Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति अर्जुन और श्रीकृष्ण – भक्ति प्रीत से बड़ी होती है

अर्जुन और श्रीकृष्ण – भक्ति प्रीत से बड़ी होती है

by Jalaj Kumar Mishra
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कहा जाता है कि आत्मा को ईश्वर से जोड़ लेना ही भक्ति है।ऐसा मानाना कि इस चराचर जगत में ना तो उसके सिवा कोई दूसरा उत्सव है नाही प्रमोद देने वाला ! संतुष्टि और तृप्ति का ऐसा संगम होना कि जैसे लगने लगे कि मेरे इष्टदेव मेरी हर बात सुनते और मानते है। उनको मेरा नही मुझे उनका ख्याल करना है।भक्ति आसक्ति नही होती है।भक्त भगवान से कुछ उम्मीद नही करता है। वह तो उनके प्रेम में वशीभूत है। उसे सिर्फ अपना सर्वस्व अपने अराध्य को लुटाना है।
एक‌ बार कि बात है कि भगवान श्रीकृष्ण का सहयोग पाकर अर्जुन को अहंकार हो‌ गया था कि वास्तव में सबसे बड़े कृष्ण भक्त वही है।श्रीकृष्ण को इसका आभास हुआ और एक दिन अर्जुन के साथ वे टहलने गये। रास्ते में उनको एक ब्राह्मण दिखाई दिया, जिसकी कमर में एक तलवार लटकी हुई थी और वह बेल के फल को तोड़ कर खा रहा था।उसके वेश-भूषा को देखकर अर्जुन ने पुछा कि आप तो अहिंसक ब्राह्मण मालूम होते है फिर यह तलवार क्यों धारण किए हुए हैं?
ब्राह्मण बोला कि यह तलवार मैंने चार व्यक्तियों को दण्ड देने के लिए रखा हुआ है! अर्जुन ने आश्चर्य से पुछा कि वे चार व्यक्ति कौन कौन है ब्राह्मण देवता !
ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि पहला तो देव ऋषि नारद है जो मेरे प्रभु का ख्याल किये बिना हरदम उनका नाम‌ धुन गाकर उनको जगाये रखता है। दूसरी वह द्रौपदी है जिसने मेरे प्रभु को तब पुकारा जब वे भोजन कर रहे थे। तीसरा है हृदयहीन प्रहलाद, जिसने मेरे प्रभु को गरम तेल‌ की कड़ाही में प्रवेश करवाया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया, अंत में खम्भे से प्रकट होने पर विवश किया और चौथा है वह दुष्ट अर्जुन जिसने मेरे प्रभु को अपने सेवक के रुप में सारथी बना डाला!
अर्जुन ब्राह्मण कि बातें सुनकर आश्चर्य में डूबे होते थे। उनका अपना अहंकार गायब हो चुका था उनको लगने लगा कि मेरी भक्ति इस ब्राह्मण के भक्ति के आगे कही भी नही है।भक्ति प्रीति से बढ़कर होती है। प्रेम में पड़ा आदमी नाराज हो सकता है लेकिन भक्ति में नाराजगी के लिए कोई जगह ही नही होती है। भक्ति तो निश्चल बालपन कि तरह है जो हर तरह के छल प्रपंच और उम्मीद से परे है।वह यथावत है, निरपेक्ष है। बिना किसी उम्मीद के सेवा में लगे रहना ही भक्ति है।भक्ति में दास्य भाव और वात्सल्य भाव का होना बहुत जरुरी है। कुरुक्षेत्र में भगवान कहते हैं कि
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
जो व्यक्ति अपना मन सिर्फ मुझमें लगाता है और मैं ही उनके विचारों में रहता हूँ, जो मुझे प्रेम और समर्पण के साथ भजते हैं, और मुझ पर पूर्ण विश्वास रखते हैं, वो भक्त कहलाने लायक है।
ईश्वर सबको सानंद रखे।

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