मूढ़ काँग्रेसी और धूर्त वामपंथी न तो जानना और न ही मानना चाहते हैं।
उनकी परिभाषाएं ‘नेशियो’ शब्द के प्रवचन से शुरू होती हैं और राहुल जैसे बैलबुद्धि की ‘राज्यों के संघ’ जैसे कुटिल, शरारती, विखंडनकारी वक्तव्यों पर आकर खत्म हो जाती हैं।
इसलिये ध्यान से सुनो ,
तुम्हारे लिए ‘राष्ट्र-राज्य’ भले ‘नेशनलिज्म’ हो लेकिन भारतीय आर्य ऋषियों ने दोंनों के अलग अलग अस्तित्व पर पहले ही विचार कर लिया था।
मोटे तौर पर आर्य ऋषियों ने ‘राष्ट्र’ का मूल आधार ‘जन’ व ‘संस्कृति’ को और गौण परंतु आवश्यक आधार ‘भूमि’ को घोषित किया था। (ऋग्वेद, अथर्ववेद)
उनका यह आकलन कितना सार्वकालिक था, इसी बात से समझ जाइये कि ‘भूमि’ से वंचित होने पर भी ‘यहूदी जन’ अपनी ‘संस्कृति’ के आधार पर पिछले 2000 साल से एक ‘राष्ट्र’ बने रहे और 1949 में ‘भूमि’ मिलते ही ‘राष्ट्रराज्य’ के रूप में अस्तित्व में आ गए।
तो जो ‘राज्य’ को ‘राष्ट्र’ समझते हैं या ‘राष्ट्रराज्य’ को ही ‘राष्ट्र’ का पर्याय मानते हैं उन विद्वानों से निवेदन है कि वे भारतीय संदर्भों व विचारों को पढ़ने का कष्ट करें कि महामात्य विष्णुगुप्त चाणक्य ने प्राचीनतम स्रोतों से ऋषियों के विचारों को संकलित कर ‘राज्य’ को ‘सप्तांग सिद्धांत’ पर व्याख्यायित किया जबकि ‘राष्ट्र’ की परिभाषा के तीन आधार पूर्ववत रहे।
‘स्वराज्य’ अर्थात ‘लोकतंत्र’ व ‘साम्राज्य’ ही नहीं बल्कि ‘वैराज्य’, ‘भोज’ आदि अनेक शासन पद्धतियों के संविधानों को भारत राष्ट्र ने अतीत में देखा व प्रयोग में लाया है लेकिन किसी ने भी स्वयं को ‘भारतवर्ष’ से पृथक नहीं माना।
संचार साधनों की विपन्नता के उस युग में भी हिंदुओं ने भरत, रघु, श्रीराम, युधिष्ठिर, मौर्य, गुप्तों द्वारा पूर्ण रूप से और हर्षवर्द्धन, महिरभोज प्रतिहार के नेतृत्व में आंशिक रूप से ‘साम्राज्य व्यवस्था’ के रूप में भारत राष्ट्र को ‘राष्ट्र राज्य’ रूप में प्राप्त किया।
मु स्लिमों को भारत में इस्लाम थोपने में सफलता नहीं मिली तो इसी कारण से कि एक तमिल और सुदूर कश्मीरी एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी हर रोज स्मरण करता था
“जम्बूद्वीपे आर्यावर्ते भरतखंडे….”
कुटिल ब्रिटिश इस तथ्य को समझ गए और उन्होंने भारत की ‘राष्ट्रीयता’ को ही नकारना शुरू किया और दुर्भाग्य से कुछ हिंदू बुद्धिजीवी ही इस दुष्प्रचार के संवाहक बने।
दुर्भाग्य से भारत राष्ट्र के ऐतिहासिक अकाट्य सत्य को नकारने का वह अभियान 1947 में भूमि का एक बड़ा खंड गंवाने के बाद भी जारी है और बैलबुद्धि राहुल को आगे रखकर ये बुद्धिजीवी भारत के बाल्कनीकरण के षड्यंत्र रच रहे हैं।
अगर कोई इस बैलबुद्धि से 0.1% सहमति भी व्यक्त करता है तो तय मानिये वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, जाने या अनजाने में एक घिनौना, नीच राष्ट्रद्रोही ही है।

Related Articles

Leave a Comment