Home लेखक और लेखराजीव मिश्रा जज साहिब ने हिजाब की सुनवाई बड़ी बैंच के पास पहुंचाई..

जज साहिब ने हिजाब की सुनवाई बड़ी बैंच के पास पहुंचाई..

राकेश गुहा

by राजीव मिश्रा
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जज साहिब ने हिजाब की सुनवाई बड़ी बैंच के पास पहुंचाई..
ये तो होना ही था कल जब जज साहिब ने सुनवाई की शुरुआत ही इस टिप्पणी के साथ की, कि वे संविधान को भगवद्गीता से ऊपर मानती है तभी लग गया था वे इस सुनवाई का भार नही उठा पाएंगी।
क्योंकि जब आप दूसरों को अपने निष्पक्ष होने का सर्टिफिकेट देने लगते है तो उसी वक्त से आप कमजोर हो जाते है।
लेकिन क्या आपने कभी किसी मुसरिम जज को सुनवाई के दौरान ये कहते हुए सुना है कि वो संविधान को कु रान से ऊपर मानते है ?? नही ना ??
जज होना ही निष्पक्षता का सर्टिफिकेट है। आपको अलग से सर्टिफिकेट देने की आवश्यकता नही है..
जब दीपक मिश्रा जी CJI बने तो अनेक राष्ट्रवादियो ने कहा अब राममंदिर का फैसला आ जाएगा लेकिन हमनें कहा कुछ नही होगा।
लेकिन 2019 में किसी ने हमसे पूछा कि गोगोई साहब फैसला कर पाएंगे ? तब हमने कहा बिल्कुल, केवल वही फैसला कर सकते है, चाहे पक्ष में करें या विपक्ष में. यदि ये भी चूक गए तो 10 साल भूल जाइये।
दरअसल वामपंथी सिस्टम की काट केवल दो प्रकार के व्यक्तिव ही कर सकते है या तो घोर वामपंथी या कट्टर हिंदुत्ववादी. दूसरों को अपने व्यक्तित्व का सर्टिफिकेट देने के लिए लालायित मानसिकता कभी भी शक्तिशाली इकोसिस्टम से नही लड़ सकती।
चलते चलते एक किस्सा याद आ गया..
कुछ दिन पहले रुबिका लियाकत मजहबी मामले पर टीवी डिबेट कर रही थी. तब मौलाना साहब ने पूछ लिया कि आपको E सलाम का क्या पता, आपको डिबेट का अधिकार ही नही है. तब रुबिका ने एक सांस में कलमा पढ़कर सुना दिया और साथ ही किताब में कितनी आयते है, हदीस क्या है सब बता दिया, मौलाना की बोलती बंद हो गई।
लेकिन ऐसे ही एक बार सुमित अवस्थी जो पहले news18 में “हम तो पूछेंगे” शो करते थे एक डिबेट में हिन्दू महासभा की मेहमान ने अपनी बात गीता के श्लोक से शुरू करते हुए कहा सुमित जी आपने तो पढ़ा ही होगा ये श्लोक,
ये सुनते ही सुमित अवस्थी एकदम से मना करते हुए बोले, नही-नही मैंने नही पढ़ा ये श्लोक, मैंने गीता भी नही पढ़ी. उन्हें ऐसे करंट लगा जैसे मानो गीता पढ़ने से उनका सेक्युरिज्म/लिब्रिजम सर्टिफिकेट रद्द हो जाएगा.
ये है दो मानसिकताएं , दोनों ही बड़े पत्रकार, दोनों ही उच्च शिक्षित लेकिन दोनों की अपनी अपनी आस्था को लेकर एकदम विपरीत मानसिकता,
दरअसल समस्या हम में ही है… हमारे डीएनए में “सर्वे भवन्तु सुखिन:”, “वसुधैव कुटुम्बकम” जैसे सार्वभौमिक शब्द होने के बाबजूद हम अपने सेक्युलर/लिब्रल/निष्पक्ष होने का सर्टिफिकेट बाटते फिरते है,
क्योंकि झूठा इतिहास, झूठे नरेटिव रच रचकर हमें आकंठ तक हीन भावना से इतना ग्रसित कर दिया गया है… जबकि हम दुनिया की सबसे गौरवशाली, सबसे उदारवादी, सबसे मानवतावादी, सबसे न्यायप्रिय संस्कृति है और ये बात दुनिया जानती है सिवाय हमारे..
गुहा स्वतंत्र

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