Home हमारे लेखकदयानंद पांडेय दिल्ली में ही कौन तुरंत नौकरी मिल जाती

दिल्ली में ही कौन तुरंत नौकरी मिल जाती

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दिल्ली में ही कौन तुरंत नौकरी मिल जाती। बाद में भी मिलती कि नहीं, क्या पता? उस ने सोचा। क्या दिल्ली में बेकार पत्रकारों की लंबी फौज नहीं है ? और वह भी हिंदी में ! वह ख़ुद ही कहता फिरता रहता कि दिल्ली में हिंदी पत्रकारिता की स्थिति बिलकुल अछूतों जैसी है, हरिजनों जैसी है। जैसे हरिजनों को संवैधानिक आरक्षण तो है पर उन का फिर भी कल्याण नहीं है, ठीक वैसे ही हिंदी देश की राजभाषा तो है पर देश की राजधानी दिल्ली में हिंदी का कोई नामलेवा नहीं है। लोग या तो पंजाबी बोलते हैं या फिर अंगरेजी। रही बात हिंदी पत्रकारिता की तो बस उस के भगवान ही मालिक हैं। वह जब यूनिवर्सिटी में पढ़ता था तो अपने छोटे से शहर में पत्रकारों को अंगरेजी डिक्शनिरयों में सिर खपाते देखता तो उसे उन से घिन आती। पर दिल्ली में तो और बुरी हालत थी। काम हिंदी अख़बार में करना, और अंगरेजी जानना, अंगरेजी से हिंदी में टीपने की कला जानना पहली शर्त होती। चलिए झेला। पर अंगरेजी की जूठन चाटने से फुर्सत यही नहीं मिलती थी। दिक्कत तब होती जब दिल्ली में हिंदी पत्रकारों की जब तब क्या हरदम ही हेठी होती रहती। हालत यह कि दिल्ली में पोलिटिकल सर्किल हो या ब्यूरोक्रेटिक वह सब से पहले फारेन प्रेस को तरजीह देते हैं और उन के ही सामने दुम हिलाते रहते हैं। टाइम, न्यूजवीक, आब्जर्वर, बी॰ बी॰ सी॰ हो या खलीज टाइम्स, उन की दुम सिर्फ अपने जिक्र भर के लिए ही सही हिलती रहती है। फिर दूसरे नंबर पर टेलीविजन वाले यानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। भले चौखटा न दिखे पर कैमरे के सामने बैठ कर ‘‘रिकार्डिंग’’ कराने का सुख ही कुछ और है। चैनलों की बाढ़ ने इस काम में ऐसा इजाफा किया है कि मत पूछिए। ख़ैर इस तरह तीसरे नंबर पर आता है इंडियन प्रेस। और इंडियन प्रेस में भी जाहिर है कि अव्वल नंबर पर अंगरेजी अख़बार और उन के पत्रकार ही होते हैं। हिंदी अख़बार और उन के पत्रकार अपना नंबर आते-आते इतनी दयनीय और कारुणिक स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं कि कभी-कभी सोच कर भी रुलाई आ जाती है।
संजय को याद है कि एक बार इंदिरा गांधी की प्रेस कांफ्रेंस में बड़े जुगाड़, मान मनौव्वल और लगभग अपमानित होने की सारी प्रक्रियाओं से गुजरता हुआ वह पहुंचा और अपमानित होने की सारी कड़ियां लगभग भुलाता हुआ सीना तान कर जब वह अपनी निश्चित कुर्सी पर बैठा था तो एक अजीब से गुरूर से वह भर उठा था। पर जब प्रेस कांफ्रेंस शुरू हुई तो उसे अजीब सी हताशा महसूस हुई। उस के सीने में जलन होने लगी। हलक सूखने लगा। वह सारी प्रक्रिया ही इतनी अपमानजनक थी कि उसे एक बार लगा कि उस का दम घुट जाएगा। पर उस ने जब अगल-बगल बैठे पत्रकारों पर नजर दौड़ाई तो देखा सब के सब सीना तान कर बैठे हैं। तो उस ने भी पानी पी कर सूखते हलक को तर किया और सीना फुला कर बैठ गया। सब का नंबर आता रहा था। पर उस का नंबर नहीं आ रहा था। सभी सवाल पर सवाल किए जा रहे थे। दो सवाल संजय की सूची से पूछे जा चुके थे। हर सवाल के बाद वह सोचता अब की अगर उस का नंबर आया तो फला-फला सवाल पूछेगा। ठीक वैसे ही जैसे कि शुरू-शुरू में कवि सम्मेलनों में वह हरदम सोचता रहता कि अब अगर उस का नंबर आया तो फला कविता पढ़ेगा। पर कवि सम्मेलनों में भी उस का नंबर जल्दी नहीं आता था। यहां भी नहीं आ रहा था। वैसे तो उस ने ढेरों प्रेस कांफ्रेंस अटेंड की थी। और नेताओं को बात-बात में घेर लेता। पर यह पी॰ एम॰ की प्रेस कांफ्रेंस पहली बार थी। वह बैठा-बैठा इधर-उधर की बातें नोट करता रहा। और जब कोई पौन घंटे बाद उस के सवाल पूछने का नंबर आया तो वह जो बड़ी तैयारी से अंगरेजी में सवाल लिख कर लाया था, उस सूची को दरकिनार कर गया। जैसे उस का स्वाभिमान भीतर से उस पर हमला कर बैठा, जैसे उस का हिंदीजीवी होना, उसे चाबुक सा मारता हुआ उस के भीतर हिलोरें मारने लगा, हिंदी उस की जबान पर सारी रटी अंगरेजी को जैसे लात मार कर चढ़ गई और उस ने हिंदी में ही लगातार एक की जगह दो सवाल पूछ डाले। सवाल पूछते समय उस की नजरें सीधे इंदिरा गांधी पर टिकी थीं। उस ने देखा कि इंदिरा गांधी को उस का हिंदी में सवाल पूछना नहीं सुहाया था और उन्हों ने उसे हिकारत भरी नजरों से घूरते हुए सर्रे से अंगरेजी में जवाब दे दिया था।
