Home राजनीति जम्मू-कश्मीर के 17 लाख बेघर लोग : भाग-3

जम्मू-कश्मीर के 17 लाख बेघर लोग : भाग-3

by Awanish P. N. Sharma
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कहां से : भारत-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र
कब से : 1947-48,1965 और 1971
कितने : तकरीबन 2,00,000
साल 2014 में लिखी गयी 7 भागों की इस सीरीज को दोबारा आपके सामने रखते हुए आग्रह रहेगा कि जरूर पढ़िए : इन्हीं 17 लाख लोगों में लाखों कश्मीरी पंडितों की कहानी भी आएगी सीरीज के अंतिम छठें-सातवें भाग में….
भारत ने पाकिस्तान को तीनों युद्धों में हराया लेकिन अपने घर-बार गंवाकर इसकी सबसे बड़ी कीमत सीमा पर रहने वाले लोगों ने चुकाई। देश के लोग इस बात से खुश होते होंगे कि हमने पाकिस्तान को युद्ध में हर बार हराया, लेकिन ये युद्ध किसके आंगन में लड़े गए ! इनकी कीमत कौन चुका रहा है ! इसकी सुध देश ने कभी नहीं ली।
2003 से पहले बहुत बड़ी संख्या में सीमा पर रहने वाले लोग अपने घर और गांव छोड़कर हमेशा के लिए दूसरे इलाकों में जाकर बस गए। इनमें से ज्यादातर को तो सेना ने खुद उनकी जमीनें खाली करने की सलाह दी थी ताकि सेना उस पर बंकर बना सके या बारूदी सुरंगें बिछा सके। जम्मू के डिविजनल कमिश्नर ने अपने एक बयान में ऐसे लोगों की संख्या 1.50 लाख के करीब बताई थी. जानकारों का मानना है कि अगर ये लोग फिर से वापस अपने घर लौटने की सोचें भी तो नहीं जा सकते क्योंकि इनके खेतों के नीचे बारुदी सुरंगें बिछी हैं। दूसरी बात यह भी है कि सेना के कब्जे वाली इस 16,000 एकड़ जमीन पर उनको प्रवेश की अनुमति नहीं होगी। वाधवा कमेटी ने इन लोगों की जमीन के बदले इन्हें मुआवजा देने की सिफारिश राज्य सरकार से की थी लेकिन आज तक हुआ कुछ नहीं।
जम्मू से 24 किलोमीटर दूर स्थित सुचेतगढ़ बॉर्डर। सुचेतगढ़ जम्मू जिले की आरएस पुरा तहसील का वह आखिरी गांव है जिसके बाद पाकिस्तान की सीमा शुरू होती है। गांव से बॉर्डर की तरफ के खेतों में एक लाइन से बड़ी संख्या में बने बंकरों की मौजूदगी होती है सेना के। बॉर्डर पर बीएसएफ की पोस्ट, सीमा को घेरते हुए कंटीले तारों से बनी बाड़ और उसमें दिया गया बिजली का करंट यह बताने के लिए काफी है कि हम किन हालातों के बारे में बात कर रहे हैं।
आश्चर्य है इन 2 लाख में से एक भी संख्या घाटी में नहीं गयी, जम्मू क्षेत्र में बदहाल जीने और देश भर में छिटकने के बावजूद। ऐसी संपत्ति जिसे बंटवारे के समय पाकिस्तान जाने वाले लोग छोड़कर गए थे उस पर भी राज्य सरकार विस्थापितों को अधिकार नहीं दे रही है।
फिलहाल सुचेतगढ़ के नजदीक ही एक गांव में रह रहे युद्ध-विस्थापित आज से तकरीबन 41 साल पहले यहां से तकरीबन 100 किमी दूर छंब सेक्टर (भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में हुई जंग के बाद से पाकिस्तान के कब्जे में) में रहते थे। कई एकड़ की उपजाऊ जमीन के मालिक ये लोग वहां समृद्ध किसान हुआ करते थे। 1971 की लड़ाई के बाद उन्हें घर और जमीन छोड़कर यहां आना पड़ा। अब हालात ये हैं कि उनका पूरा परिवार मजदूरी करके अपना जीवन चलाता है। सुचेतगढ़ बॉर्डर के इलाके और जम्मू के आस-पास के गांवों में छंब सेक्टर से विस्थापित होने वाले ऐसे ही लगभग दो लाख से ज्यादा लोग हैं। इनमें से ज्यादातर की व्यथाएं भी बिल्कुल एक जैसी हैं।
