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आभार के साथ कॉपी किया गया : आरक्षण

by राजीव मिश्रा
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भारत की आरक्षण व्यवस्था दुनिया का सबसे बड़ा तिलिस्म, mass delusion, है। सामान्य जाति का हर बेरोज़गार सोचता है कि वह केवल आरक्षण की वजह से बेरोज़गार है। आरक्षित जाति में जिन्हें सरकारी नौकरी मिली है वो सोचते है कि आरक्षण में ही बच्चों का भविष्य है। आरक्षित जाति में जिन्हें नौकरी नहीं मिली है वो सोचते है उन्हें नहीं तो बच्चों को ज़रूर मिलेगी और केवल आरक्षण से ही मिलेगी।
कोई भी हर साल निकलने वाली कुल सरकारी नौकरियाँ व हर साल नौकरी की आयु प्राप्त करते युवकों की संख्या के बारे में नहीं सोचता कभी।
इस से बड़ी गणितीय अँगूठाछापी mathematical dissonance मिलना मुश्किल है। यहाँ तक कि हर साल निकलने वाली कुल सरकारी व कुल निजी नौकरियों का जोड़ भी हर साल के नौकरी की आयु को प्राप्त होते युवकों की संख्या के सामने कुछ नहीं है।
भारत का व भारत के युवाओं का भविष्य केवल ओद्योगिकीकरण में है। लेकिन भारत में क्यूँकि नौकरी का मतलब सरकारी नौकरी है, और illusion है कि आरक्षण से सरकारी नौकरी मिलती है इसलिए उसके लिए तो हम ख़ूब बस व ट्रेन जलाते है, लेकिन आर्थिक आज़ादी के लिए कभी नहीं।
भारत के शिक्षित भी नहीं जानते कि wealth क्या होती है, कुछ देश अमीर क्यूँ है, कुछ ग़रीब क्यूँ है, नौकरी क्या है, नौकरी क्यूँ होती है, और नौकरी में वेतन ज़्यादा कैसे हो सकता है और भारत में कम क्यूँ है। हर भारतीय सरकार से कहता है कि नौकरी दो, और समाजवादी नेता देने का वादा कर चुनाव भी जीतते है और नौकरिया ख़त्म करते है व सबको ग़रीब बनाते है।
और ग़रीबी का परिणाम होता है कि लोग और ज़्यादा आरक्षण माँगते है, जिनको अब तक नहीं मिला वो भी आरक्षण माँगते है।
मान लीजिए एक रोटी है। दुनिया में बहुत लोगों ने कहा कि रोटी में से सब के लिए बराबर हिस्से कर दो तो समस्या समाप्त हो जाएगी। लेकिन जब रूस में ऐसा किया गया तो रोटी ही समाप्त हो गयी और जिनको मिल रही थी उनको भी मिलनी बंद हो गयी। क़रीब 40 लाख रूसियों को मारे जाने के बावजूद भी रोटी नहीं बन पायी।
अमरीका व काफ़ी यूरोपीय देशो में कहा गया कि सब अपनी रोटी बनाओ और खाओ। लेकिन रोटी बनाने के लिए ना सरकारी पर्मिट की ज़रूरत है, ना लाइसेन्स की। परिणामस्वरूप इतनी रोटियाँ बनती है कि फेंकनी पड़ती है। मनुष्य को कुछ नहीं चाहिए सरकार से। केवल इतना कि रोटी बनाने की स्वतंत्रता हो और रोटी बन जाए तो ना सरकार ख़ुद छीनकर बाँटे, ना किसी को छीनने दे। इतना हो जाता है तो इतनी रोटियाँ बनती है कि बच जाती है।
हाँ, सबकी रोटियाँ बराबर नहीं बनती, किसी की ज़्यादा, किसी की कम, किसी की अच्छी, किसी की जली हुई।
भारत में सब कहते है कि रोटी सरकार बनवाए हमसे, और फिर हमें हमारा सही हिस्सा दे। नतीजतन रोटी हमेशा कम पड़ती है और फिर सब छीना झपटी मचाते है और आरक्षण माँगते है। ऐसा इसलिए कि सरकार कभी रोटी नहीं बना सकती। बात इरादों या भ्रष्टाचार या अच्छे नेता ना होना या अच्छे नौकरशाह ना होने की नहीं। सरकार रोटी बना ही नहीं सकती। जैसे बन्दर कम्प्यूटर नहीं बना सकते चाहे उनके इरादे कितने भी अच्छे क्यूँ ना हो और वे कितने भी मेहनती क्यूँ ना हो। यहाँ तक कि अमरीका जैसे देश में भी जब सरकार ने कहना शुरू किया कि रोटी की गुणवत्ता हमसे पूछकर तय होगी व थोड़ी रोटी ग़रीब को देनी होगी हमारे द्वारा तो रोटियाँ बनाने में दिक़्क़त आने लगी। बिना रोटी वाले ग़रीब का ख़याल सरकार को नहीं समाज को रखना चाहिए, परिवार क़ुटूम्ब को रखना चाहिए, और अब तक रखते भी थे।
भारत में सम्पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता के लिए आंदोलन की आवश्यकता है और जब तक सम्पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता व निजी सम्पत्ति की सुरक्षा व वचन की पवित्रता की संस्कृति नहीं आती, आरक्षण के लिए आंदोलन होते रहेंगे और लोग भूखे मरते रहेंगे और युवक हताश व बेरोज़गार घूमते रहेंगे, किसी भी किरांतिकारी के चंगुल में जाने को तैयार। अर्थशास्त्र पढ़े पढ़ाए। वचन ना तोड़े। दूसरे की सम्पत्ति पर कुदृष्टि ना डाले।

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