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स्त्री की प्रबलताऔर विवशता

by रंजना सिंह
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स्त्री की प्रबलताऔर विवशता

ईश्वर की कृपा से गाँव से लेकर महानगर तक की विभिन्न आर्थिक वर्ग की असंख्य महिलाओं का जीवन बहुत नजदीक से देखने का अवसर मिला है। मुझे तो कोई हिन्दू,ईसाई,बौद्ध,सिक्ख महिला अशक्त नहीं दिखी।अपार शक्तिसम्पन्न,आत्मबल से परिपूर्ण, परिवार की धुरी।हाँ, वह अपने घर की दूसरी स्त्री को प्रताड़ित कर रही हो तो बात और है।
स्त्री मुझे असुरक्षित,संकट में, तीन ही परिस्थितियों में लगती है।
पहली- जब वह अपने सात्विक स्वरूप और सामर्थ्य को भूल भोगी पुरूष बनना चाहती है,अपने गौरी काली अन्नपूर्णा स्कंदमाता जैसे रूप को बिसार ताड़का शूर्पणखा का अनुसरण करने लगती है।
दूसरे- जब उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है या केवल योनि समझ उसका भोग या बलात्कार किया जाता है।
और तीसरे- जब वह उनके हिस्से पड़ती है जिनके लिए बहन बेटी का कोई कॉन्सेप्ट ही नहीं,जिनके लिए स्त्री केवल और केवल एक योनि है। जिन्हें सामूहिक बलात्कार के उपरान्त नारी देह को आरी से दो टुकड़े चीर देने में अतिशय आनन्द प्राप्त होता है, स्त्री को अमानवीय यातना देकर ही उन्हें अपना पुरुषत्व विजीत लगता है।
भारत देश की पूरी स्त्री आबादी में आधी से अधिक(मज़्ज़बी स्त्रियाँ) और शान्तिप्रियों की पहुँच में आयी हिन्दू स्त्रियाँ, निश्चित ही असुरक्षित और संकट में हैं और इनके लिए अवश्य ही मनाना चाहिए “महिला दिवस/वूमेन्स डे”….
किन्तु सोचना होगा कि इस असुरक्षा का निराकरण क्या है??हमारी समस्या यह है कि हम जो भी मनाते हैं, उसको असल मुद्दे से भटका समस्या का ऐसा सामान्यीकरण कर देते हैं कि वह मनाना महज़ एक औपचारिक शाब्दिक सन्देश आदान प्रदान में सिमटकर रह जाता है।समस्या कहाँ है और निराकरण क्या हो,इसपर चिन्तन करने को कोई प्रस्तुत नहीं होता।
शिक्षित होकर आर्थिक आत्मनिर्भरता पाना तो समाज को दिखा,,जो कि उचित भी था,,किन्तु इसके साथ साथ समाज यह भूल गया कि असल शक्ति चारित्रिक सुदृढ़ता में है।एक स्त्री यदि सोच चरित्र और संस्कार से सशक्त हो,वह जब आर्थिक रूप से भी सक्षम हो,,तो कल्पना कीजिये कैसे परिवार समाज की स्थापना होगी।यहाँ हमें एक भ्रम से सदैव बचना होगा कि जो स्त्री वर्किंग नहीं होती,वह आर्थिक रूप से अशक्त होती है।स्त्री यदि हाउसवाइफ भी हो तो घर को सुचारू रूप से चलाकर घर में उतना ही आर्थिक योगदान देती है जितनी कोई बाहर जाकर कामकाज करने वाली स्त्री।बल्कि अपनी निगरानी में तीन पीढ़ी(मातापिता, अपनी समकक्ष पीढ़ी और सन्तान)को रखकर जिस प्रकार वह उनका सांस्कारिक संरक्षण करती है,ऐसा घर से निकली कोई कामकाजी महिला नहीं कर पाती।मैंने स्वयं वर्षों बाहर काम कर देखा है और अनुभव के आधार पर साधिकार कह सकती हूँ कि यदि कोई आर्थिक बाध्यता न हो तो एक विवाहिता को अपनी दक्षता घर में ही रहकर प्रदर्शित करना चाहिए।बाहर निकलने पर घर जिनके नियंत्रण में देना पड़ता है(घर के अन्य सदस्य या नौकर दाई)इतना कुछ खोता है जिसकी रिकवरी सम्भव नहीं।
महिला दिवस पर महिलाओं के हितों के संरक्षण की जब बात हो रही है तो सबसे अधिक कन्सर्न का मुझे स्वयं महिलाओं का चारित्रिक क्षरण ही लगता है।इसके संरक्षण का सामर्थ्य प्रत्येक स्त्री को है।यदि वह सफलतापूर्वक यह कर ले,स्वयं भी लक्ष्मी सरस्वती अन्नपूर्णा गौरी काली बनने का प्रयत्न करे और अपने पुत्री को ऐसा ही तथा पुत्र को नारीमात्र का सम्मान करना सिखाये, तभी महिला/समाज सशक्तिकरण दिवस का कोई औचित्य है,अन्यथा यह उपक्रम हास्यास्पद औपचारिकता भर है

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