दूसरे सवाल का जवाब भी जब वह अंगरेजी में देने लगीं तो संजय की हिंदी, हिंदी स्वाभिमान उस के भीतर जैसे तूफान मचा गया, वह फिर से उठा और बड़ी विनम्रता से बोला, ‘‘प्रधानमंत्री जी, मैं ने सवाल हिंदी में किया था, जवाब भी हिंदी में दीजिए।’’ पर इंदिरा गांधी उस की विनती पर गौर किए बिना अंगेरेजी में जवाब देती रहीं। संजय ने उन्हें फिर टोका कि, ‘‘हिंदी में।’’ और दो तीन बार टोका, ‘‘हिंदी में।’’ पर इंदिरा गांधी को जैसे यह सब कुछ सुनाई देते हुए भी सुनाई नहीं दे रहा था। वह उसे अनसुना करते हुए बोलती रहीं। पर इस बीच दो तीन और हिंदी पत्रकारों का जमीर जाग गया। वह भी खड़े हो गए और ‘प्रधानमंत्री जी, हिंदी में’ की विनती कर बैठे। तब कहीं जा कर इंदिरा गांधी ने बड़े-बड़े शीशों वाला चश्मा उतारा, उस की कमानी होंठों से लगाई और हिंदी में बोलीं, ‘‘हिंदी में जवाब इस लिए नहीं दे रही हूं कि यहां फारेन प्रेस के लोग भी बैठे हैं।’’ बस वह चश्मा आंखों पर लगा फिर अंगरेजी में चालू हो गईं। संजय ने देखा कि प्रधानमंत्री का सूचना सलाहकार उसे खा जाने वाली नजरों से घूर रहा था। संजय बुरी तरह फ्यूज हो गया। वह भीतर ही भीतर सुलग कर रह गया। उस की यह सुलगन शेयर करने के लिए सिगरेट भी उस के पास नहीं थी। बाहर सिक्योरिटी वालों ने रखवा ली थी। माचिस सहित। वह पूरी प्रेस कांफ्रेंस में भस्म होता रहा, अफनाता रहा और पछताता रहा कि क्या करने वह यहां आ गया। हिंदी पत्रकारिता के बेमानी होने का पहला अहसास उसे तभी हुआ था।
प्रेस कांफ्रेंस ख़त्म होने के बाद भारी-भारी कदमों से वह उस एयरकंडीशंड हाल से भीतर ही भीतर खौलता हुआ निकल रहा था तो उस ने गौर किया कि सो काल्ड इंडियन प्रेस के लोग उसे ऐसे घूरते चले जा रहे थे जैसे उस ने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। तो कुछ उसे देख कर ऐसे मंद-मंद मुसकुरा कर मजे ले रहे थे जैसे वह आदमी नहीं मदारी का बंदर हो। एक हिंदी पत्रकार ने उस का हाथ पकड़ते हुए चुटकी ली, ‘‘जब अंगरेजी नहीं आती तो यहां आने की क्या जरूरत थी ?’’ और कंधे उचकाता हुआ आगे बढ़ गया। एक अंगरेजी अख़बार का पत्रकार जो यू॰ पी॰ का था और संजय को जानता था सो उस ने उस की हालत पर सहानुभूति जताई, ‘‘बात तो तुम ने ठीक कही थी पर कुछ वैसे ही जैसे किसी मुजरे की महफिल में कोई भजन की फारमाइश कर बैठे।’’ संजय के उदास मन को यह उपमा अच्छी लगी थी पर वह उदास इतना ज्यादा था कि तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया। तभी उस ने देखा, उस के ही संस्थान की वह अंगरेजी पत्रकार जो उस के साथ ही आई थी, उसे देख नथुने फुला कर, गाल पिचका कर ऐसे आगे बढ़ गई जैसे किसी ने उस की नाक काट ली हो। जैसे किसी ने उस का शील भंग कर दिया हो। संजय ने सोचा क्या हिंदी बोलना सचमुच इतना बड़ा अपराध है ? वह यह सोच ही रहा था कि पीछे से कस कर किसी ने उस का कंधा दबाया। वह एक पल को डर गया कि शायद प्रधानमंत्री की सिक्योरिटी वाले पकड़ने आए हों। उस ने पलट कर दहशत भरी नजरों से देखा। अपना ताम-झाम लिए मुसकुराते हुए बी॰ बी॰ सी॰ के मार्क टुली खड़े थे। अपनी ब्रिटिश लहजे वाली हिंदी में ही कंधे उचकाते हुए वह बोले, ‘‘नौजवान !’’ वह मुसकुराए, ‘‘हम को तो हिंदी आटी है।’’ कहते हुए संजय से हाथ मिलाने लगे।
‘‘क्या बात है !’’ कहते हुए संजय मार्क टुली से लिपट गया। लिपटते हुए उसे लगा जैसे वह रो पड़ेगा। पर उस ने जैसे-तैसे अपने को काबू किया। मार्क टुली ने भी उसे उसी प्यार से बांहों में भरा और सीढ़ियां उतरती, साड़ी संभालती एक महिला पत्रकार को लगभग टोकते हुए वह फिर से बोले, ‘‘हम को तो हिंदी आटी है।’’ मार्क टुली के ‘‘हम को तो हिंदी आटी है’’ कहने की लय ऐसी थी कि जैसे वह अपना हिंदी ज्ञान बताने के बहाने इंदिरा गांधी और उन की अंगरेजी को तमाचा मार रहे हों। और जैसे साड़ी वाली महिला से पूछ रहे हों कि, ‘‘बोलो, तमाचा भरपूर है कि नहीं ?’’ मार्क टुली ने अपनी आवाज में और मिठास घोली पर कहने की लय को तल्ख़ किया और अचानक ठिठक कर खड़ी हो गई उस महिला से फिर बोले, ‘‘हम को तो हिंदी आटी है।’’
