यदि मुझे मोदी जी बना दिया जाए तो मैं रात आठ बजे tv पर आकर घोषणा कर दूँ कि आज रात बारह बजे के बाद चाट में दही डालना इलीगल होगा.
चाट का सारा सत्यानाश वो एक प्लेट में किलो भर दही, फ़ैंसी दस रुपए की ख़ाली प्लेट और डिज़ायनर चम्मच ने कर रखा है. चाट का फ़ील ही नहीं आता.
चाट शब्द ही चटनी से आया है, पर शहरों में बड़ी दुकानों में चाट खाइए तो डिज़ायनर प्लेट में जिसे फेकने का मन नहीं करता, डिज़ायनर चम्मच और रूमाल जैसी मोटी नैपकिन, कुंतल भर दही प्लेट में. इस सबके बीच कहीं डुबकी हुई मरी गली टिक्की पड़ी होगी.
ऊपर से यह कि मेनू बेहद लिमिटेड. टिक्की, गोलगप्पे, दही बड़े – बस हो गई चाट.
चाट को जीवित रखा है भारत के गाँवों ने. छोटे छोटे ठेलों में इतनी वराइयटी की चाट होती है – प्याजी, बैंगनी, पालक, ख़स्ता, सुहाल, टिक्की वग़ैरह वग़ैरह.
आज कानपुर जाते हुवे नवाबगंज में परमेश्वर की दुकान पर गोला खाया गया. लोकल चाट आइटम है. फ़ैंसी आलू बोंडा का अरिजिनल ग्रामीण संस्करण. बढ़िया फ़्रेश इमली की चटनी और लोकल फ़्रेश मसाले. सबसे महत्व पूर्ण चाट सर्व होती है फ़्रेश पत्तल के बने दोने में. हम यही कैल्क्युलेट कर रहे थे कि वाक़ई इन दोनो को बनाने में कितनी मेहनत लगती होगी, पत्तल बिनना मैन्यूअली. फ़िर एक एक को जोड़ लकड़ी फ़ँसा दोना बनाना. सब कुछ बिलकुल ऑथेंटिक. चाट खाने में टेस्ट तो आता ही है साथ ही लगती भी है बिल्कुल ऑथेंटिक, ज़मीन से जुड़ी हुई.
कभी भी किसी भी हाइवे पर जा रहे हों थोड़ी रीसर्च पहले कर लें, ग्रामीण अंचल में चले जाएँ और असली चाट का मज़ा लें.
और हाँ बजट फ़्रेंड्ली भी. चार लोगों ने पेट भर खाया, सौ रुपए दिए, उसमें भी कुछ वापस हुवे.