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अब तो इक्का-दुक्का होंगे… लेकिन आज से…

रिवेश प्रताप सिंह

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अब तो इक्का-दुक्का होंगे… लेकिन आज से पन्द्रह-बीस वर्ष पहले हमारी तरफ़ कचहरी के आसपास, कुछ हुनरमंद.. बहुतेरे चालबाज, ‘मज्मा’ (भीड़, हुजूम, तमाशबीनों का जमावड़ा) लगाते थे।
मज्में में कुछ रहस्यमई, कुछ गुप्त, कुछ हैरतअंगेज कारस्तानियां होतीं हैं. जो आम जनता को अपनी तरफ आकर्षित करने की काबिलियत रखतीं हैं। दरअसल कचहरी में बहुतायत ऐसे मुवक्किलों का आना होता है जो कचहरी में, अपने मुकदमे की तारीख की मजबूरी की वजह से ही गांव से शहर आते हैं। वरना पूरे साल शहर में!! थूकने न आयें भाई साहब!! बस यूं न हो कि पत्नी या बहू की प्रसव पीड़ा की कराह उनको जीप पकड़कर शहर के अस्पताल लाने को मजबूर कर दे। वरना वो शहर की शक्ल न देखें। उनके लिए उनका गांव ही शिमला है… गांव ही स्वीटजरलैंड।
मित्रों! मज्मा दिखाने या परोसने वालों को यह बखूबी मालूम होता है कि इस वक्त हमारा देश किस संकट के गुजर रहा है। इसलिए उनके पास ऐसे तमाम कारगर उपाय होते हैं और वे जो देश की अहम चिंता अपने सिर उठाकर खड़े रहते हैं। मसलन- महिलाओं की छाती से दूध उतारना (वो पानी में अपनी औषधि डालते हैं तो पानी, दूध का रंग पकड़ लेता है) ऐसे ही बच्चों का बिस्तर पर पेशाब करना, स्वप्न दोष, शीघ्र पतन, पिचके गाल… कमजोरी आदि तमाम अनकहे, अनसुलझे किस्सों को बीच बाज़ार में सीना ठोककर सुलझाया जाता है। वहां एक विशेष बात यह होती है कि सब निशुल्क होता है। लेकिन आपको मालिक के हाथ पर पैसा रखकर यह विश्वास दिलाना होता है कि भले यह निशुल्क है लेकिन यदि ऐसे अचूक, रामबाण या लक्ष्मण बूटी के लिए हमें मूल्य भी अदा करना हो तो हम सहर्ष तैयार हैं यदि हमें खेत बेचकर भी आना पड़े तब भी हम इसी शिद्दत से हाज़िर होंगे लेकिन इस अचूक औषधि को घर लेकर ही जायेंगे… मुकदमा भले हार जायें।
(हांलांकि मालिक के हाथ पर पैसा जाने के बाद उससे पैसा निकालना ऐसे ही है जैसे मगरमच्छ के जबड़े से अपना हाथ!! और मजे की बात की फ्री के नाम पर ऐसे लोग भी मज्मा दिखाने वाले के हाथ पर पैसा रख देते हैं जिनकी पत्नी ने अपने बच्चे को बीस साल पहले स्तनपान कराना छोड़ दिया हो और उनके बच्चे भी कुंआरे हों। ऐसे ही तमाम लोग जो बताये गये रोग से पीड़ित भी नहीं लेकिन फ्री की दवा के नाम पर गोला बनाकर बैठ जाते हैं… क्या पता जवानी में बिस्तर पर पेशाब टपक जाये। खतरा बाद में हो.. क्यों न! अभी लपक लो।)
मित्रों! कचहरी में हम सब जो मुकदमे की तारीख पर जाते हैं और जो बीच रास्ते में मज्मा लगता है उसको फेसबुक ने ‘रील्स’ के नाम से बिठा रखा है।

जज तथा वकील साहब फैसले लेने के इंतजार में बैठे रह जाते हैं… उधर उनका मुवक्किल ‘रील्स’ देखने में लगा पड़ा होता है…
हजारों घंटे और डेटा!! पता नहीं किस गुप्त रोग के इलाज में खर्च हो जाता है.. लेकिन उठने का!!!
बिल्कुल मन नहीं होता भाईसाहब…

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