न तो पुरस्कार मिलने से कोई बड़ा हो जाता है और न ही पुरस्कार न मिलने से किसी का अपना कद घट जाता है। आपका कद वही है, जो आपकी प्रतिभा है।

 

 

लेकिन पिछले करीब 40 वर्षों में साहित्य जगत की कारगुजारियों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इस प्रतिभा को माँजने-चमकाने और इस पर धार रखने का काम उतना नहीं किया गया जितना इसे ओवररेट और अंडरइस्टीमेट करने पर किया गया। खासकर हिंदी साहित्य में विचारधारा के नाम पर किस तरह माफ़ियावाद फूला-फला है, यह कहने की जरूरत नहीं है। यह माफ़ियावाद केवल लेखकों के एस्टिमेशन तक सीमित नहीं रहा है। लेखक-आलोचक-संपादक-अफसर के रूप में प्रसिद्ध माफियाओं का विश्वविद्यालयों, मीडिया और साहित्य संस्थानों की नौकरियों पर तो पूरा लठैतों जैसा कब्जा रहा है। इस कब्जे ने ही इन्हें महान बनाया। बाकी इनकी महानता के मूल में कुछ और था नहीं।

 

 

इस कब्जे का भी कोई दूसरा तरीका नहीं था। वास्तव में यह केवल राजनीति के उसी परनाले में आकंठ डूबकर किया गया था, जिसका वे प्रकट तौर पर विरोध कर रहे थे। हाथी के दाँत की तरह। सौ कॉपी छपने वाली पत्रिकाओं में जिनके लिए हजार गालियां लिखी जाती थीं, बंद कमरों में उन्हीं का चरणचम्पन किया जाता था। 2014 के बाद यह सब स्पष्ट हो गया।
उसके बाद साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर जो राजनीति हुई और उसमें जिस तरह फर्जी महापुरुषों की कलई खुली, उसके बाद जो मर्यादित तरीके से फर्जी महापुरुषों के विरोधी भी सामने नहीं ला सकते थे, वह फर्जी महापुरुषों ने स्वयं कूद-कूद कर सबके सामने ला दिया। जिन्हें नहीं जानना था, वे भी जान गए कि इनका सच क्या है।
इस सरकार ने देश के प्रतिष्ठित पुरस्कारों को सचमुच प्रतिष्ठा दी है। उंस आमजन तक पहुंचाया है, जिसका तप-त्याग वाकई इसका अधिकारी है। कौन नहीं जानता है कि पहले कैसे-कैसे लोगों को कौन-कौन-से पुरस्कार मिले हैं! अब वे किन-किन शर्तों पर और किस प्रकार मिले होंगे, यह किसी को बताने की जरूरत तो नहीं है! क्या ऐसे लोगों को यह अच्छा लगेगा कि जिन पुरस्कारों-सम्मानों पर वे अपना एकाधिकार मानते रहे, उनमें ऐरे-गैरों की हिस्सेदारी लग जाए?
मैं बिल्कुल नहीं कहता कि पुरस्कार अस्वीकार करने वाला हर व्यक्ति ऐसा ही होता है। बल्कि मेरा मानना है कि किसी की भी असहमति का सम्मान किया जाना चाहिए। मैं ऐसे लेखकों को भी जानता हूँ जो पुरस्कार परंपरा के विरुद्ध हैं और इसके मूल में उनके अपने ठोस तर्क हैं, कारण और सिद्धांत हैं। वे पुरस्कारमात्र के विरुद्ध हैं। सरकार या संस्था के विरुद्ध नहीं। क्योंकि राजनीति उनका काम नहीं है। उन्होंने अस्वीकार भी किया तो बड़ी विनम्रतापूर्वक। निस्पृह भाव से। पुरस्कार के प्रति निस्संग दृष्टि। इन्हीं में एक नाम Bhagwan Singh और एक Ganesh Pandey का है।
मुझे लगता है, पुरस्कार के प्रति विचार का यह भी एक ढंग है, एक पक्ष है। अगर कोई विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करता है तो उसके निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए। और अगर कोई ठुकराने जैसे भाव से पुरस्कार का अपमान करता है, उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाता है, राजनीति करता है, तो यह केवल उसकी हीन भावना का प्रकटन है। उंस पर रोष नहीं, सिर्फ दया की जानी चाहिए।

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