Tata की एक कार आई थी Nano जिसकी ब्रांडिंग टाटा ने ‘सबसे सस्ती कार’ के तौर पर की और यही Tata की गलती साबित हुई। जिस सेगमेंट के लिए वो कार बनाई गई थी उसने ही सोचा कि इस कार को लेने के बाद समाज उन्हें सबसे सस्ती कार के मालिक के तौर पर देखेगा इसलिए उन्होंने भी कार से दूरी बना ली। अगर इस कार की ब्रांडिंग ‘कॉलेज जाने वाले यंगस्टर्स की कार’ के तौर पर होती तो झूठी शान को ढो रहे कई परिवार भी ‘बच्चों के लिए ले ली’ कह कर उसी कार से चलने लगते।
अग्निवीर’ के साथ भी थोड़ा यही गलती हुई है। इसे किसी भी तरह के रोजगार कार्यक्रम की जगह यदि ‘सेना को जानो मिशन’ या ‘सेवा कार्यक्रम’ कह कर लाया गया होता तो ज्यादा बेहतर होता। इस दौरान युवकों की पढ़ाई भी चलती रहनी चाहिए और उस पढ़ाई का पूरा खर्चा सरकार को वहन करना चाहिए था। जो बच्चा इस प्रशिक्षण के दौरान बोर्ड में टॉप करे उसकी पूरी पढ़ाई का खर्चा सरकार को उठाना चाहिए था।
इस योजना में सरकार को कोई वेतन नहीं देना चाहिए था बल्कि इस योजना को ऐसे लाना चाहिए था जिससे ये प्रदर्शित होता कि सरकार ना केवल बच्चों को निःशुल्क पढ़ाएगी बल्कि सेना के हॉस्टल, मेस, अधिकारियों, जिम, स्पोर्ट्स, हथियारों, अनुशासन और उस दौरान मिलने वाली सारी सरकारी सुविधाओं और ट्रेनिंग को मुफ्त में मुहैया कराएगी। अगर इस निःशुल्क पढ़ाई/ प्रशिक्षण के दौरान बच्चों में असाधारण प्रतिभा दिखी तो सेना बड़ी तादात में उन्हें अपने साथ रोजगार भी प्रदान करेगी।
मेरा तो यही मानना है कि ऐसी उम्र में जिसमें बच्चों के सबसे ज्यादा बिगड़ने का खतरा होता है, अगर उस उम्र में वो सेना के अनुशासन में अपनी पढ़ाई के साथ जीवन के कई अनदेखे अनुभवों से गुजरेँगे तो निश्चित तौर पर आगे उनको इसका फायदा ही मिलेगा।