‘‘हम को भी हिंदी आती है।’’ वह महिला एकदम खिलखिला कर ऐसे बोली जैसे एकदम, अचानक किसी घुटन से उबर गई हो। पर मार्क टुली फिर बुदबुदाए ‘‘हम को तो हिंदी आटी है।’’ संजय को लगा जैसे उसे घर जाने की राह मिल गई हो। और उस ने बढ़ कर मार्क टुली का हाथ पकड़ा और झुक कर चूम लिया। बिलकुल राजकपूर स्टाइल में।
संजय दफ्तर बाद में पहुंचा पर उस का हिंदी बोलने वाला किस्सा इस पुछल्ले के साथ कि अख़बार की कैसे हेठी हुई, बहुत पहले पहुंच चुका था, सीन दर सीन। ऐसे, जैसे पूरी पटकथा हो। पांच मिनट की बात पचास मिनट के किस्से में ऐसे तब्दील हो गई थी जैसे आधी से अधिक प्रेस कांफ्रेंस में सिर्फ संजय और इंदिरा गांधी संवाद ही हुआ हो। सारा किस्सा सुन-सुन कर, जवाब दे-दे कर संजय का दिमाग पक गया था। बिलकुल किसी फोड़े की तरह। सिगरेट सुलगा कर वह अपनी सीट पर बैठा ही था कि संपादक का बुलावा आ गया। संपादक की केबिन में घुसना ही था कि वह शुरू हो गए, ‘‘यही सब करने गए थे ? नहीं अंगरेजी बोल पाए तो चुप ही रहे होते। इतनी छिंछालेदार तो नहीं होती। प्राइम मिनिस्टर को नाराज करने का मतलब समझते हैं आप ? आप की जाहिलयत का बयान करने वाले कितने टेलीफोन आ चुके हैं। मालूम हैं ? आप जानते हैं स्टाफ में कितने लोगों को नाराज कर के आप को भेजा था, आप की बीट नहीं थी, फिर भी ?’’ कहते हुए संपादक ने एजेंसी से आए हुए तारों का पुलिंदा थमाते हुए कहा, ‘‘ले जाइए। कम से कम प्रेस कांफ्रेंस संजीदगी से लिखिएगा।’’ उन्हों ने जोड़ा, ‘‘इस में हिंदी के तार भी हैं।’’ और ऐसे कि जैसे वह तमाचा मार रहे हों। संजय तारों का पुलिंदा लिए संपादक की केबिन से निकला तो उसे लगा जैसे उस का दिमाग फट जाएगा।
बाहर आ कर उस ने एजेंसी के तारों से एक रूटीन सी प्रेस कांफ्रेंस की ख़बर बनाई। और साथ ही अपनी नोट बुक निकाल कर प्रेस कांफ्रेंस की इनसाइड स्टोरी लिखी। जिस में इंदिरा गांधी के जवाबों का रंग और प्रेस कांफ्रेंस के कई-कई शेड्स और मूवमेंट्स के ब्यौरे बटोर कर उस ने पूरी स्टोरी को एक इमोशनल टच दिया। साथ ही हिंदी वाले मसले पर मार्क टुली का जिक्र करते हुए एक बाक्स आइटम भी बनाया।
संपादक ने जब एक साथ तीन-तीन ‘‘स्टोरी’’ देखी तो फिर पसर गए। बोले, ‘‘क्या पूरे अख़बार में प्रेस कांफ्रेंस छपेगा ?’’
‘‘अब जो है आप देख लीजिएगा। जो न समझ में आए फेंक दीजिएगा।’’ कह कर संजय केबिन से बाहर आ गया। दूसरे दिन उस ने देखा कि प्रेस कांफ्रेंस की मेन स्टोरी के साथ इनसाइड स्टोरी भी काट छांट के साथ छपी थी पर हिंदी वाला आइटम गायब था। जिक्र तक नहीं था। उसे तब और ज्यादा दुख हुआ जब उस ने देखा कि उस यू॰ पी॰ वाले अंगरेजी पत्रकार ने ‘‘क्योश्चन इन हिंदी’’ कर के एक बढ़िया बाक्स आइटम लिखा था।
वह यह सब सोच ही रहा था कि लखनऊ में तो दिल्ली जैसा नहीं है। यहां जो लिखो वह छपता है। क्या हुआ जो यहां प्रधानमंत्री नहीं हैं। मुख्यमंत्री तो है और एक नहीं, पचास सवाल पूछो, जवाब तो देता है। वह भी हिंदी में। यहां तो अंगरेजी वाले भी जब हिंदी में सवाल पूछते हैं तो संजय को मन ही मन मजा आ जाता है। दिल्ली में जो कदम कदम पर हिंदी पत्रकारिता का नरक है वह नरक लखनऊ में सिर्फ डेस्क तक ही सीमित है। और उस को डेस्क से क्या लेना देना ? उस ने सोचा। फिर क्या रखा है दिल्ली में ? फूल सिंह ने ठीक ही किया जो उसे इस्तीफा देने से रोक लिया। नहीं, दिल्ली में भी कहां है अब नौकरी ? जिस ने दिल्ली न देखी हो वह जाए दिल्ली। वह तो अपने हिस्से की दिल्ली भुगत आया है। और पत्रकारिता की ऐसी कौन सी चिरकुटई है जो लखनऊ में है और दिल्ली में नहीं ? सारी उलटबासियां, विसंगतियां, चमचई, चाकरी और धूर्तई हर ओर समाई हुई हैं। वह यह सब अभी सोच ही रहा था कि सरोज जी का बुलावा आ गया। सरोज जी अब उसके नए संपादक थे।
‘‘किस चूतिए से पाला पड़ गया है।’’ बुदबुदाता हुआ वह संपादक की केबिन की ओर बढ़ गया । संपादक की केबिन में अभी भी नरेंद्र जी को बैठा देख कर वह चकित रह गया। नमस्कार करते हुए वह बोला, ‘‘तो क्या जो ख़बर उड़ी वह गलत है ?’’
