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कहानी ईमानदार डॉक्टर और अस्पताल की | प्रारब्ध

Author - Nitin Tripathi

by Nitin Tripathi
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एक परिचित डॉक्टर थे. अस्पताल में दवा सप्लाई का ठेका लिया. सज्जन व्यक्ति थे पहली बार व्यवसाय कर रहे थे. ठेका उन्हें उस रेट पर मिला जिसमें दवा का मैन्युफ़ैक्चरर भी सप्लाई ना करता. एक महीने में कंगाल हो गए. फ़िर उन्होंने एक पुराने घाघ को दे दिया चलाने के लिए अब फ़ायदा ही फ़ायदा. ज़ाहिर सी बात है कि वह एक दरवाज़े से दवाई भेजता था दूसरे दरवाज़े से दवाई बाहर. यह भी है कि मजबूरी थी ईमानदारी से कर नहीं सकते.
एक बार मैंने स्वयं शराब की दुकान का ठेका लिया था. ऐसे ठेकों में आपको होल सेल में लेना सरकारी होलेसेलर से पड़ता है. रिटेल प्राइस फ़िक्स होता है तो सरकार को इग्ज़ैक्ट मालूम होता है कि आपने एक करोड़ का माल बेंचा तो पंद्रह लाख आपकी जेब में आए. सरकार ने उसका वार्षिक शुल्क इस आधार पर तय किया था कि पिछले साल जितनी आपकी जेब में आया था वह पूरा सरकारी लाइसेंस फ़ीस.
अर्थात् ऊपर के उदाहरण में यदि आप ईमानदारी से चलते हैं और आपकी सेल पिछले वर्ष जितनी है तो पूरा पंद्रह लाख सरकार को दें लाइसेंस फ़ीस में. बिज़नस अब मुफ़्त में जेब से करें. दुकान किराया, तनख़्वाह, पुलिस, इक्साइज़ सब जेब से भरें और फ़ायदा तो गंदी बात. दो महीने में परेशान हो गए. फ़िर हमने यह किसी और को दे दिया. वह एक दुकान से जिसमें नियमतः जेब से लगना था वो i10 ख़रीद लाया.
एक ज़िला स्तर के सरकारी ठेकेदार से बात हो रही थी. 35% कमीशन पर ठेके लेता है. अब समझिए 35% कमीशन देगा तो क्या गुणवत्ता देगा.
वैसे समस्या भ्रस्टाचार नहीं हमारा चरित्र है कि हम सोसलिस्ट व्यवस्था के आदी हैं, समझ ही नहीं पाते कि व्यवसाय और दुनिया पैसे से चलती है.
अभी MP MLA की पेंशन का मामला है. 99% के पेट में दर्द रहता है दस हज़ार पेंशन क्यों दी जाती है. आप सोंचिए आज की तारीख़ में सरकारी चपरासी की इससे ज़्यादा पेंशन है पर MLA की बंद होनी चाहिए.
बंद कर दीजिए. इससे यह होगा कि एक दो प्रतिशत जो अभी ईमानदार आते भी हैं वह बंद हो जाएँगे आप पेंशन बंद करने की बात करते हैं, उल्टा पेन्शन ले लीजिए कि जो mla बने वह ज़िंदगी भर जेब से दस हज़ार दे. आप देखिए लाइन लग जाएगी इच्छुक लोगों की. पर खुद को तो इतनी समझ होनी चाहिए कि अगर आप दस हज़ार देने में संकोच कर रहे हैं तो ऐसे नेता मिलेंगे जो एक लाख ब्लैक में कमाएँ.
भारत की हर समस्या यहाँ तक कि भ्रस्टाचार का जड़ भी यही समाजवादी सोंच है. पैसा कमाना गंदी बात. उसे ठेका दो जो कम से कम की बोली लगाए. उससे सामान ख़रीदो जो सबसे सस्ता दे भले ही हमें पता हो कि इतने में तो कॉस्ट भी न निकलेगी. ऐसे में ईमानदार व्यवसाई व्यवसाय नहीं कर पाते और बेमानों का बोलबाला रहता है.
जब तक हम आधुनिक विश्व में कैप्टलिस्ट सोंच नहीं रखते, पैसे / व्यवसाय के मामले में प्रैक्टिकल अप्रोच नहीं रखते, जो कॉस्ट से कम में बेंच रहा है उसे पनिश करने की बजाय उससे सामान ख़रीदने की आदत नहीं बदलते, देश में आम नागरिकों का जीवन दिन ब दिन मुश्किल होता जाएगा.
यही समाजवाद है आपको पूंजीवाद के ख़िलाफ़ भड़काने वाले स्वयं अपने पूँजीपतियों से कमीशन लेकर बड़े महलों में रहेंगे और आप खुश रहेंगे कि हमने / सरकार ने कम क़ीमत पर काम करवाया.

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