Home हमारे लेखकइष्ट देव सांकृत्यायन उस्ताद आदिल खां और वृंदावन लाल वर्मा

उस्ताद आदिल खां और वृंदावन लाल वर्मा

1954-55 की बात

by Isht Deo Sankrityaayan
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उस्ताद आदिल खां और वृंदावन लाल वर्मा
1954-55 की बात है। मूर्धन्य इतिहासकार और साहित्यकार वृन्दावनलाल वर्मा दतिया पीतांबरा पीठ के स्वामी जी के शरणागत हो चुके थे। उस समय भारत के चोटी के गवैयौ मे से एक उस्ताद आदिल खां झाँसी मे रहते थे और वृंदावन लाल वर्मा जी के मित्र थे। दुर्दैव से उस्ताद जी की आवाज लोप हो गई। आदिल खां भारी भावुक व्यक्ति थे सो वो मरने की सोचने लगे तब वर्मा जी ने उनको सम्बल दिया और उन्हे लेकर दतिया आये और उस्ताद जी की समस्या को लेकर श्री चरणो मे निवेदन किया।
महाराज जी शास्त्रिय संगीत के भारी रसिक थे। हों भी क्यों ना विद्या को सम्मान दक्षिणामूर्ति ना दे तो कौन दे।उस समय महाराज बरामदे मे अपने मूढे (बेंत की बनी कुर्सी )पर विराजमान थे और खैनी घिस रहे थे।
वे वर्मा जी की बात सुन रहे थे पर उनकी आंखे आदिल खां को देख रही थी। जो उनके अस्तित्व को भेदे जा रही थीं। यह बात आदिल खां ने अपने संस्मरण मे लिखी है। स्वामी जी चुपचाप सुनते रहे और खैनी खाने के पश्चात उसका बचा हिस्सा उस्ताद आदिल खां को दिया।
दो मिनट बाद एक दम बोले ” खां साहब ! बागेश्वरी मे कुछ सुनाइये “
खां साहब किंकर्तव्य विमूढ हो कभी स्वामी तो कभी वर्मा जी को देखते तभी फिर से कठोर स्वर मे आज्ञा हुई..… “गाइये “
खां साहब हिम्मत करके गाना शुरू किये। एक दो मुर्की खरखराती आवाज में निकलने के बाद अचानक से लंबा आलाप निकलने लगे। उनके कंठ से जो आवाज निकली कि उसको कभी कुछ हुआ ही ना था। पंडित रेवाराम तिवारी सुनाते थे की खां साहब ने गजल गाई :-
” जो ऐतबार-ए-उल्फत मुझ पर ना हुई तुमको
मै समझगया की कमी मेरी ही जात मे है”
तिवारी जी कहते है की खां साब ने ऐसा गाया ऐसा गाया की चार बरस का अपना सारा दर्द उस एक गाने मे भर दिया। वर्मा जी, तिवारी जी के साथ जितने लोग बैठे थे सबके आंसू निकल गये। परंतु दाता निश्चल भाव से पूरा गान सुनते रहे। गान पूरा होने के बाद खां साहब भाव विह्वल हो के चरनो मे पड़ गये की दाता शरण लीजिए। भाग्य प्रबल था तो स्वामी जी ने एक माला मंगा कर खां साहब को दी और पूछा :-
” आदिल ! कौन सा मन्त्र लोगे अरबी या संस्कृत ? मै सब देने मे समर्थ हूं, तुम कहो “
यह सुन कर उस्ताद जो लगभग रूंआसे बैठे थे वो फूट फूट कर रोने लगे और फिर संभल कर बोले…“ मुझे संस्कृत या अरबी से क्या लेना, ना मै जानता यह सब। मै तो अब आपका आशिक और गुलाम हूँ। और आशिक तो बस मोहब्बत कर सकता सो जो मालिक कहेंगे वो सर आंखो पर रहेगा।
“खां साहब पर कृपा हुई मातंगी माई का उपदेश उनको हुआ। आप पर और मुझ पर भी ऐसी कृपा हो यही कामना है..

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