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न इबादत, न अदावत, न आरती न भजन

Bhagwan Singh

by Bhagwan Singh
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सभी मजहबों की किताबें हजार दो हजार साल या इससे पुरानी हैं, वे हमें पीछे की ओर, उस युग में, ले जाती हैं जब वे किताबें लिखी गई थीं और समकालीन यथार्थ को देखने-समझनें में बाधक बनती हैं, पर बचपन से ही परंतु लगातार दुहराए जाने के कारण इनकी इबारतें हमारे अवचेतन में उतर जाती हैं जो हमारे चेतन को नियंत्रित करता है। हमारी लते या आदतें और हमारे विश्वास और पूर्वाग्रह उसी के निरेदेशन में तैयार होते हैं। अर्नाल्ड टायनबी की पुस्तक चेंज हैबिट का शीर्षक ही एक चेतावनी बनकर आता है। परिवर्तन हो रहे हैं और हमको अपनी पुरानी आदतों के कारण अपने को उनके अनुसार ढाल नहीं पा रहे हैं तकनीकी प्रगति और सामाजिक पिछड़ेपन की विडंबना का मुख्य कारण। ज्ञान अलग कुछ क्रिया भिन्न है इच्छा क्यों पूरी हो मन की। एक दूसरे से न मिल सके यह विडंबना है जीवन की।
आप का मत या मजहब कोई भी हो आप अपने से प्रश्न करें या दूसरा कोई आपसे प्रश्न करे, ‘आप क्या चाहते हैं?’ तो आपका जो भी उत्तर होगा वह भौतिक सीमा में होगा – आप की बीमारी दूर हो जाए, नौकरी लग जाए, बच्चे पढ़ लिख लें, बेटी की शादी हो जाए, अपना एक घर हो, फसल अच्छी हो, कारोबार बढ़े, हड़ताल न हो, सभी सुखी हों। कोई न कहेगा कि ईश्वर का दर्शन हो, या उसकी आप पर कृपा बनी रहे। हां, डिप्रेसन के शिकार लोगों में कुछ कह सकते हैं कि मैं जीना नहीं चाहता, और उद्विग्नता से ग्रस्तकुछ ऐसे मिल सकते हैं जो कहें कि मैं दुनिया को मिटा देना चाहता हूं, या अमुक से बदला लेना चाहता हूं। यदि पूछा जाए कि आपकी यह कामना कैसे पूरी होगी तो आप उलझन में पड़ जाएंगे, परंतु यदि आप पूरी तरह निराश नहीं हो चुके है तो आप यह नहीं कहेंगे कि परमात्मा बचाएगा। हर हालत में आप जानते हैं कि आपकी इच्छा की पूर्ति आपके प्रयत्न से होनी है।
हां यदि आपने अपने प्रयत्न और परिस्थितियों के योग से ऐसी सफतला पाई है जो आशातीत है और आप से कोई पूछे कि आपसे यह कैसे संभव हुआ तो दस में नौ का उत्तर होगा, ‘ऊपर वाले की मरजी।’ यह कुछ वैसा ही है जैसे कैलाश गिरि के शिखर पर पहली बार झंडा गाड़ने वाला अपने विकट आरोहण और अपने पौरुष का अपमान करते हुए कहे कि यह ऊपर वाले की मरजी थी।
गौर करें तो आपकी जरूरतों को पूरा करने को ऊपर वाला नहीं आता, पर जब आप अपने पौरुष और बुद्धिबल से आशातीत सफलता पाते हैं तो ऊपरवाला आ जाता है आप का प्रसाद पाने को और आप उस पुरुषार्थ को छोड़ कर उसकी पूजा में अपना इतना समय, श्रम और धन गंवा कर अपने चढ़ावे का एक क्षुद्र अंश वापस पा कर सोचते हैं ऊपर वाले का प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं।
ऊपर वाला हो या न हो पर हम हैं। दुनिया हमारे पुरुषार्थ से बदलती है और पुरुषार्थ बुद्धि और विवेक से संचालित होने पर ही फलीभूत होता है। ऊपर वाले से हम जितनी ही दूरी बना कर चलते हैं और वास्तविकता पर जितना ध्यान केंद्रित करते हैं उसी अनुपात में हम आगे बढ़ पाते हैं।
परंतु यदि आप का साथ ऐसे लोगों से है जो आगे बढ़ना ही नहीं चाहते और सामाजिक जरूरत है कि आपका कोई काम उनको आहत न करे तो आपका आगे बढना उनके पीछे डटे रहने से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस्लाम की ग्रंथियों को समझना यहीं जरूरी हो जाता है। अपने परिजनों और पड़ोसियों को समझे बिना आप चैन से नहीं रह सकते।