‘‘मेरे इस्तीफे की ?’’ नरेन्द्र जी बोले, ‘‘सही है।’’
‘‘तो फिर अभी तक आप बैठे हैं ?’’
‘‘हां।’’ नरेंद्र जी बोले, ‘‘मैं तो जा रहा था पर सरोज जी ने कहा कि प्यारे, जरा काम धाम समझा दो तब जाना। एम॰ डी॰ ने भी रुकने को कहा।’’
‘‘तो आप रुक रहे हैं ?’’ संजय चहका।
‘‘नहीं, कल से नहीं आऊंगा। इस्तीफा तो दे दिया है।’’
‘‘पूंजीपतियों की नौकरी में तो यह सब होता ही रहता है।’’ संजय बोला, ‘‘फिर भी मेरे लिए कुछ हो तो बताइएगा।’’
‘‘बिलकुल।’’ नरेंद्र जी गर्मजोशी से बोले।
संपादक की केबिन से वह निकल ही रहा था कि सरोज जी भीतर जाते दिख गए। उस ने उन्हें ख़बर थमाई तो वह उसे घूरने लगे। पर वह उन की ओर देखे बिना ही निकल गया। घर जाते समय तक बड़ा उदास हो गया। रास्ते भर वह रमानाथ अवस्थी का गीत, ‘‘गंगा जी धीरे बहो, यमुना जी धीरे बहो, नाव फिर भंवर में है’’ गुनगुनाता रहा। उस अंधियारी रात में विधान सभा मार्ग से गुजरते हुए उसे वह सड़क ही नदी में तब्दील होती लगी और गुनगुनाता रहा, ‘‘गंगा जी धीरे बहो, नाव फिर भंवर में हैं’’
वह जैसे बेबस हो गया था।
इतना बेबस उस ने पहले कभी महसूस नहीं किया था और इस तरह ‘‘गंगा जी धीरे बहो’’ नहीं गुनगुनाता था। गुनगुनाते-गुनगुनाते उसे अपने शहर की यूनिवर्सिटी रोड की याद आ गई। उन दिनों वह अपने क्लास की एक लड़की के प्यार में पगलाया घूमता रहता था। और जब वह लड़की सड़क से गुजर जाती तो अपनी साइकिल के पैडिल मारता वह सोम ठाकुर का गीत, ‘‘जाओ पर संध्या के संग लौट आना तुम, सेज की शिकन संवारते न बीत जाए रात।’’ गुनगुनाता घूमता फिरता। उस ने आज एक बार ‘‘जाओ पर संध्या के संग लौट आना तुम’’ भी गुनगुनाया पर इस समय उसे यह गीत गुनगुनाना बड़ा अटपटा लगा और तुरंत ही ‘‘गंगा जी धीरे बहो’’ पर वापस लौट आया। विधान भवन के सामने से गुजश्रते हुए जैसे बेवजह तर्क पर उतर आया कि कैसी गंगा, और काहे की गंगा ? यहां तो गोमती है, जो बहती ही नहीं। और जब बहती ही नहीं तो भंवर कहां से आएगा ? गोमती, जहां सड़ा हुआ पानी हिलोरें मारने के बजाय ठहरा हुआ पानी बन कर बदबू मारता है। जैसे दिल्ली में यमुना का पानी। उस ने सोचा सरोज जी और गोमती के बदबूदार पानी में आखि़र फर्क क्या है ? फिर जैसे उस ने ख़ुद को ही जवाब दिया कि भंवर से तो बचा जा सकता है पर बदबूदार पानी से ? हरगिज नहीं। और फिर सरोज जी ही क्यों ? समूची पत्रकारिता ही जब बदबूदार पानी हो गई हो तो क्या करें ?’’
‘‘तह के ऊपर हाल वही जो तह के नीचे हाल/मछली बच कर जाए कहां जब जल ही सारा जाल।’’ पाकिस्तानी शायर आली का यह मशहूर दोहा उसे आज की पत्रकारिता का हाल बयान करने के लिए बड़ा मौजू लगा।
पत्रकारिता का चाहे जो हाल हो पर फिलहाल तो उसे सरोज जी से निपटना था, श्याम सिंह सरोज से। उस ने सोचा कि अगर वह उन से नहीं निपटा तो सरोज जी तो उसे निपटा ही देंगे।
सरोज जी मतलब श्याम सिंह सरोज अजीब व्यक्तित्व के मालिक थे। देखने में सीधे सादे, निरीह पर भीतर से उतने ही धूर्त, कुटिल और काइयां। आप समझें कि आप ने उन्हें ‘‘बना’’ दिया पर बाद में पता चलता उन्हों ने आप को जड़ से ही काट कर रख दिया। पत्रकारों में कवि, कवियों में पत्रकार। अपने अख़बार में वह आदि पुरुष माने जाते थे। क्यों कि अख़बार शुरू होने के दिन से ही वह थे। जाने कितने लोग आए और चले गए। रिटायर हो गए, मर गए पर सरोज जी के साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अख़बार के मालिकों की तीसरी पीढ़ी काम संभालने लग गई थी पर सरोज जी जस के तस थे। चूंकि वह हाई स्कूल भी पास नहीं थे सो उन की उम्र का कोई हिसाब नहीं था। उन के अख़बार में पत्रकारों के रिटायरमेंट की उम्र पहले साठ वर्ष थी, फिर घटा कर अट्ठावन वर्ष कर दी गई। पर सरोज जी की उम्र की कोई थाह नहीं थी। सो वह रिटायर नहीं हुए थे। लोग कहते दादा की उम्र सालों से चालीस साल पर ठहरी हुई है। उस अख़बार में सरोज जी के मुकाबले फूल सिंह चपरासी भर था। अख़बार के पहले दिन से ही काम वह भी करता था पर चूंकि वह चपरासी था, इस लिए वह आदि पुरुष नहीं कहलाता। पर उस का दावा था कि वह सरोज जी से भी सीनियर है। वह कहता कि, ‘‘मैं चार साल सीनियर हू। जब दस बरस का लौंडा था तब से हियां पानी पिलाय रहा हूं। और यह हिंदी अख़बार नहीं छपता था, सिर्फ अंगरेजी वाला ही छपता रहा, तब से ही हूं।’’ पढ़ाई लिखाई का कोई सर्टिफिकेट फूल सिंह के पास भी नहीं था सो उसकी उम्र भी ठहरी हुई थी। सरोज जी, और फूल सिंह के रिटायरमेंट की जब भी बात आती फूल सिंह कहता, ‘‘जब सरोज जी आए तब अधेड़ थे और मैं लौंडा, पहिले सरोज जी को रिटायर करो।’’
सरोज जी को रिटायर करने के लिए कंपनी ने बाकायदा डायरेक्टर बोर्ड की मीटिंग कर एक नियम बनाया कि चालीस वर्ष तक काम करने के बाद कर्मचारी रिटायर कर दिया जाएगा। माना गया कि बालिग होने की उम्र अठारह वर्ष है और बालिग होने से पहले कोई नौकरी नहीं कर सकता। तो चालीस साल बाद कर्मचारी अट्ठावन वर्ष का हो जाएगा और उसे रिटायर कर दिया जाएगा। फिर सरोज जी तो दो अख़बारों में नौकरी करने के बाद इस अख़बार में आए थे। उन्हें नौकरी करते हुए भी चालीस वर्ष से ज्यादा हो गए थे। बोर्ड से नियम पास करा लेने के बाद भी सरोज जी को रिटायरमेंट का कागज देने के लिए प्रबंधकों को बाकायदा रणनीति बनानी पड़ी। एम॰ डी॰ और जी॰ एम॰ शहर छोड़ कर ‘‘टूर’’ पर निकल गए और टाइम आफिस के एक घाघ किस्म के बाबू को उन्हें कागज देने की जिम्मेदारी सौंप गए। सरोज जी रात जब दफ्तर से निकलने ही वाले थे तो वह बाबू उन के रिटायरमेंट के कागज ले कर उन की केबिन में पहुंचा। सरोज जी में कुछ ‘‘ऐसा वैसा’’ सूंघ लेने की क्षमता कुत्तों से भी ज्यादा थी। उन्हें अंगरेजी ठीक से नहीं आती थी पर अंगरेजी अख़बार के रिपोर्टरों के सामने बैठ कर टाइप करती उन की उंगलियां देख कर ही वह ख़बर सूंघ लेते थे। तो उस बाबू को रात आठ बजे अपनी केबिन में घुसते देख कर ही वह भड़क उठे, ‘‘क्या बात है ?’’ वह ‘‘जी-जी’’ ही बोला था कि सरोज जी पूरी ताकत से भड़के, ‘‘बाहर चलो, अभी ख़बर लिख रहा हूं।’’ वह बाबू ‘‘जी-जी’’ करता केबिन के बाहर आ गया। पर वह भी एक घाघ था। केबिन के ठीक बाहर ही कुर्सी लगा कर बैठ गया। सरोज जी परेशान। चपरासी को बुलाया। पानी मंगवाया। पानी पिया। चपरासी के आने-जाने के बहाने केबिन के खुलते, बंद होते दरवाजे से वह उस बाबू को बैठे देख चुके थे। उन की परेशानी और बढ़ गई। वह बाबू को डांट कर भले कह दिए थे, ‘‘बाहर चलो, अभी ख़बर लिख रहा हूं।’’ पर ख़बर तो वह कब की लिख चुके थे और अब उस बाबू को ‘‘बाहर चलो’’ कह कर ख़ुद बाहर जाने को तड़फड़ा रहे थे। बिलकुल किसी तोते की तरह जो नया-नया पिंजरे में बंद हुआ हो। रात के आठ बजे से नौ बज गए। पर न तो सरोज जी केबिन से बाहर आए, न वह टाइम आफिस का बाबू वहां से हिला। संजय यह सब लगातार देख रहा था। अंततः जब सवा नौ बज गए तो सरोज जी ने चपरासी से फिर पानी मंगवाया और उस से कहा कि ‘‘टाइम बाबू से पूछो, वह यहां क्यों बैठा है ?’’ चपरासी ने वापस आ कर सरोज जी को बताया कि, ‘‘वह कोई कागज देना चाहता है।’’
‘‘कागज तुम ले लो। और कह दो वह यहां से जाए।’’
‘‘हम ने यही कहा साहब, पर ऊ कहता है, कागज जरूरी है, आप को ही देगा।’’ चपरासी ने बताया।
‘‘अच्छा ठीक है तुम जाओ।’’ कह कर सरोज जी केबिन में बंद हो गए। सरोज जी केबिन में थे और बाबू बाहर। दोनों ही नहीं हिल रहे थे।
रात के दस बज गए।
सरोज जी केबिन से निकले ही थे कि बाबू उन के पीछे पड़ गया, ‘‘यह रिसीव कर लीजिए।’’
‘‘हुईं !’’ सरोज जी चौंके और गरजे, ‘‘तुम्हारी ये हिम्मत। अब तुम हम को कागज रिसीव करवाओगे ?’’
‘‘यह ऐसा वैसा कागज नहीं है दादा !’’
‘‘तो ?’’
