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अहिंसा परमो धर्म …महाभारत का अहिंसा संबंधी यह नीति वचन

Akansha Ojha

by Akansha Ojha
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अहिंसा परमो धर्मः …” महाभारत का अहिंसा संबंधी यह नीति वचन लोगों के मुख से अक्सर सुनने को मिलता है।
प्राचीन संस्कृत साहित्य में उपलब्ध नीति-वचनों में से एक है जिसका उल्लेख अहिंसा के पक्षधर लोग अक्सर करते हैं।
प्राचीन काल में अपने भारतवर्ष में जैन तीर्थंकरों ने अहिंसा को केंद्र में रखकर अपने कर्तव्यों का निर्धारण एवं निर्वाह किया। अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के लगभग समकालीन या कुछ बाद में महात्मा बुद्ध ने भी करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व तमाम कर्तव्यों के साथ अहिंसा का उपदेश तत्कालीन समाज को दिया था। अरब भूमि में ईशू मसीह ने भी कुछ उसी प्रकार की बातें कहीं। आधुनिक काल में महात्मा गांधी को भी अहिंसा के महान् पुजारी/उपदेष्टा के रूप में देखा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने तो उनके सम्मान में 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस घोषित कर दिया।
अहिंसा की बातें घूमफिर कर सभी समाजों में की जाती रही हैं, लेकिन उसकी परिभाषा सर्वत्र एक जैसी नहीं है। उदाहरणार्थ जैन धर्म में अहिंसा की परिभाषा अति व्यापक है, किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार से कष्ट में डालना वहां वर्जित है। इस धारणा के साथ जीवन धारण करना लगभग नामुमकिन है। अरब मूल के धर्मो के अनुसार मनुष्य को छोड़कर अन्य जीवों में रूह नहीं होती, तदनुसार उनके साथ अहिंसा बेमानी है। कुर’आन से मैंने यही निष्कर्ष निकाला। वास्तव में सभी समाज अपने भौतिक हितों को ध्यान में रखते हुए अहिंसा की परिभाषा अपनाते हैं। विडंबना देखिए कि महावीर, बुद्ध एवं गांधी के इस भारत में अहिंसा की कोई अहमियत नहीं। पग-पग पर हिंसा के दर्शन होते है। अहिंसा वस्तुतः एक आदर्श है जिससे आम तौर पर सभी परहेज करते हैं। लेकिन “अहिंसा परमो धर्मः” की बात मंच पर सभी कहते हैं।
अस्तु, अहिंसा या हिंसा की वकालत करना इस आलेख में मेरा उद्देश्य नहीं है। “अहिंसा परमो धर्मः” की नीति की मानव जीवन में सार्थकता है या नहीं इसकी समीक्षा हो रही।
अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः ।
सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः ॥74॥
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय 207 – मारकण्डेयसमास्यापर्व)
अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, और वह सत्य पर ही टिका होता है। सत्य में निष्ठा रखते हुए ही कार्य संपन्न होते हैं।
यहां कार्य से तात्पर्य सत्कर्मों से होना चाहिए। सत्कर्म सत्य के मार्ग पर चलने से ही संभव होते हैं। धर्म बहुआयामी अवधरणा है। मनुष्य के करने और न करने योग्य अनेकानेक कर्मों का समुच्चय धर्म को परिभाषित करता है। करने योग्य कर्मों में अहिंसा सबसे ऊपर या सबसे पहले है यह उपदेष्टा का मत है।