इस्लाम रेगिस्तानी धरती के बद्दुओं (खानाबदोशों) की जरूरतों के अनुसार तैयार किया गया मजहब है, जो अपने झगड़ालूपन और आत्मश्लाघा (कबीलाई स्वाभिमान) के लिए विख्यात या कुख्यात रहा है। इसमें जिस चीज की कमी है वह है विचार और शील। इसे मुसलमानों ने अपनी आदत में ढाल लिया। इसने दूसरे मजहबों से बुराइयां अपनाईं और अपनी पहली की बुराइयों में शामिल कर लिया। जिन दिनों इस्लाम का जन्म हुआ, ईसाई पोपतंत्र गैर ईसाई मतों, विचारों, उपासना के स्थलों, ज्ञान और दर्शन सभी को मिटा रहा था। उसके प्रकोप के शिकार उन्हीं देशों के लोग हुए जिनमें उसका प्रवेश हुआ। उन्होंने अपने ही लोगों का वध किया, अपनसुंदरियों को मायाविनी कह कर जिंदा जलाया, महिलाओं की पवित्रता की रक्षा के लिए चेस्टिटी बेल्ट आरंभ किया जो मस्लिम हिजाब की तुलना में अपार गर्हित है । ईसाइयों मे यातनावध (लिंचिंग) का आरंभ किया और /पतिता’ के लिए संगसार (पत्थर बरसा कर मारना) वास्तुकृत वहीं से आया। जिस तरह इसके भुक्तभोगी यूरोप लोग, उनकी प्रतिमाएं, ग्रंथागार, महाविद्यालय और विद्वान हुए, उसी तरह इस्लाम का प्रकोप अरब देशों, फारस और हिन्दुस्तान हुआ। विडंबना यह कि अब्बासी खिलाफत में भारत, ईरान, मध्येशिया और चीन तक से ज्ञान-विज्ञान का जो संचय हुआ जिससे अरब में नवजागरण हुआ और जिहादों (क्रूसेड्स) के दौर तक अरब दुनिया के सबसे अग्रणी देश बना रहा उसको वह संभाल न सका, यूरोप के नवजागरण का सेतु बन हलाकू की भेंट चढ़ गया। भारत पर तो यूं भी तुर्कों, हूंणों, मंगोलों के वंशजों के ही हमले हुए। जिस मुगल काल को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जाता है, एकमात्र औरंगजेब को छोड़ कर दूसरे सभी शासक नशेड़ी (ड्रग एडिक्ट) थे और कुछ (अकबर और जहांगीर) को दौरे भी पड़ते थे।
इस्लाम ने दुनिया को कुछ नहीं दिया, जब कि यही बात यहूदियों और ईसाइयों के विषय में नहीं कही जा सकती। इस दृष्टि से सामी मतों में सबसे नया होते हुए भी सबसे पिछड़ा मजहब है। एक ही पौराणिक दाय होते हुए भी यहूदियों और ईसाइयों ने ज्ञान, विज्ञान, कला, प्रौद्योगिकी, दर्शन में अभूतपूर्व कीर्तिमान रखे, वहां इस्लाम अपना कैलेंडर तक नहीं ठीक कर पाया, ज्ञान विज्ञान को हो शैतान की कारस्तानी बताते हुए इससे नफरत पैदा करता रहा और जहां भी गया व्याधि बन कर गया, बसने के बाद भी उजड़ा रहा और उजाड़ता रहा। अपनी जमीन से लगाव नहीं पैदा कर सका, वहां के निवासियों के साथ सहयोगी की भूमिका में नहीं रहा, प्रतिद्वन्द्वी की भूमिका में रहा, हावी होने के प्रयत्न में और तकरार की कोशिश में रहा, इसलिए माइनारिटी कम्लेक्स से ग्रस्त रहा, खतरा ता पैदा करता और असुरक्षित अनुभव करता रहा, जब कि इसी देश में अत्यंत अल्पमत में रहते हुए पारसियों, यहूदियों को कभी इसका बोध नहीं हुआ, उनके रीति-नीति और विश्वास में कभी कोई बाधा अनुभव न हुई।
इसलिए अधिकांश मुसलमानों में धार्मिक कट्टरता इतनी प्रबल है कि हम न तो उन्हें कुछ सिखा सकते हैं, न ही उनसे कुछ सीख सकते हैं। उनकी स्पर्धा में जाना, उन्होंने ऐसा किया तो हम ऐसा करेंगे, न चाहते हुए भी, उन्हीं जैसा बनने, वैसी ही जड़ता का अपने समाज में विस्तार करने जैसा है। हम जिस समय पर यह चर्चा कर रहे है काशी के ज्ञानवापी और मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान के सवाल विचाराधीन है। यदि धार की भोजशाला का प्रश्न किसी ने या स्वयं भा.पु.स. ने उठाया होता या आगे उठाए तो सर्वथा उचित होता, इनका प्रतीकात्मक महत्व है, पर जहां कहीं भी मस्जिद के नीचे मंदिर के प्रमाण मिल जाएं, या मात्र संभावना हो, वहां मस्जिद को गिराकर मंदिर बनाना या वहां पूजापाठ की अनुमति मांगना इतना आत्मघाती है कि हम पश्चिमी योजना के अनुसार अपने को वहशी सिद्ध करने को व्यग्र है और दिमाग से इतने तंग कि हम विश्व धरोहरों को नष्ट करने के कारण तलाश सकते हैं। यदि आगे बढ़ना है तो पीछे का बहुत कुछ भूलना होगा। बदले की कार्रवाई इतिहास नहीं दंडसंहिता की परिधि में आती है।

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