‘‘आप का पर्सनल है।’’ बाबू रिरियाया।
‘‘हुईं।’’ वह चकित होते हुए बोले, ‘‘का कहि रहे हो।’’ और उसे वापस केबिन में बुलाते हुए बोले, ‘‘भीतर आओ, भीतर आओ। बाहर काहें खड़े हो।’’ सरोज जी अब नरम पड़ गए थे। भीतर गए, कागज देखा। कागज देखते ही सरोज जी फिर भड़के, ‘‘ई का है ?’’
‘‘आप ही देख लें सर !’’ बाबू उन के रिटायरमेंट के कागज की दूसरी प्रति दिखाते हुए बोला, ‘‘और इस पर रिसिविंग दे दें।’’
‘‘न हम कुछ लेंगे, न रिसीव करेंगे।’’ सरोज जी उस पर बिगड़े, ‘‘अभी हम जी॰ एम॰ से बात करते हैं।’’
‘‘जी॰ एम॰ साहब तो हैं नहीं, बाहर गए हैं।’’ बाबू ने बताया।
‘‘तो एम॰ डी॰ को फोन करता हूं।’’
‘‘वो भी नहीं हैं। बाहर गए हैं सर !’’ बाबू ने सूचित किया।
‘‘सब बाहर गए हैं तो तुमहू बाहर जाओ। हम नाहीं लेंगे।’’
‘‘पर देना तो सर आप को आज ही है।’’ बाबू फिर बोला, ‘‘हमें आदेश है कि आप को हर हाल में आज ही रिसीव करवा दिया जाए।’’
‘‘हम नहीं करेंगे रिसीव।’’ सरोज जी फिर बिगड़े।
‘‘पर सर !’’
‘‘अब तुम्हीं बताओ, हम अब कइसे रिटायर होइ जाएं।’’ सरोज जी फिर नरम पड़ गए, ‘‘अबहिन परसों तो बात भई है एम॰ डी॰ से कि हम रिटायर नाहीं होब।’’ सरोज जी अब हताश हो रहे थे, ‘‘ऊ ख़ुदै हम से कहिन दादा आप हमेशा आते रहिए। आप की नौकरी जिंदगी भर की है।’’
‘‘तो आने को आप कल भी आइएगा।’’ बाबू ने जोड़ा, ‘‘आप सचमुच रिटायर थोड़े ही किए जा रहे हैं। यह तो सिर्फ कागजी कार्रवाई है। बस ! आप कागज भर ले लीजिए।’’
‘‘रिटायर नाहीं हो रहे हैं हम न ?’’ सरोज जी ने बाबू से कहा, ‘‘फिर कागज क्यों देइ रहे हौ।’’
‘‘कागज तो हम देंगे सर !’’ बाबू बोला, ‘‘कागज अपनी जगह है और आप की सेवा अपनी जगह।’’
‘‘अच्छा जाओ कल लइ लेब।’’ सरोज जी बाबू को टालते हुए बोले।
‘‘सर, कागज ले लीजिए।’’ वह रुका और हिचकते हुए बोला, ‘‘नहीं तो….!’’
‘‘नहीं तो ?’’ सरोज जी घबराए।
‘‘आज अख़बार में छपने चला जाएगा, बतौर नोटिस।’’
‘‘हुईं !’’ कह कर सरोज जी हांफने लगे, ‘‘जिंदगी भर की सेवा का इ फल दिया है लाला ने ?’’ वह हांफते हुए बोले, ‘‘लइ आओ।’’ और उन्हों ने रिटायरमेंट का कागज रिसीव कर लिया। बोले, ‘‘अब तो नहीं छपेगा ?’’
‘‘नहीं सर !’’ कहता हुआ बाबू चला गया।
संजय ने समझा अब सरोज जी कल से दफ्तर नहीं आएंगे। पर वह दूसरे दिन सुबह मीटिंग में हमेशा की तरह मौजूद मिले। ऐसे जैसे कल रात कुछ हुआ ही न हो। हालां कि उन के ‘‘रिटायर हो जाने’ की ख़बर सारे शहर में हो गई थी। उन से मीटिंग में इशारों-इशारों में पूछा भी गया पर वह टाल गए। त्रिपाठी ने मीटिंग से उठ कर, एकाउंट्स में जा कर एक बूढ़े की आवाज बना कर सरोज जी को फोन किया और रिटायरमेंट के बाबत पूछा तब भी सरोज जी सहज रहे। बोले, ‘‘कुछ नहीं, अफवाह है। हम तो हरदम की तरह दफ्तर आए हैं। और हरदम आएंगे ।’’ वह हंसते हुए बोले, ‘‘हमारे बिना ई अख़बार चल पाएगा भला ?’’ और फोन रख दिया।
इस तरह सरोज जी के तमाम किस्सों में उन के रिटायरमेंट का भी एक किस्सा जुड़ गया। हालां कि बाद में पता चला कि तब के जमाने में छ हजार रुपए महीना पाने वाले सरोज जी अब एक हजार रुपए के बाउचर पेमेंट पर आ गए थे। पर लिखते विशेष प्रतिनिधि ही थे। त्रिपाठी ने उन्हें कई बार टोका भी कि, ‘‘दादा यह तो अपमान है आप का।’’ तो सरोज जी एक दिन नाराज हो गए, ‘‘का अपमान है ?’’ वह हांफते हुए बोले, ‘‘आप लोग का चाहते हैं, घर जा कर बैठ जाऊं ?’’
‘‘नहीं दादा। त्रिपाठी ने चमचई की, ‘‘आप के बिना अख़बार चल पाएगा भला ?’’
‘‘तो ?’’
