Home राजनीति कन्हैयालाल जी कोई अकेले तो नहीं हैं. कितने कन्हैयालाल हुए…गिनती खो गई, नाम भुला दिए गए.

कन्हैयालाल जी कोई अकेले तो नहीं हैं. कितने कन्हैयालाल हुए…गिनती खो गई, नाम भुला दिए गए.

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कन्हैयालाल जी कोई अकेले तो नहीं हैं. कितने कन्हैयालाल हुए…गिनती खो गई, नाम भुला दिए गए.

और हुजूर की तौहीन तो सिर्फ एक बहाना है. एक चंदन गुप्ता थे जिन्होंने सिर्फ गणतंत्र दिवस पर तिरंगा उठाया था. एक डॉ नारंग थे जिन्होंने वह भी नहीं किया था…होली के दिन अपने घर के सामने अपने बेटे के साथ क्रिकेट खेल रहे थे. कोई तौहीन करना जरूरी नहीं है… एक काफिर अपने घर में अपने त्योहार पर खुश है, बस इतने में तौहीन हो जाती है.
फिर 2002 में क्या हुआ था? 2002 में एक टैक्टीकल कैलकुलेशन मिस्टेक हो गया था. उन्होंने पूरी ट्रेन में आग लगा दी थी, महिलाओं और बच्चों को जला डाला था. बात वहां पहुंच गई थी जब हिन्दू का भी खून खौल उठा था. अब वे वह गलती नहीं कर रहे. अपनी हिंसा और घृणा को उस थ्रेशोल्ड के नीचे रख रहे हैं जहां हिंदू सामूहिक प्रतिकार ना करे. धीरे धीरे गहराई नाप रहे हैं. आज वे नोआखाली नहीं कर सकते, मोपला नहीं कर सकते, कलकत्ता का डायरेक्ट एक्शन नहीं कर सकते… गोधरा भी नहीं कर सकते…तो उदयपुर करके काम चला रहे हैं. उन्हें पता है कि हिन्दू एक उदयपुर पर वह प्रतिक्रिया तो नहीं ही देगा जो गोधरा पर दी थी.
हिंसा iस्लाम का स्थायी भाव है. हिंदुत्व का स्थायी भाव शांति और सह-अस्तित्व है. वे हर समय युद्ध की स्थिति में रहते हैं, हम नहीं रह पाते. हम बहुत अधिक प्रताड़ित होते हैं तो एक बार प्रतिकार के लिए खड़े होते हैं. उस प्रतिकार की भी एक कीमत होती है. एक क्षण के लिए पशुवत होना होता है. आपको शत्रु की मानसिकता अंगीकार करनी होती है. अपने मूल स्वभाव की क्षति होती है. हिंदुओं ने बहुत क्षुब्ध होकर 2002 में वह प्रतिकार किया था. उसकी एक कीमत चुकाई थी. तीन साढ़े तीन सौ हिन्दू भी मारे गए थे. बदले में गुजरात ने बीस वर्ष की शांति जीती है. साथ ही एक मनोवैज्ञानिक लाभ भी जीता कि हिन्दू निरंतर एकतरफा हिंसा नहीं झेलता रहेगा. आक्रांता का सिर्फ शारीरिक नुकसान ही नहीं किया था, मानसिक मानमर्दन भी किया था. शत्रु का मनोबल तोड़ना शान्ति के स्थायित्व की शर्त थी.
मोदीजी से मेरी क्या नाराजगी है?
2002 के इस मोमेंटम ने देश की सोच की दिशा बदल दी. उससे उत्पन्न आत्मविश्वास ने हमें कांग्रेसी सेक्युलर दासता से मुक्ति दी थी. मोदीजी ने उस मोमेंटम को, उस साइकोलॉजिकल एडवांटेज को गंवा दिया. मैं उनमें से नहीं हूं जो यह उम्मीद करता हो कि मोदीजी स्वयं कट्टा लहराते हुए क्यों नहीं चलते. अगर मोदी ऐसा करते तो नुकसान ही होता…हिन्दू कंप्लेसेंसी की चिर निद्रा में ही सोया रहता. और जो स्थिति आज समस्या के 20% होने पर पैदा हुई है वह कुछ वर्षों बाद उसके 40% होने पर पैदा होती. पर मोदीजी ने अपने हाथ से सहला पुचकार कर उस मनोवैज्ञानिक लाभ को नष्ट किया है. उस मोमेंटम को तोड़ा है. हर बार जब आप किसी तबरेज पर नाराज होते हैं, किसी शबाना की टूटी टांग पर ट्वीट करते हैं, वेंब्ले स्टेडियम में खड़े होकर किसी इमरान के किस्से सुनाते हैं, अपनी मां के जन्मदिन पर किसी अब्बास की याद में भावुक होते हैं तो हजारों अब्बास, लाखों तबरेज़ यही मैसेज लेते हैं कि यह मोदी कुछ नहीं कर पाएगा… यह 2002 के गिल्ट में डूबा है. इससे डरने की जरूरत नहीं है. तब एक कन्हैयालाल, एक चन्दन गुप्ता आसान शिकार बन जाते हैं. हिन्दू समाज ने 2002 में जो प्रभाव अर्जित किया था, जो शान्ति स्थापित की थी वह नष्ट हो जाती है.
मोदी की इतनी ही उपयोगिता है कि वे चुनाव जीतें और शासन तंत्र को शत्रु के हाथ में जाने से रोके रखें. और अपने राजनीतिक चातुर्य की वजह से मोदी इस कार्य के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं. अगर मोदी इसके अलावा और कुछ नहीं कर सकते तो ना करें… पर यह अब्बासों को पुचकारना छोड़ दें. उन्हें कंप्यूटर पकड़ा कर और यूपीएससी पास करा कर इन्सान बनाने की कोशिश छोड़ दें. उन्हें यह भ्रम है कि दिल्ली की कुर्सी पर बैठा आदमी हिन्दू है और हिन्दू हितों के लिए खड़ा होगा…तो कम से कम यही भ्रम बना रहने दें. यह भ्रम ही लाखों हिंदुओं का रक्षा कवच है. शक्ति केवल वही नहीं होती हो आपके पास है, बल्कि वह भी शक्ति है जो शत्रु समझता है कि आपके पास है.
जब मैं #ShowSomeSpine कहता हूं तो वह किससे कहता हूं? मोदी से ही कहता हूं. मैं यह रीढ़ की हड्डी दिखाने की अपेक्षा मोदी से ही करता हूं. यह विरोध नहीं है, मांग है. इसका एक स्पष्ट अर्थ है कि मैं मोदी से सबल नेतृत्व की अपेक्षा करता हूं, ना कि मोदी का विरोध या उन्हें हटाने की मांग कर रहा हूं

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