डॉमिनन्स – दूसरों पर वर्चस्व चलाने की एक भावना है जो बहुतों को अच्छी लगती है। कोई भी समाज इसका अपवाद नहीं होता। सब में ऐसे लोग मिलेंगे। लेकिन समूचे म्लेच्छ मत की मूल प्रेरणा ही डॉमिनन्स है, जिसे दूसरों पर गालिब होना कहा जाता है, डॉमिनन्स को गलबा कहते हैं। गालिब, केवल एक शायर का नाम नहीं होता।
संख्या और एकजूट से होते संगठित हिंसा के कारण जो वर्चस्व – डॉमिनन्स – उन्हें मिल पाता है, उससे उन्हें रोज सीना तानकर छुटपुट कानून तोड़ने की आदत सी लग जाती है, वह आगे बढ़कर यहाँ तक बढ़ जाती है कि चौराहे पर चौड़े हो कर कहते हैं कि हम जो चाहे करें, कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
हेल्मेट की जगह जाली टोपी ही पहनना और पुलिस पर एक तुच्छतापूर्ण हंसी फेंककर निकल जाना – पुलिसवाला उसे नहीं रोकता क्योंकि उसे पता है कि एक को रोकते ही पचास की भीड़ जमा होगी, जो दो घंटे में दस हज़ार की हो जाएगी और थाना भी फूँक सकती है – उसकी तो नौकरी जाएगी और ऊपर से जांच उसकी ज़िंदगी नर्क बना देगी। लेकिन यही बात इनके दु: साहस को और बढ़ाता है जो कहीं रोके टोके जाने पर पुलिस की हत्या भी करने की ताकत देता है।
इस समाज में क्राइम को करियर का दर्जा होना, डॉन की इज्जत डॉक्टर से अधिक होना, और इनका कानून द्वारा तुरंत सही तरह से कुचला न जाना बल्कि कानून के रखवालों को खरीदना और इनके गुनाहों और गुनहगारों से लड़नेवालों को हैरान परेशान कर के खत्म करना – इन सब बातों से इस समाज की मानसिकता अलग बन जाती है। और तो और, सच तो यही है कि इनमें कितना भी पढ़ा लिखा और शरीफ बंदा हो, जब तक यह समाज अन्य धर्मियों के बीच जीता है, उसे अधिकतर अपने समाज के इस क्रिमिनल डॉमिनन्स का गर्व ही होता है कि ” भायलोगों से पंगा लेने की किसी की हिम्मत नै, भाय !”
उनकी औरतों की (महिला नहीं) ज़िंदगी उनके अपने समाज के बीच कितनी भी झंड हो, अन्य समाज प्रति डॉमिनन्स में उनको भी अच्छा लगता है, इसलिए वे भी इसका समर्थन करती है। यह वर्चस्व की भावना है ही इतनी लुभावनी।