‘‘हम तो पैसे की बात कर रहे थे दादा।’’ त्रिपाठी मक्खन लगाते हुए बोला, ‘‘इतने कम पैसे में ?’’ बोलते-बोलते वह रुका, ‘‘एक हजार से ज्यादा तो अप्रेंटिस भी पाता है।’’
‘‘हुईं !’’ सरोज जी चौंके।
‘‘अच्छा दादा, आप की ग्रेच्युटी वगैरह मिल गई ?’’ संजय ने पूछा।
‘‘नहीं तो।’’ सरोज जी बोले, ‘‘जी॰ एम॰ ने कहा है जिस दिन घर बैठने का मन करे ले लीजिएगा।’’
‘‘कोई एक लाख रुपए तो बनेंगे ही दादा !’’ त्रिपाठी कूद पड़ा।
‘‘का पता प्यारे, हम ने तो जोड़ा नहीं।’’ सरोज जी बिलकुल नरम पड़ गए, ‘‘तुम लोग जोड़ो।’’
‘‘ठीक-ठीक तो एकांउट्स वाले बताएंगे।’’ त्रिपाठी बोला, ‘‘पर मोटा-मोटी तो एक लाख से ऊपर ही जाएगा।’’
‘‘अच्छा !’’ सरोज जी की आंखें फैल गईं।
‘‘फिर तो दादा आप बहुत बड़े बेवकूफ हो।’’ त्रिपाठी सरोज जी को मात देते हुए बोला।
‘‘का अंट शंट बकि रहे हो।’’ सरोज जी नाराज होते हुए बोले।
‘‘अंट शंट नहीं दादा।’ त्रिपाठी सरोज जी की नब्ज पकड़ते हुए बोला, ‘‘सच-सच बोल रहा हूं कि लाला आप को लंबा बेवकूफ बना रहा है।’’
‘‘कैसे ?’’ सरोज जी की आंखें फिर फैल गईं।
‘‘आप के एक लाख रुपए जो अभी नहीं मिले हैं बाजार दर से उस का सूद दो हजार रुपए मोटा मोटी तो हो ही जाएगा। और लाला आप के ही पैसे के सूद से एक हजार आप को दे रहा है और एक हजार अपनी जेब में डाल रहा है। आप ही के पैसे से आप को तनख़्वाह भी दे रहा है, आप से काम भी ले रहा है, और आप पर एहसान भी लाद रहा है।’’ त्रिपाठी ने पूरा गणित सरोज जी को समझाया तो उन की आंखें और चौड़ी हो गईं और बोले, ‘‘तो ई बात है प्यारे ! हम आज ही अपना हिसाब मांग लेते हैं।’’ और वह उठ कर खड़े हो गए।
मीटिंग बर्खास्त हो गई थी।
सरोज जी सचमुच अपना हिसाब लेने जनरल मैनेजर के पास चले गए। जहां उन की बड़ी किरकिरी हुई। उन्हें साफ बता दिया गया कि हिसाब लेने के बाद कंपनी को उन की सेवाओं की एक दिन की भी जरूरत नहीं रहेगी। सो सरोज जी ने एकाउंट्स से हिसाब नहीं लिया। पर त्रिपाठी का हिसाब लगाने में वह जरूर लग गए। वह रिपोर्टर्स मीटिंग में जब तब त्रिपाठी पर बेवजह बिगड़ जाते। और खोज-खोज कर उस की ख़ामियां निकालते, उसे ख़राब से ख़राब एसाइनमेंट पर भेजते। असल में सरोज जी को किसी ने समझा दिया था कि त्रिपाठी हिसाब के लिए उन्हें उकसा कर उन की छुट्टी कराना चाहता था। और सरोज जी के मूढ़ दिमाग में यह बात गहरे घुस गई। और चमचई, मक्खनबाजी में सिद्धहस्त त्रिपाठी की सारी कलाओं पर पानी फेरते हुए सरोज जी उस का हिसाब लेने पर नहा धो कर जुट गए। दफ्तर में एक कहावत थी कि सांप का काटा आदमी एक बार जी सकता है पर सरोज जी का काटा आदमी मर के भी छुट्टी नहीं पाता। वह उसे फिर भी मारते रहते हैं। पर सरोज जी एक शै थे तो त्रिपाठी दूसरी शै। खेल सरोज जी जरूर रहे थे पर बिसात त्रिपाठी ने ही बिछाई थी। त्रिपाठी के पास चमचई की इतनी कलाएं, इतनी उक्तियां थीं कि अच्छे-अच्छे अकड़घओं को वह वश में कर लेता था। सरोज जी सांप नाथ थे तो त्रिपाठी नागनाथ। बल्कि कई बार तो उसे इच्छाधारी नाग कहने को जी हो जाता। वह जिस को जैसे चाहता, वैसे नचाता, वैसे टहलाता, बैठाता और बोलवाता। सरोज जी किसी के भी वश में नहीं आते, त्रिपाठी के वश में फौरन आ जाते। त्रिपाठी ऐसा झुक कर, हाथ जोड़ कर बोलता कि अच्छे-अच्छे उस के वश में क्या, सम्मोहन में बंध जाते। लोग जानते थे कि त्रिपाठी कैसा है, क्या है, पर उस के सामने सभी विवश हो जाते और वह ऐसी लंगड़ी मारता, इतनी शराफत और नफासत से मारता कि आदमी का पैर टूट जाए फिर भी उसे शुक्रिया कहता जाए। दरअसल सरोज जी और त्रिपाठी दोनों एक ही नाव के दो सवार थे। दोनों की सोच, सनक और एप्रोच लगभग एक थी। बस स्टाइल जुदा-जुदा थी। सरोज जी एक शराब फैक्ट्री के मालिक की दलाली करते-करते पत्रकारिता में आ पहुंचे थे तो त्रिपाठी ट्रक पर क्लिनरगिरी और फिर टेलीफोन आपरेटरी करते-करते रिपोर्टरी तक आ पहुंचा था। ट्रक पर ड्राइवर की जी हुजूरी कर-कर उस की आंख में धूल झोंकने का जो रियाज त्रिपाठी ने किया था उसे अब वह जिंदगी का दस्तूर बना चुका था। टेलीफोन आपरेटरी में उस ने नफासत की चाशनी घोलनी भी सीख ली। जिस से उस की शराफत का रंग पक्का हो जाता और लोग उस की बातों में आ जाते।
पर सरोज जी अब की उस के किसी भी दांव में फंसने को तैयार नहीं थे। एक दिन मीटिंग में सरोज जी त्रिपाठी पर बुरी तरह बिगड़े और हांफने लगे। सरोज जी जब भी किसी पर नाराज होते तो हांफने लगते और आप कह कर संबोधित करते तो वह डर जाता। क्यों कि इस आप का मतलब सरोज जी के नाराज होने की भूमिका होती थी। और सरोज जी जिस भी किसी पर नाराज होते, वह कोई हो उस का कुछ न कुछ नुकसान सरोज जी जरूर कर या करवा देते। यह उन की ख़ास ख़ासियत थी। तो उस दिन सरोज जी त्रिपाठी पर बिगड़ते हुए हांफने लगे। बोले, ‘‘आप चाहते क्या हैं ?’’
