कृष्ण_की_विनम्रता

देवेन्द्र सिकरवार

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कृष्ण के एक चचेरे भाई थे जिन्होंने मुनिवृत्ति अंगीकार कर ली और घोर अंगिरस कहलाये।
घोर इसलिये कि बहुत कठिन तप किया और अंगिरस उनका गोत्र या गुरु का नाम हो।
बहरहाल एक बार कृष्ण से उनकी भेंट होती है और वे कृष्ण को उपदेश देते हैं।
कृष्ण संसार के सबसे ज्यादा राजी होने वाले व्यक्तित्व हैं। वे कभी किसी को मना नहीं करते।
कुब्जा, एक कुबड़ी जिसे देखकर सब घिना जाते हैं और वह कृष्ण से मिलन का वरदान मांगती है और कृष्ण राजी हो जाते हैं।
अर्जुन उन्हें सारथी बनाते हैं वह इसके लिए भी राजी हो जाते हैं।
यहां भी कृष्ण घोर अंगिरस का शिष्य बनने राजी हो जाते हैं।
साधना करते हैं और फिर उनके चचेरे भाई साधना पूर्ण कराकर चले जाते हैं।
कृष्ण नहीं कहते कि जो तुम बता रहे हो वह मैं पहले से जानता हूँ क्योंकि संसार में कृष्ण से बेहतर कोई शिष्य नहीं।
चूँकि वे सबसे बेहतर शिष्य हैं इसलिए वे जगद्गुरु हो सके।
आदि शंकर भी अभिभूत होकर कहते हैं-
“कृष्णम् वंदे जगद्गुरुम्”
कृष्ण इसके लिए भी राजी हैं।
ऐसे ही व्यक्तित्व हैं बुद्ध जो हर किसी का मत जानने को उत्सुक हैं, शिष्य बनने को तैयार हैं और उनके मत विचार को पूरे ध्यान से सुनते हैं और फिर अपने प्रश्न शुरू करते हैं। कुछ समय बाद गुरु बनने आया व्यक्ति बुद्ध का शिष्य बन जाता है।
बुद्ध भी इसलिये विराट हो सके कि वे सदैव शिष्य बनने तैयार हैं।
बस एक अंतर है कृष्ण और बुद्ध में।
बुद्ध प्रश्न करते हैं सामने वाले से, कृष्ण वह भी नहीं करते और सबकुछ निगल जाते हैं।
बुद्ध अहं की दिशा मोड़ते हैं, कृष्ण अहं का भक्षण कर लेते हैं।
भगवद्गीता में वह कहते हैं
“तुम्हारा अहं ही मेरा भोजन है।”
और हाँ घोर अंगिरस ही जैनों के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ हैं।

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