Home हमारे लेखकजलज कुमार मिश्रा दिल्ली के मुठ्ठी भर पत्रकार : गांव देश

दिल्ली के मुठ्ठी भर पत्रकार : गांव देश

by Jalaj Kumar Mishra
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आखिर कब तक दिल्ली के मुठ्ठी भर पत्रकार बिना किसी मापदंड के तय करते रहेंगे की कौन पढ़ा जा रहा है और कौन नहीं ? वामपंथी कचरों को आखिर कब तक साहित्यकार माना जाता रहेगा ? एक विचारधारा की गुलामी में सरकारी तंत्र का दुरूपयोग आखिर कब तक चलेगा ? चाहे आखिर कब तक साहित्य अकादमी अपने सम्मान का दुरूपयोग करती रहेगी ? ऐसे अनेकों प्रश्न है जिनपर बातें नहीं होती है लेकिन होनी चाहिए !
सोशल मिडिया के आने से १९७५ के बाद बने ३०० क्लब वाले साहित्यिक गिरोह जो अपनी किताब अपने दोस्तों को बाँट कर और उन से ही आलोचना कम प्रसंशा लिखवाकर साहित्यकार की टोपी पहन लेते थे अपने खात्मे की तरफ बढ़ रहे हैं। लेकिन इनलोगों ने हार नही मानी और इनके गिरोह में से कुछ लोग पाला बदलकर अभी भी इनके तरफ से लगातार बैटिंग करने में लगे हुए हैं।
खैर आज का विषय हिन्दी साहित्य में हाल ही में आयी विवेक कान्त मिश्र की एक किताब के बारे में है जिसका नाम गाँव देस है। जिसके बारे में विवेक खुद कहते हैं कि गाँव-देस हमारे आसपास घटित होने वाली घटनाओं से चुनी गई कहानियों का संग्रह है। मेरा दावा है कि हर पाठक स्वयं को संकलन की कम से कम किसी एक कहानी का हिस्सा अवश्य समझेगा। मेरा यह भी दावा है कि इन कहानियों को पढ़ कर आपको यह भी लगेगा कि मनुष्य अभी भी उतना मशीनी नहीं हुआ है जितना उसे समझ लिया जाता है।
प्रेमचन्द कहते हैं कि साहित्य की चाहे जो भी रूप या विधा हो, उसका उद्देश्य हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या’ होना चाहिए। विवेक कान्त मिश्र की कहानी संग्रह गाँव देस, समाज के बदलते मूल्यों को समेटे हुए, झकझोरती है, कहीं कहीं आँखे नम‌ भी करती है। इस संग्रह के माध्यम से विवेक अपने मनोभूमि पर ग्रामीण जीवन के प्रति सहज राग की रस की वर्षा करते हैं उनके द्वारा रचे गये परिवेश में भीग कर पाठक गंवई गंध की सोन्हल उत्कंठा में डूब जाता है। गाँव के माटी की सोंधी महक इस कहानी संग्रह की खास पहचान है।यह संग्रह सबके लिए है। इसका स्वागत होना चाहिए।

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