‘‘क्या बात है दादा !’’ त्रिपाठी ने बड़ी विनम्रता से मक्खन चुपड़ कर यह संवाद फेंका।
‘‘बात पूछते हैं ?’’ सरोज जी गरजे, ‘‘आप ने आज कल कहीं उठना बैठना मुश्किल कर दिया है।’’
‘‘क्यों क्या हो गया दादा ?’’ त्रिपाठी हाथ जोड़ कर बोला।
‘‘ई अमीनाबाद में जो पटरी दुकान लगा रखी है आप ने,’’ वह हांफे, ‘‘आप ने तो अख़बार की नाक ही कटवा दी है।’’
‘‘नहीं दादा ! पटरी दुकानदारों की मांग जेनुइन है।’’ त्रिपाठी उसी विनम्रता से बोला, ‘‘उन को दुकान के लिए जगह तो चाहिए।’’
‘‘ख़ाक जेनुइन है।’’ सरोज जी फिर बिगड़े, ‘‘किसी दुकान पर बैठना मुश्किल हो गया है।’’
‘‘तो आप बैठते ही क्यों हैं किसी दुकान पर ?’’ त्रिपाठी की विनम्रता मेनटेन थी, ‘‘आप को यह शोभा नहीं देता।’’
‘‘हम को यह शोभा नहीं देता।’’ सरोज जी ने त्रिपाठी का कहा उसी की तरह नकल कर के दोहराया और उस को खा जाने वाली नजरों से घूरा, ‘‘और आप को पटरी दुकानदारों से पैसा लेना शोभा देता है ?’’
‘‘क्या कह रहे हैं दादा आप ?’’
‘‘मैं ठीक कह रहा हूं।’’ सरोज जी ने जोड़ा, ‘‘मेरे पास सुबूत है।’’
‘‘मेरे पास भी सुबूत है कि आप अमीनाबाद के बड़े दुकानदारों से पैसा लेते हैं।’’ त्रिपाठी की विनम्रता अब उस की जीभ से उतर रही थी, ‘‘और नियमित लेते हैं।’’
‘‘अब आप हम पर आरोप लगाएंगे ?’’ सरोज जी अब बुरी तरह हांफ रहे थे। ऐसे जैसे कोई कुत्ता बहुत दूर दौड़ कर आया हो और हांफ रहा हो। वह बोले, ‘‘यह झूठ है।’’
‘‘तो वह भी झूठ है।’’ त्रिपाठी की विनम्रता वापस उस की जीभ पर आ गई थी। त्रिपाठी-सरोज संवाद के दौरान दिलचस्प यह रहा कि मीटिंग में बैठे बाकी रिपोर्टरों में से कोई भी कुछ नहीं बोला।
संजय के लिए तो जैसे यह एक अनुभव था। हिला देने वाला अनुभव। कि एक ठीक ठाक अख़बार के दो पत्रकार इस स्तर पर भी आ सकते हैं भला ? पर जैसे यही काफी नहीं था। आदत से मजबूर त्रिपाठी मीटिंग से निकलते ही सरोज के बारे में जो भी कुछ कह सकता था, एक अभियान के तहत कहना शुरू कर दिया। कि सरोज जी एक भी सामान नहीं ख़रीदते। राशन, दूध, घी, कपड़ा, साबुन पेस्ट तक कहां-कहां से उन के घर मुफ्त आता है की पूरी फेहरिस्त वह परोसने लगा और बताने लगा कि बुढ़वा एक नर्स से भी फंसा पड़ा है। त्रिपाठी यह सारे ब्यौरे अपने मोहक और रहस्यमय अंदाज में परोसता और कहता कि, ‘‘यह बुड्ढा खुद ही घूम-घूम शहर भर में अख़बार की नाक कटवाता फिरता है और दूसरों को हड़काता रहता है कि तुम ने अख़बार की नाक कटवा दी।’’ इस सब का असर यह हुआ कि सरोज जी ने दूसरे रोज त्रिपाठी को एक ऐतिहासिक एसाइनमेंट सौंपा। वह बड़े प्यार से बोले, ‘‘त्रिपाठी जी आप मेहनती आदमी हैं। और यह काम आप ही कर सकते हैं।’’
‘‘आज्ञा दीजिए दादा !’’ त्रिपाठी भी मक्खन लपेट कर बोला।
‘‘क्या है कि शहर की एक बहुत बड़ी समस्या है मेनहोल का खुला रहना।’’ सरोज जी त्रिपाठी को समझाते हुए बोले, ‘‘इस पर आप कुछ करिए !’’
‘‘बिलकुल दादा !’’ त्रिपाठी हाथ जोड़ कर विनम्रता पूर्वक बोला, ‘‘यह बहुत बड़ी समस्या है। और वह भी राजधानी में। यह तो हद है दादा।’’ उस ने जोड़ा, ‘‘आज ही देखता हूं।’’ कह कर त्रिपाठी ने हाथ जोड़ लिए।

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