महाभारत ग्रंथ के वन पर्व में पांडवों के 12 वर्षों के वनवास (उसके पश्चात् एक वर्ष का नगरीय अज्ञातवास भी पूरा करना था) का वर्णन है। वे वन में तमाम ऋषि-मुनियों के संपर्क में आते हैं जिनसे उन्हें भांति-भांति का ज्ञान मिलता है। उसी वन पर्व में पांडवों का साक्षात्कार ऋषि मारकंडेय से भी होता है। ऋषि के मुख से उन्हें कौशिक नाम के ब्राह्मण और धर्मनिष्ठ व्याध के बीच के वार्तालाप की बात की बात सुनने को मिलती है। उक्त श्लोक उसी के अंतर्गत उपलब्ध है।
अगले दो श्लोक अनुशासन पर्व से लिए गए हैं। महाभारत युद्ध के बाद सब शांत हो जाता है और युधिष्ठिर राजा का दायित्व संभाल लेते हैं। भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में मृत्यु-शैया पर लेटे होते हैं। वे युधिष्ठिर को राजधर्म एवं नीति आदि का उपदेश देते हैं। ये श्लोक उसी प्रकरण के हैं।
अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च भागशः ।
दमस्त्यागो धृतिः सत्यं भवत्यवभृताय ते ॥18॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 60 – दानधर्मपर्व)
सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा बरतना, सभी को यथोचित भाग सोंपना, इंद्रिय-संयम, त्याग, धैर्य एवं सत्य पर टिकना अवभृत स्नान के तुल्य (पुण्यदायी) होता है।
वैदिक परंपरा में यज्ञ-यागादि का विशेष महत्व है और उन्हें पुण्य-प्राप्ति का महान् मार्ग माना जाता है। ऐसे आयोजन के समापन के पश्चात विधि-विधान के साथ किए गये स्नान को अवभृत स्नान कहा गया है। यहां बताये गये अहिंसा आदि उस स्नान के समान फलदातक होते हैं यह श्लोक का भाव है।
उक्त श्लोक में “अहिंसा परमो धर्मः” कथन विद्यमान नहीं है, किंतु अहिंसा के महत्व को अवश्य रेखांकित किया गया है। वनपर्व का अगला श्लोक ये है:
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः ।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥23॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 115 – दानधर्मपर्व)
अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है, और अहिंसा ही परम सत्य और जिससे धर्म की प्रवृत्ति आगे बढ़ती है।
इस वचन के अनुसार अहिंसा, तप और सत्य आपस में जुड़े हैं। वस्तुतः अहिंसा स्वयं में तप है, तप का अर्थ है अपने को हर विपरीत परिस्थिति में संयत और शांत रखना। जिसे तप की सामर्थ्य नहीं वह अहिंसा पर टिक नहीं सकता। इसी प्रकार सत्यवादी ही अहिंसा पर टिक सकता है यह उपदेष्टा का मत है।
अहिंसा की जितनी भी प्रशंसा हम कर लें, तथ्य यह है कि मानव समाज अहिंसा से नहीं हिंसा से चलता है।
अहिंसा कितना अव्यावहारिक विचार है यह एक वैचारिक तथ्य है।
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः ।
अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥28॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 116, दानधर्मपर्व)
अहिंसा परम धर्म है, वही परम आत्मसंयम है, वही परम दान है, और वही परम तप है।
अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम् ।
अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ॥29॥
(यथा पूर्वोक्त)
अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा ही परम फल है, वह परम मित्र है, और वही परम सुख है।
सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम् ।
सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया ॥30॥
(यथा पूर्वोक्त)