भारत-पाक सीमा पर स्थित छंब सेक्टर ने दोनों देशों के बीच कई जंगों देखी हैं। अत्यंत सामरिक महत्व वाले इस सेक्टर में 1947 के आस-पास लगभग 65 गांव थे। अगस्त, 1947 में जब पाकिस्तान सेना ने छंब पर हमला कर दिया तो यहां के लोगों को विस्थापित होना पड़ा। ये लोग जम्मू-कश्मीर के दूसरे इलाकों में चले गए। युद्ध समाप्त हुआ और भारतीय सेना ने पाक सेना से छंब सेक्टर को आजाद करवा लिया। लोगों को उम्मीद थी कि वे जल्द अपने घर वापस जा पाएंगे, लेकिन एक-दो नहीं बल्कि लगभग तीन साल बाद इन लोगों को अपने घर वापस आना नसीब हो पाया।
तब तक इनके घर मलबे में तब्दील हो चुके थे। पीछे छूटे मवेशी मर चुके थे या गायब थे। लोगों ने किसी तरह फिर से अपना जीवन शुरू किया। समय गुजरता रहा और 1965 में पाकिस्तान ने एक बार फिर से इस इलाके पर हमला बोल दिया। लोगों को फिर से अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। लोगों ने फिर से दूसरे इलाकों में शरण ली। 14-15 दिन तक लड़ाई चली फिर ताशकंद में समझौता हुआ और पाक ने छंब सेक्टर को खाली कर दिया। लंबे समय तक यहां के लोग दूसरी जगहों पर शरण लिए रहे। दो साल बाद फिर इन्हें वापस अपने गांवों में जाने को कहा गया। इस बार लगभग 20 गांवों के उन लोगों ने वापस अपने गांव जाने से इंकार कर दिया जिनके गांव बिल्कुल सीमा पर ही थे। ये लोग पाकिस्तान की तरफ से हमेशा होने वाली फायरिंग आदि से परेशान हो चुके थे। सरकार ने इन लोगों को सुचेतगढ़ बॉर्डर वाले इलाके में बसा दिया। बाकी के 40 गांवों के लोग फिर से अपने घरों में चले गए।
वापस जाने पर इनके घर-बार का इस दफा भी वही हाल था जो 1947 के समय हुआ था। पहले की तरह सब कुछ फिर से दोबारा खड़ा करने की इनकी कोशिश जारी ही थी कि पाकिस्तान ने 1971 में फिर से हमला कर दिया। लोगों को उम्मीद थी कि हर बार की तरह इस बार भी वही कहानी दुहराई जाएगी, लेकिन इस बार सब कुछ हमेशा के लिए बदल गया। युद्ध के बाद शिमला समझौता हुआ। दोनों देशों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा खींची गई और छंब सेक्टर हमेशा के लिए पाकिस्तान में चला गया। इसके साथ हमेशा के लिए चली गई इन 40 गांवों के लोगों की जमीन, उनके घर, मवेशी, खेत और पहचान। और इस इलाके के लोग हमेशा के लिए विस्थापित हो गए।
सरकार ने 1975 तक इन लोगों के रहने की व्यवस्था कैंपों में की। बाद में इन लोगों को जम्मू क्षेत्र के तीन अलग-अलग जिलों के सीमावर्ती इलाकों में 100 के करीब बस्तियां बना कर बसा दिया गया। चूंकि सभी लोग खेतिहर थे, इसलिए सरकार ने थोड़ी-थोड़ी जमीन और थोड़ी-बहुत धनराशि भी इन लोगों को दी थी। उसी समय केंद्र सरकार ने छंब विस्थापितों के पुनर्वास के लिए छंब विस्थापित पुनर्वास प्राधिकरण (सीडीपीआरए) का गठन किया था। लेकिन इस प्राधिकरण ने युद्ध विस्थापितों के पुनर्वास का काम पूरा होने के पहले ही फरवरी, 1991 में अपना ऑफिस बंद कर दिया। उसके बाद से ये विस्थापित आज तक उचित पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं।
