Home लेखक और लेखअजीत सिंह अर्धसत्य : गोविंद निहलानी

अर्धसत्य : गोविंद निहलानी

अजीत सिंह

by Ajit Singh
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गोविंद निहलानी की ” अर्धसत्य ” लगभग 1982 के आसपास आयी थी ।
तब मेरी उम्र थी लगभग 17 साल , जब मैंने अर्धसत्य देखी थी ।
उंस जमाने मे फ़िल्म देखना या फिल्मों का शौक पालना आसान नही था ।
छोटे शहरों , कस्बों में रहने वाले लोगों या फिर हमारे जैसे army Cantts में रहने वाले लोगों के लिये तो लगभग असंभव सा ही था ।
आज के इस Digital युग के बच्चे शायद न समझ पाएं कि हमने किन हालात में सीखा या पढ़ाई की ।
कितना मुश्किल था सब कुछ ।
आजकल तो सब कुछ , दुनिया का सारा ज्ञान सब एक Click पे उपलब्ध है ।
मुझे याद है , बचपन मे एक पत्रिका , शायद धर्मयुग में मैंने पढ़ा था कि ” The Bicycle Thief ” की गिनती दुनिया की महानतम फिल्मों में होती है ।
उंस लेख में इस फ़िल्म का सिर्फ 1 line में ज़िक्र हुआ था ।
ये बात है 1982 या 83 की ।
अंततः 2010 के आसपास जब Internet हमको मिला तो ये फ़िल्म देखने को मिली ।
30 साल इंतज़ार करना पड़ा ये फ़िल्म देखने को ।
मुझे याद है कि 17 – 18 वर्ष की आयु में ही फिल्मों को ले कर मेरा Taste विकसित होने लगा था ।
उन दिनों गुलज़ार साब , श्याम बेनेगल और गोविंद निहलाणी जैसे गिने चुने फिल्मकार थे जो मेरे Taste का सिनेमा बनाते थे । साल में एकाध फ़िल्म आती थी हमारे Taste की ।
दिल्ली गये तो वहाँ प्रगति मैदान में एक शाकुंतलम Theatre था ।
वहां चुनिंदा फिल्में और विभिन्न फिल्मकारों के फ़िल्म festivals हुआ करते थे ।
मने कोई एक कलाकार , निर्देशक या फिल्मकार ले लिया और उसकी 8 – 10 फिल्में दिखा दीं 3 दिन में ।
सुबह 9 बजे दिखाना शुरू किया और रात 12 बजे तक एक के बाद एक 4 फ़िल्म दिखा दी
3 दिन में 12 फिल्में ।
मुझे याद है । वो 80 का दशक था ।
मैंने अनगिनत फिल्में और ऐसे ही फ़िल्म festivals देखे शाकुंतलम Theatre में ।
सबसे मज़े की बात कि शाकुंतलम का टिकट Tax Free होता था । मात्र दो रु की टिकट होती थी ।
अखबारों के Entertainment कालम में रोज़ाना छपता था , आज कहां क्या दिखाया जा रहा है ।
उसी शाकुंतलम theatre के बगल में एक फलकनुमा नाम का Open Air Theatre भी था जहां खुली हवा में शाम 7 बजे , धुंधलका हो जाने पे फ़िल्म शो होता था , और फिरि फोकट में फ़िल्म देखने को मिलती थी । फलकनुमा में टिकट नही लगता था ।
यूँ मेरा बचपन तो ऐसे ही फौजी Open Air Theatres में ही फिल्में देख के बीता था ।
1978 में जब हम Gangtok – Sikkim में थे तो वहां फौजी भाइयों के लिये एक सिनेमा हॉल था जिसका नाम Black Cat Auditorium था । उसी Cinema हॉल में हम दीक्षित हुए और Cinema से परिचय हुआ ।
आयु थी 13 साल । गुलज़ार की मौसम और आंधी , मेरे अपने जैसे फिल्में तभी देखी थीं ।
अब 13 साल के बच्चे को मौसम क्या समझ आती ।
बाद में जब 18 – 19 के हुए तो वही मौसम शाकुंतलम में देखी । कुछ कुछ समझ आयी ।
फिर वो फ़िल्म उम्र के हर पड़ाव पे देखी । 25 साल 35 साल , 45 साल और अब 57 साल की उम्र में मौसम देखता हूँ तो कलेजा मुह को आता है ।
ये फ़िल्म आपको Time मशीन में बैठा के पीछे ले जाती है ।
30 – 40 साल पीछे । अपने अंदर झांकने को कहती है ।
बहुत सालों बाद पढ़ा कि दिल्ली में प्रगति मैदान का पुनर्निर्माण हुआ तो उसमें शाकुंतलम और फलकनुमा तोड़ दिये गए ।
आज देश मे एक भी ऐसा सरकारी System नही जहां युवा पीढ़ी कलात्मक सिनेमा , World सिनेमा देख सके ।
मेरा मानना है कि Cinema सभी कलाओं में अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है ।
इसके साथ ही शिक्षा का भी सबसे सशक्त माध्यम है ।
Cinema को स्कूल College शिक्षा में बाकायदे Syllabus और Curriculam का हिस्सा बनाया जाना चाहिये ।
बाकायदे Syllabus में होना चाहिये कि इस हफ्ते बच्चों को ये फ़िल्म दिखाई जाए ।
उसमे ये वाले दृश्य तो बार बार Rewind कर के दिखाये जाएं ।
उसके बाद Teacher उंस फ़िल्म के बारे में इन इन बिंदुओं और फ़िल्म के इस इस कला पक्ष पे चर्चा करें ।
बाकायदे ऐसा Syllabus बनाना चाहिये Education में ।

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