क प्रश्न या आशंका मित्र गण उठाते रहते है कि इन किसानों के भेष में इन आढ़तियों के फर्जी आंदोलन को सरकार ने इतनी छूट क्यों दी हुई है या फिर इस जमघट की हिंसात्मक एवं भड़काऊ भाषा के प्रति सरकार नरम क्यों है?
मित्र गण सही कहते है। अगर सरकार चाहे तो एक दिन में राजकीय हिंसा (पुलिस, अर्धसैनिक बल, सेना) का प्रयोग करके, कई क्षेत्रो में कर्फ्यू लगाकर इस जमघट को समाप्त कर सकती है।
पूर्व की सरकारों ने ऐसा किया भी था। पंजाब की हिंसा को सेना, अर्धसैनिक बल, पुलिस, जूलियो रिबेइरो, के पी एस गिल इत्यादि के नेतृत्व में कुचल दिया गया था। यही स्थिति असम में थी जहाँ के पी एस गिल ने पंजाब के पूर्व हिंसा का प्रयोग किया था। मणीपुर, मिजोरम, पश्चिम बंगाल इत्यादि में भी अराजक हिंसा को राजकीय हिंसा से परास्त कर दिया गया। नक्सल हिंसा, जम्मू-कश्मीर की आतंकी हिंसा इत्यादि को भी राजकीय हिंसा द्वारा सीमित कर दिया गया है।
इन सभी राजकीय हिंसा के प्रयोग में कुछ बाते कॉमन थी।
प्रथम, अधिकतर अराजक हिंसा भारत से अलग होने की मांग को लेकर थी जिसे वृहद जनता एवं प्रमुख राजनैतिक दलों का सपोर्ट नहीं था। नक्सल भारत राष्ट्र का ही विघटन चाहते है क्योकि उनके अनुसार राष्ट्र शोषण करने का एक टूल है। असम की हिंसा के पीछे इंदिरा गाँधी द्वारा 40 लाख बांग्लादेशियों को नागरिकता देने के विरोध में था जिसे बेरहमी से कुचल दिया गया। लेकिन उस समय सोशल मीडिया ना होने से अधिकतर लोगो को असम में की गयी राजकीय हिंसा के बारे में पता ही नहीं है।
इन सभी हिंसाओं में हज़ारो भारतीयों की मृत्यु हो गयी; राज्य अस्थिरता के लम्बे दौर – दो से तीन दशक तक – गुजरा; कोई भी विशाल उद्यम नहीं लग पाया; निवेश नहीं हुआ; पुराने उद्यम छोड़कर चले गए। सबसे बड़ी राज्य प्रायोजित हिंसा इमरजेंसी थी। उदाहरण के लिए, पंजाब से होज़री एवं कपड़ें, खेल का सामान, साइकिल जैसे उद्यम जिसमे यह राज्य एक समय भारत में अग्रणी था, कहीं और पलायन कर गए। पश्चिम बंगाल एक समय उद्यमियों का गढ़ हुआ करता था; सब कहीं और चला गया। असम जैसे राज्य पनप ही नहीं पाए।
द्वितीय, जब हम कुछ दशक पूर्व हुई अराजक हिंसा को प्रमुख राजनैतिक दलों का समर्थन ना मिलने की बात करते है, तब यह भूल जाते है उस समय केवल एक ही प्रमुख राजनैतिक दल था जिसका एक ही हाई कमांड था। केंद्र एवं लगभग सभी राज्यों में एक ही दल – कांग्रेस जिसका नेतृत्व एक ही परिवार के पास था – की सरकार थी। अतः, कांग्रेस के निर्णय को कोई चुनौती नहीं थी। असम के अकेले नेल्ली नरसंहार में 3000 लोग मर गए थे जिसकी जांच आयोग की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं हुई है। फिर, असम में विरोध छात्र संघ कर रहा था, कोई राजनैतिक दल नहीं। यही स्थिति पंजाब हिंसा की थी – जब केंद्र एवं राज्य दोनों में कांग्रेस सरकार थी – जिस में कई हज़ार भारतीयों की मृत्यु हो गयी।
तृतीय, उस समय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नाम पर केवल AIR एवं दूरदर्शन होता था। इंडियन एक्सप्रेस को छोड़कर राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय समाचार पत्र कांग्रेस के समर्थक थे; कारण यह था कि बिना सरकारी सपोर्ट – जैसे अखबारी कागज पे ड्यूटी से राहत, सरकारी विज्ञापन, सरकारी घर, फ्री की हवाई यात्रा के – वे समाचारपत्र एक दिन भी नहीं चल सकते थे। बुद्धिजीवी वर्ग कोंग्रेसी था; इमरजेंसी के समर्थन में खड़ा था। एक तरह से आम नागरिको को कौन सी सूचना मिलेगी, यह कांग्रेस – क्योकि इसकी सरकार सब जगह थी – डिसाइड करती थी।
चतुर्थ, हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के जजों का चयन सरकार करती थी। एक तरह से न्यायालय से जो निर्णय चाहिए, सोनिया खानदान निकलवा लेता था।
पंचम, सोनिया परिवार ने लोलीपॉप, स्लोगन, इमरजेंसी, तुष्टिकरण, गुंडागर्दी, चमचो के द्वारा अपने आप को सत्ता के शीर्ष पर बनाये रखा; बाद में यही रणनीती मुलायम, लालू, बादल, ठाकरे, पवार परिवारों ने अपना ली। अपने और अपने खानदान को खरबो रुपये लूटकर समृद्ध किया। बिटिया के पति सांसद, स्टेनो सांसद और मंत्री, यार-दोस्त सांसद और मंत्री; और “चिराग” की बहन और किसान बहनोई सरकारी बंगले में। निर्धनों के नाम पर अपने विशेषाधिकारों तथा सुख सुविधाओं को सुरक्षित रखा।
क्या यह तथ्य नहीं है कि 370 के नाम पर यह सब मौज कर रहे थे? क्या यह तथ्य नहीं है यह सभी शक्तियां दिल्ली में सरकारी मकान फ्री में लेकर बैठे हुए थे, इन्हीं लोगों ने विभिन्न राज्य सरकारों में अपने लिए प्लॉट और फ्लैट आवंटित करा लिए थे? चाहे चिकित्सा सुविधा हो या वातानुकूलित घर, महंगी कारें तथा ट्रैक्टर, यह सभी इनको इन्हीं विशेषाधिकारों के कारण मिले हैं, निर्धनों का शोषण करके मिले हैं। निर्धनता हटाने का नारा दिया, लेकिन व्यवस्था ऐसी बनाई जिससे अभिजात वर्ग ही समृद्ध बने।
आज स्थिति क्या है?
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