सभी यज्ञों में भरपूर दान-दक्षिणा देना, या सभी तीर्थों में पुण्यार्थ स्नान करना, या सर्वस्व दान का फल बटोरना, यह सब अहिंसा के तुल्य (समान फलदाई) नहीं हैं।
ऊपरी तौर पर देखें तो इन श्लोकों में कोई प्रभावी बात नहीं दृष्टिगत होती है। अहिंसा परम धर्म, परम आत्मसंयम, परम दान एवं परम तप है (उपर्युक्त प्रथम श्लोक) कहने का तात्पर्य यही लिया जा सकता है कि धर्म के अंतर्गत आने वाले सभी सत्कर्मों में अहिंसा प्रथम यानी सर्वोपरि है। अहिंसा का व्रत सरल नहीं हो सकता। अहिंसा में संलग्न व्यक्ति धर्म-कर्म की अन्य बातों पर भी टिका ही रहेगा। शायद यही इस श्लोक का संदेश है।
आम तौर पर हवनकुंड की प्रज्वलित अग्नि में हविष्य (हवन-सामग्री) की आहुति देकर देवताओं की प्रार्थना को यज्ञ कहा जाता है। लेकिन यज्ञ के इससे अधिक व्यापक अर्थ भी हैं। वस्तुतः पूजा-अर्चना से परे अन्य पुण्यकर्म करना भी यज्ञ कहलाता है। मनुस्मृति में पांच महायज्ञों का जिक्र पढ़ने को मिलता है: ये हैं:
ब्रह्मयज्ञ – अध्यापन-कार्य अर्थात् लोगों का ज्ञानवर्धन करना।
पितृयज्ञ – पितृ-तर्पण अर्थात् पितरों का स्मरण एवं श्रद्धा अभिव्यक्ति।
होमकार्य – दैवयज्ञ यानी देवताओं की पूजा अर्चना, यज्ञ-यागादि। (दैवयज्ञ)
भूतयज्ञ – बलिप्रदान अर्थात् अन्य प्राणियों को अपने भोजन का एक अंश, जिसे बलि कहते हैं, अर्पित करना।
नृयज्ञ – विविध प्रकार से अतिथियों का सत्कार, जिसमें भोजन प्रमुख है।
इस स्थल पर आम आदमी के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या अहिंसा वाकई में धर्म का श्रेष्ठतम कर्म है। उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि धर्म का क्या अर्थ है और उसके पालन का क्या उद्देश्य है। प्राचीन भारतीय चिंतकों का मत रहा है कि मनुष्य के जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना है। अर्थात् जीवन-मरण के निरंतर चलने वाले चक्र से स्वयं को मुक्त करना। इसके लिए स्वयं का आध्यात्मिक उत्थान और इस संसार के मोह से अपने को बचाना है। इसके लिए आत्मिक परिष्करण और शेष संसार के प्रति सत्कर्म करना ही मार्ग है यह उनका मत रहा है। लोकायत परंपरा (चार्वाक सिद्धांत) को छोड़कर अन्य सभी धार्मिक मत एक ही प्रकार से सोचते हैं, अंतर है तो आध्यात्मिक दर्शन में और सत्कर्मों की परिभाषा तथा उनकी परस्पर सापेक्ष वरीयता में। लोकायत में तो इस भौतिक शरीर से परे कुछ नहीं है और तदनुसार कर्मों का महत्व व्यक्ति एवं समाज के परस्पर रिश्तों के संदर्भ में होता है। इसके विपरीत जैन मत में जीवधारी सत्कर्मों के फलस्वरूप उत्तरोत्तर श्रेष्ठतर अवस्था प्राप्त करते हुए अंत में मुक्तजीव हो जाता है; बौद्ध मत में जीवधारी का कर्मशरीर शून्य में विलीन हो जाता है, कुछ भी शेष नहीं रहता; और वैदिक दर्शन में जीवधारी की आत्मा परमात्मा में मिल जाती है, इत्यादि।
आध्यात्मिक उत्थान के लिए मनुष्य के लिए सत्कर्मों का संपादन आवश्यक है और उपर्युक्त श्लोकों में वही संदेश मुझे दिखता है।
