कमाल है ये देश…साला, शहाबुद्दीन को भी हीरो बना दिया। जो, बाकायदा न्यायालय का दंडित अपराधी था, जिसने तीन युवकों को तेजाब से जलाकर मार दिया था, उसके बेटे को लोग नेता बनाने पर आमादा हैं। और, हम लोग मोदी-शाह से पता नहीं
क्या-क्या अपेक्षा रख रहे हैं…।
ये देश ससुरा जिंदा कैसे है….
बहरहाल, रंगबाज को 22 मिनट देखने के बाद ये आर्टिकल साझा कर रहा हूं, जो जब हरामजादा शहाबुद्दीन मरा था, तो हमारे दोस्त Anand Kumar ने लिखा था। पढ़िए, और रोइए….
जब बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री तुगलक कुमार ने शहाबू को छोड़ा था और उसके काफिले ने (2000 गाड़ियों के) बिहार के टोल नाकों और कानून की धज्जियां उड़ाई थीं, तो कुल चार लोगों ने ठाना था कि इसे नहीं झेलना है। आज यकीन नहीं होता कि उन चारों ने प्रशांत भूषण के सहयोग से शहाबू की जमानत रद्द करवाने में सफलता पाई थी..। कमाल है, सब समय है..
पिछले वर्ष दिसम्बर में कोरोना संक्रमण उतना फैला हुआ नहीं था। इसलिए जब सोलह दिसम्बर को चंद्रेश्वर प्रसाद की मृत्यु की खबर आई तो एक वृद्ध व्यक्ति के दिवंगत होने की खबर जैसी ही लगी। एक वर्ष पहले उनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी और वो अपने दिव्यांग पुत्र और बहु के साथ रहते थे। आप इस नाम से शायद पहचान नहीं पाएंगे कि उनके गुजरने में क्या विशेष था। ये नाम उनके वकालतनामे पर होता था इसलिए हमें पता था। ख़ास बात इसी वकालत नामे में थी।
कोई वकील मुकदमा तभी लड़ सकता है जब उसके नाम से वकालतनामा बना हुआ हो। उनका मामला सर्वोच्च न्यायलय में था और उनके घर जाकर कोई वकालतनामे पर दस्तखत करवा लाये, इतनी हिम्मत जुटाने वाले लोग मुश्किल से मिले। आखिर कुछ लोग तैयार हुए। पटना से सिवान जाकर उनसे वकालतनामे पर दस्तखत करवाया गया। लोगों के तैयार होने, दस्तखत लेने और वापस आ जाने की लम्बी कहानी है, मगर वो कहानी फिर कभी। सिवान के उस वृद्ध, चंद्रेश्वर प्रसाद को आमतौर पर चंदा बाबु के नाम से जाना जाता है।
उनके तीनों पुत्रों का सैय्यद मुहम्मद ने अपहरण कर लिया था। एक तो जैसे तैसे सैय्यद मुहम्मद के गुंडों की पकड़ से भाग गया मगर दो की हत्या कर दी गयी। हत्याएं ऐसे जघन्य तरीके से की गयी थीं की आज सोलह-सत्रह साल बाद भी ये मामला बिहार के क्रूरतम अपराधों की लम्बी सूची में संभवतः सबसे ऊपर आ जाता है। कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुई। बचकर भाग निकला तीसरा पुत्र इस मामले में गवाह था। करीब दस वर्षों बाद एक दिन 2015 में जब वो सिवान के ही डीएवी मोड़ से गुजर रहा था, तो उसे भी गोली मार दी गयी। तीसरे पुत्र राजीव की शादी को उस वक्त मुश्किल से बीस दिन हुए थे।
सैय्यद मुहम्मद का आतंक शहर में ही नहीं बिहार भर में कायम था। लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहे पति-पत्नी की पार्टी का संरक्षण भी उसे मिला हुआ था। दबदबा ऐसा कि जब सैय्यद मुहम्मद को सितम्बर 2016 में पटना हाई कोर्ट से जमानत मिली तो उसके छूटने पर दो सौ से अधिक गाड़ियों का काफिला उसे लेने पहुंचा। ये वो दौर था जब हिंदुस्तान जैसे अख़बार के ब्यूरो प्रमुख की सिवान में हत्या हो जाने पर भी तथाकथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वालों के मुंह से आवाज नहीं निकलती थी। मुख्यमंत्री कहते थे उनकी हालत “बत्तीस दांतों के बीच जीभ जैसी है”।
सैय्यद मुहम्मद के जेल में ही दरबार लगाने के किस्से आम रहे। चंदा बाबु के पुत्रों की हत्या का मामला ये समझकर छोड़ भी दें कि वो तो एक आम से आदमी थे तो दूसरे बड़े मामले भी सैय्यद मुहम्मद पर रहे। वो चंदा बाबु के पुत्रों की हत्या से काफी पहले से गुंडा था। चंद्रशेखर प्रसाद उर्फ़ चंदू जो 31 मार्च 1997 को गोलियों से भुन दिया गया था, उसकी हत्या में भी सैय्यद मुहम्मद मुख्य आरोपी था। सीपीआई (एमएल) के नेता के इस हत्याकांड में उसके साथ श्याम नारायण यादव नाम का एक कार्यकर्त्ता और भुटली मियां नाम का एक दुकानदार भी मारे गए थे।
कल सुबह जब सैय्यद मुहम्मद की मौत की ख़बरें आने लगीं तो लगा कि इसे इतनी जल्दी नहीं मरना चाहिए था। और जीता, अपनी सजा पूरी करता, बुढ़ापे में एड़ियाँ रगड़ते हुए मरता तो न्याय होता। जैसा कि चंदू के मामले में उम्र कैद होने पर सीपीआई (एमएल) नेता दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा था, वैसा ही हम भी कहेंगे कि ये सजा कम हुई। सैय्यद मुहम्मद गुंडा था और उसका मरना अच्छा ही हुआ, बस थोड़ा और तड़प तड़प कर मरता तो और अच्छा होता।