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एक परिंदा एक छत पर बैठकर

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एक परिंदा एक छत पर बैठकर कुछ सोच ही रहा था कि तभी एक इंसान उसकी तरफ लपका लेकिन पकड़ नहीं पाया,
मगर परिंदा वहां से उड़ा नहीं …
इंसान को आश्चर्य हुआ तो उसने परिंदे से पूछा ,
ओ परिंदे तू चाहता तो उड़ सकता था, मेरी पकड़ में आने से बच सकता था, अपनी आजादी को बचा सकता था..!
पर ये बता तू उड़ा क्यों नहीं…!!!
इंसान की बात सुनकर परिंदा बोला: तुमने मेरी धर्म माँ की हत्या कर दी है, मुझे अनाथ कर दिया है अब मैं कहाँ जाऊं इसलिए मैंने विचार किया है कि मैं अब तुम्हारे घर की सजावट बन कर अपना पेट भरूँगा..!
एक हत्यारे के समक्ष समपर्ण करना , उसके साथ रहना , उसके साथ समझौता करना मेरी मजबूरी है..!
इंसान ने आश्चर्य से पूछा : कौन है तुम्हारी धर्म माँ और मैंने कब हत्या कर दी…??
परिंदा थोड़ी देर तक चुप रहा फिर बोला ; प्रकृति है मेरी धर्म माँ…!
इंसान खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला ;
तुम्हारे आरोप मूर्खतापूर्ण और बेबुनियाद हैं, तुम विकास के दुश्मन हो और स्वार्थी हो..!
चलो मैं तुम पर दया दिखाता हूँ , घर में अपने आश्रय दिलवाता हूँ..
परिंदा चुपचाप शोभा की वस्तु बन गया, करता भी क्या जो उसका घर उजड़ गया,
दोषी अपना दोष अपने सर पर लेने से ही मुकर गया…!!
शचि

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