दुनियाबी जिंदगी में अहिंसा स्वीकार्य नहीं हो सकती है। हिंसा मनुष्य के स्वभाव का अपरिहार्य अंग है और आत्मसंयम द्वारा विरले जन ही उसे नियंत्रित कर पाते हैं। व्यवहार में अहिंसा पर टिके रहना आम जन के लिए असंभव है। यह निर्विवाद तथ्य है कि सामाजिक व्यवस्था सुचारु बनाए रखना हिंसा को नकारने पर असंभव है। हिंसा का प्रयोग यथासंभव कम एवं विवेकपूर्ण तरीके से करना सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है। यह हिंसा ही है जिससे मनुष्य डरता है और सन्मार्ग पर टिकने के लिए विवश होता है।
उपर्युक्त श्लोक जिस महाभारत ग्रंथ में मिलते हैं उसी में सर्वत्र हिंसा के तमाम दृष्टांतों का उल्लेख है।
पूर्णरूपेण अहिंसा तो सम्भव ही नहीं है । कहा गया है कि—
नास्तिचेष्टा विनाहिंसाम् ।
कोई भी चेष्टा ऐसी नहीं है, जिसमें हिंसा न हो ।
(महाभारत १४.२८.२१)
नास्ति कश्चिदहिंसकः।
कोई भी अहिंसक नहीं है ।
अर्थात् अहिंसा का पूर्णरूप से पालन किया ही नहीं जा सकता है ।
(महाभारत ३.२०८.२३)
इतना ही नहीं, इसी ग्रंथ में हिंसा की अपरिहार्यता की बातें भी कही गयी हैं। इसी प्रकार वाल्मिकीय रामायण भी हिंसात्मक घटनाओं का लेखाजोखा है। रामायण काल में हो महाभारत काल, हिंसा का बोलबाला सदा से ही रहा। हिंसा के बल पर ही समाज में अनुशासन स्थापित हो पाता है।
न हि पश्यामि जीवन्तं लोकेकञ्चिदहिंसया।
ऐसे किसी नर को नहीं देख रहा हूँ , जो अहिंसा से जीवन निर्वाह करता है ।
(महाभारत १२.१५.२०)
तो फिर अहिंसा के पक्ष में इतना कुछ क्यों कहा गया है? जो व्यक्ति आध्यात्मिक दिशा में अग्रसर होता है वह अहिंसा का मार्ग अपनाता है, भौतिक सुख छोड़ देता है, अधिकाधिक संपदा अर्जित करने से बचता है, इत्यादि। प्राचीन काल में आध्यात्मिक उत्थान को अधिक महत्व दिया जाता था र्भौतिक उन्नति की तुलना में। “अहिंसा परमो धर्मः” धर्म के उसी आध्यात्मिक पक्ष के संदर्भ में कहा गया होगा। धर्म के इस पक्ष को आम जन व्यवहार में न तब अपना सकते थे और न अब।
महाभारत में ही क्षत्रिय धर्म का भी वर्णन है।
हिंसा के द्वारा दुष्टों को दूर करने अथवा मारने के पश्चात् दस्युरहित शान्त समाज में सन्त जन अहिंसा का यथासंभव पालन कर सकते हैं ।
हिंसा पूर्णतः त्याज्य कभी नहीं रही है।
सर्वधर्मपरं क्षात्रं लोकज्येष्ठंसनातनम् शश्वदक्षरपर्यन्तम्।
संसार में क्षत्रिय का धर्म सनातन, सभी धर्मों में श्रेष्ठ तथा मोक्ष तक ले जानेवाला है ।
(महाभारत १२.६४.३०)
क्षात्रःश्रेष्ठः सर्वधर्मेषु धर्मः।
क्षात्र धर्म ( क्षत्रिय का धर्म ) सभी धर्मों में श्रेष्ठ है ।
(महाभारत १२.६५.१)
राज्यमेव परं धर्मं क्षत्रियस्य ।
क्षत्रिय का राज्य ( राज्य का पालन करना ) ही परम धर्म है ।
(महाभारत ३.५२.१५)
पुण्यं दस्युवधेन लभ्यते।
(महाभारत ५.२९.१)
यथावध्ये वध्यमाने भवेद्दोषो जनार्दन स वध्यस्यावधेदृष्ट:।
जनार्दन ! अवध्य का वध करने में जो दोष होता है, वही वध्य का वध न करने में भी है ।
(महाभारत ५.८२.१८)
क्षत्रियस्य सदा धर्मो नान्यः शत्रुनिबर्हणात्।
क्षत्रिय के लिये सदा शत्रु को मारने से अधिक कोई धर्म नहीं है
(महाभारत ४.२१.४३)
क्षत्रियस्य हि धर्मोऽयं हन्याद्धन्येत_वा_पुनः
क्षत्रिय का धर्म है कि वह शत्रु को मारे अथवा उसके द्वारा मारा जाये ।
(महाभारत ७.१९७.३८)
क्षत्रियेण हि हन्तव्यः क्षत्रियोलोभमास्थितः अक्षत्रियो वा।
क्षत्रिय के लिये लोभग्रस्त क्षत्रिय अथवा अन्य को मार देना उचित है ।
(महाभारत ५.८२.१६)

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