सरकार ने यहां हर परिवार को 32 कैनाल सिंचित या फिर 48 कैनाल असिंचित जमीन देने की बात कही थी। लेकिन मुट्ठी भर लोग ही ऐसे होंगे जिन्हें सरकार ने अपने ही मानक के हिसाब से जमीन दी। जिन लोगों को ये जमीन मिली भी उसमें से काफी ऐसी थी जिस पर खेती करना असंभव था। जो सरकारी जमीन खेती के लिए लोगों को दी गई, उस पर भी सरकार ने बड़े संघर्ष के बाद 2000 में जाकर मालिकाना हक दिया। अब भी 1965 के समय विस्थापित हुए लोगों को खेती की जमीन पर मालिकाना हक हासिल नहीं है, जबकि वाधवा कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में 1965 के युद्ध विस्थापितों को भी जमीन पर मालिकाना हक देने की सिफारिश की थी। इसके अलावा युद्ध विस्थापितों के मुताबिक सरकार ने यह प्रावधान किया था कि जिन लोगों को जमीन नहीं दी जाएगी उन्हें मुआवजा दिया जाएगा। लेकिन आज तक इनमें से सिर्फ मुठ्ठी भर लोगों को ही नाममात्र का मुआवजा मिल पाया है।
युद्ध विस्थापितों के साथ एक बड़ी समस्या इवेक्यू लैंड(ऐसी संपत्ति जिसे जिसे बंटवारे के समय पाकिस्तान गए लोग छोड़कर चले गए थे) को लेकर भी है। इनमें से कुछ लोगों को खेती के लिए मिली इवेक्यू लैंड दी गई थी। इस तरह की किसी भी जमीन पर लोगों को मालिकाना हक नहीं दिया गया है। जबकि वाधवा कमिटी ने सिफारिश की थी कि इवेक्यू भूमि पर मालिकाना हक देने की इन लोगों की मांग मान ली जानी चाहिए।
वाधवा कमिटी ने यह भी कहा था कि इवेक्यू घरों में रहने वाले युद्ध विस्थापितों से महीने का किराया नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन दोनों ही चीजें नहीं हुईं। जिस जमीन पर सरकार ने युद्ध विस्थापितों को बसाया है, उस पर भी वह उन्हें मालिकाना हक देने के लिए वह तैयार नहीं थी। जब लोगों ने इसको लेकर आंदोलन किया तब जाकर सरकार ने 2012 में सिर्फ चंद लोगों को जमीन का मालिकाना हक दिया।
छंब सेक्टर से 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध के कारण हमेशा के लिए विस्थापित हो चुके इन लोगों के अलावा भी बड़ी संख्या में राज्य में ऐसे लोग हैं जो बॉर्डर और नियंत्रण रेखा पर घर और खेती की जमीन होने की सजा भुगत रहे हैं। इनमें से बड़ी तादाद में लोग आए दिन होने वाली फायरिंग के कारण अपने घर और गांवों को छोड़कर दूसरी सुरक्षित जगहों पर चले गए हैं।
हालांकि 2003 में भारत और पाकिस्तान के बीच घोषित संघर्ष-विराम के कारण बॉर्डर एरिया छोड़ कर जाने वाले लोगों में कमी आई है, लेकिन जानकारों का मानना है कि 2003 से पहले बहुत बड़ी संख्या में सीमा पर रहने वाले लोग अपने घर और गांव छोड़कर हमेशा के लिए दूसरे इलाकों में जाकर बस गए।
युद्ध विस्थापित इस बात से भी खासे आहत और नाराज रहते हैं कि जब भी केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की टीम जम्मू-कश्मीर आई तो उसने उन्हें छोड़कर लगभग हर वर्ग के लोगों से मुलाकात की।
(#अवनीश पी. एन. शर्मा)
जारी : जम्मू-कश्मीर के 17 लाख बेघर लोग भाग 4 में…

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